Sunday, September 22, 2024
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श्रद्धा और समर्पण से बैराग्य प्राप्त होता है-जगतगुरू

रायबरेली,पवन कुमार गुप्ता। आध्यात्मिक महापर्व मानस संत सम्मेलन के द्वितीय दिवस को जगतगुरू श्रीकामदगिरी पीठाधीष्वर रामानन्दाचार्य श्री राम स्वरूपाचार्य जी महाराज ने अपने प्रवचन में श्रोताओं से कहा कि साधना, साधन, श्रद्धा और समर्पण और संत संस्कृतिक विषय पर सम्बोधन दिया।श्री जगतगुरू ने कहा कि साधना और साधन दोनो दो बाते है। साधना समर्पण के लिए होता है जबकि साधन भोग के लिए होता है। यदि भोग को ईष्वर का दिया हुआ प्रसाद मान ले तो वो मिठाई न होकर प्रसाद हो जाता है। भगवान को जब भोग लगा देते है और उसमे तुलसीदल डाल दिया जाता है तो लोग प्रसाद के रूप में उसे ग्रहण कर अपने माथे से लगाते है। श्रद्धा और समर्पण पर अपने प्रवचन में श्री जगद्गुरू ने कहा कि श्रद्धा और समर्पण से बैराग्य प्राप्त होता है। जबकि साधन को उपभोग मान लेने पर सांसारिक जीवन में मनुष्य विरत हो जाता है। जगतगुरू ने कहा कि मानस में परम और प्रबल संयासी है। परम संयासी के रूप में लक्ष्मण, उर्मिला के जीवन पर वर्णन किया और जबकि प्रबल सन्यासी के रूप में हनुमत लाल के जीवन पर अपनी व्याख्या दी।स्वामी रामस्वरूपाचार्य जी ने कहा कि धर्म है तो पति पत्नी एक दूसरे को पति और पत्नी के रूप में स्वीकार करते है यह समझौता नहीं है संस्कार है। उर्मिला सनातम धर्म की संस्कृति है, लक्ष्मण 14 वर्ष राम के साथ रहकर अपनी नींद तक नही लिए और वहीं दूसरी ओर त्याग व वैराग्य को उर्मिला ने सजीव रखा। इसी क्रम में जगतगुरू ने कहा कि सुलोचना भी सन्यासी है। वह महाबलि मेघनाद की पत्नी थी और यज्ञ कर रही थी। त्रिजटा को भी उन्होने सन्यासिनी का रूप दिया। विभीषण भी संयासी थे कि लंका जैसे विपरीत वातावरण में राम, गाय व तुलसी के साथ ही धर्म का पालन करते थे। त्रिजटा विभिषण की पुत्री थी जो सीता जी का सहयोग अशोक वाटिका में किया। जगतगुरू ने कहा कि सन्यासी का काम सत्य का साथ देना है न कि असत्य का। यदि सन्यासी के समक्ष गलत कार्य होता है तो उसका विरोध करना धर्म है। इसके उदाहरण में उन्होने कहा कि भीष्म पितामह परम संत थे परन्तु द्रोपदी के चीरहरण के समय वह देखते रहे परन्तु विरोध नहीं किया यदि वे विरोध करते तो दुशासन व दुर्योधन चीर हरण न कर पाते। इसलिए भीष्मपितामह को दण्ड स्वरूप 6 माह तक बाणों की सैय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी। उर्मिला और लक्ष्मण परम बैरागी थे। उन्होने अपनी इन्द्रियो पर नियंत्रण रखा। प्रतिकूल वातावरण में रहकर भी साधनारत रहना विभिषण की विषेषता है। रामसीता को रावण से मुक्ति दिलाने के लिए महाबली का खोज नहीं की बल्कि संतो की खोज की और संत स्वरूप में श्रीराम को जानकी को प्राप्त करने के लिए हनुमान, सुग्रीव, विभिषण, त्रिजटा आदि का सहयोग प्राप्त किया।
द्वितीय दिवस के अवसर पर हरिद्वार से पधारे महामण्डलेष्वर पूज्य श्री स्वामी अभियानंद सरस्वती जी महाराज ने रामचरित मानस पर बहुत ही सुन्दर ढंग से व्याख्या की। श्री मिश्र ने कहा कि सुख और दुख सभी जीव महसूस करते है। सुख की ओर पषु भी भाग जाता है और मनुष्य भी भागता है। यह जीवात्मा का लक्षण है। जगत जननी सीता के अवतार पर विषेष रूप से स्वामी जी ने कहा कि माता का अवतार पृथ्वी से हुआ है जबकि समस्त देवी देवताओं को माॅ के गर्भ से ही आना पड़ा है। उन्होने कहा कि मानस में 7 गीता है जिसमें गुरू गीता, शिव गीता आदि। शरीर ही पंचवटी है यह पंचतत्व से निर्मित है। गुरू जी ने कहा यदि आपकों सबकुछ प्राप्त करना है तो भगवान को अपना बना ले या भगवान आपकों अपना बना ले। ज्ञान बैराग्य, माया, भक्ति पर विशेष चर्चा करते हुए उन्होने कहा कि ज्ञान वैराज्ञ भक्ति ईष्वर की ओर हमे ले जाती है। जबकि माया विपरीत दिशा में ले जाता है। सांसारिक दिषा में ले जाता है। यानी एक जगत को छुड़ाती है तो दूसरी जगत में प्रवेश कराती है।
जगतगुरू की पादुका पूजन संजय गुप्ता सपत्नी ने किया। यज्ञाचार्य श्री देवीशकर पाण्डेय ने कराया। संचालन डा0 अम्बिकेष त्रिपाठी प्रतापगढ़ द्वारा किया गया। संगठन के अध्यक्ष गणेष गुप्ता, महामंत्री ज्योर्तिमयानंद जी, मंत्री सुरेन्द्र कुमार शुक्ल, कोषा/यक्ष उमेष सिकरिया, सुक्खू लाल चांदवानी, डा0 एसएम सिंह, राकेष तिवारी, राधेष्याम कर्ण, राकेष कक्कड़, गिरीष डोबरियाल, गोपाल श्रीवास्तव, महेन्द्र अग्रवाल, राघवेन्द्र द्विवेदी, राघव मुरारका, राम बिहारी अवस्थी, अतुल गुप्ता, आषीष त्रिपाठी, डा0 तारा जायसवाल सहित बड़ी संख्या में सुधीश्रोतागण उपस्थित रहे।