“पेड़ सिर्फ़ लकड़ी नहीं होते, ये वो साया हैं जो हमारी साँसों को सहारा देते हैं। मिट्टी सिर्फ़ ज़मीन नहीं होती, वो हमारी जड़ों की पहचान है।”
क्या 5 जून पर्यावरण दिवस मनाकर पर्यावरण बच जाएगा?
हर साल 5 जून आता है — हम पेड़ लगाते हैं, कुछ स्लोगन सुनते हैं और फिर अगले दिन वही ज़िन्दगी…प्लास्टिक की बोतल, AC की हवा, डिस्पोज़ेबल कप में चाय, ऑनलाइन ऑर्डर की पैकिंग में लिपटी दुनिया।
तो सवाल अब ये है, कभी लगा कि ये सब करते हुए हम ख़ुद ही उस धरती को जला रहे हैं, जो हमें जन्म देती है?
“धरती को बचाना हाँ बड़ा काम है, बस अपने छोटे-छोटे लालचों से जीतना है।” पर्यावरण क्या है? सिर्फ़ पेड़ नहीं… पूरा जीवन है |
जब हम पर्यावरण कहते हैं, तो उसका मतलब सिर्फ़ हरे-भरे जंगल नहीं होते।
वो हवा जिसमें माँ ने पहली बार गहरी साँस ली थी। वो पानी जो किसी किसान की मेहनत से भरा खेत सींचता है। वो मिट्टी जिसमें बचपन में हमने नंगे पाँव दौड़ लगाई थी। और वो सूरज जिसकी किरणों से शरीर ही नहीं, मन भी तपता है।
“मिट्टी में जो अपनापन है, वो शॉपिंग मॉल की चमक में कहाँ?”
आपदाएं, बीमारियाँ और हमारा बिगड़ता रिश्ता प्रकृति से कोरोना सिर्फ़ एक वायरस नहीं था। वो प्रकृति की एक गूंगी चीख थी, जो जब निकली तो सारी दुनिया थर्रा गई।
जंगल उजाड़े गए, नदियाँ बांधी गईं, ज़मीन खोदी गई, और अब परिणाम सामने हैं: कभी गर्मी 50 डिग्री पार करती है, तो कभी हवा में ज़हर घुला होता है।
“प्रकृति बहुत शांत रहती है, मगर जब बोलती है, तो सब सुनते हैं।”
पर्यावरण और स्वास्थ्य – सीधा संबंध
मैं एक डॉक्टर हूँ। मैंने अपने क्लिनिक में वो माँएं देखी हैं, जिनके बच्चे रोज़ बीमार पड़ते हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनका खाना, पानी, हवा सब कृत्रिम हो चुका है। मैंने वो बुज़ुर्ग देखे हैं जिनकी नींद सिर्फ़ इसलिए गायब है क्योंकि मोबाइल रेडिएशन से उनका दिमाग़ चैन नहीं ले पाता।
“दवा से नहीं, दुआ से पहले ज़रूरत है प्राकृतिक जीवन की।”
लेख/विचार
हम नहीं देख पाए, वो अब भी गा रहे थे: गांव की बाल्कनी से उड़ती स्मृतियाँ
शहरों की भीड़ में रहते हुए हम जैसे संवेदना शून्य होते चले जाते हैं। वहां सुबह मोबाइल अलार्म से होती है, यहां मुर्गे की बांग से। वहां हवा एसी की होती है, यहां आम के पेड़ की। वहां आसमान धुंध से भरा होता है, यहां पक्षियों की उड़ान से।
– प्रियंका सौरभ
शहर की चमचमाती सड़कों, ऊंची इमारतों और बंद खिड़कियों के पीछे जब हम जीवन को व्यस्तताओं की कैद में जी रहे होते हैं, तब कहीं दूर गांवों की बाल्कनियों में जीवन अब भी खुले आकाश के नीचे साँस ले रहा होता है। वहां सुबहें अब भी चिड़ियों की चहचहाहट से शुरू होती हैं, दोपहरें कोयल की तान से सजी होती हैं, और रातें उल्लुओं की टेर में गूंजती हैं। यह लेख उन्हीं स्मृतियों और अनुभवों की यात्रा है — एक गांव की बाल्कनी में बैठकर महसूस की गई उस दुनिया की, जो कभी हमारी थी, लेकिन जिसे हमने शहर के शोर में कहीं खो दिया।
Read More »हरियाणा के सरकारी स्कूलों में शिक्षा का अंतिम संस्कार: जब पूरी क्लास फेल होती है, तो सिस्टम अपराधी होता है
हरियाणा के 18 सरकारी स्कूलों में 12वीं का रिजल्ट शून्य प्रतिशत रहा, जो राज्य प्रायोजित शैक्षिक विफलता का संकेत है। यह केवल छात्रों की असफलता नहीं, बल्कि पूरे शिक्षा तंत्र की नाकामी है — जिसमें शिक्षक नहीं, संसाधन नहीं और जवाबदेही भी नहीं। सरकार को पहले से इन स्कूलों की हालत पता थी, फिर भी कोई सुधार नहीं किया गया। यह स्थिति शिक्षा के अधिकार के साथ धोखा है और गरीब छात्रों के सपनों की हत्या है। अब सवाल पूछना जरूरी है — वरना यह ढांचा पूरी पीढ़ी को अंधेरे में धकेल देगा।
– डॉ सत्यवान सौरभ
सीजफायर पर इतना घमासान क्यों ?
पाकिस्तान स्थित आतंकी अड्डो को निशाना बनाते हुए भारत द्वारा की गयी सैन्य कार्रवाई बन्द हो जाने के बाद पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है। विपक्षी दल जहाँ सरकार पर हमलावर हैं वहीं सत्ता पक्ष के नेता ऑपरेशन सिन्दूर को सफल तथा सीजफायर को अस्थाई बता रहे हैं। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नाम अपने सम्बोधन में बताया कि भारत ने पहले तीन दिनों में ही पाकिस्तान को इतना तबाह कर दिया जिसका उसे अन्दाजा भी नहीं था। भारत की आक्रामक कार्रवाई के बाद पाकिस्तान बचने के रास्ते खोजने लगा था। प्रधानमन्त्री ने यह भी बताया कि पाकिस्तान दुनियां भर में तनाव कम करने के लिए गुहार लगा रहा था और बुरी तरह पिटने के बाद पाकिस्तानी सेना ने 10 मई की दोपहर हमारे डीजीएमओ को सम्पर्क किया। तब तक हम आतंकवाद के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बड़े पैमाने पर तबाह कर चुके थे।
Read More »भारतीय राजनीति की ‘मिसाल जोड़ियां’
एक कहावत है कि जोड़ियां आसमान से बन कर आती हैं, लेकिन यह कहावत केवल शादी-विवाह तक ही सीमित है क्योंकि बात जब राजनीति की हो तो दो लोगों के बीच में साझा रणनीति और सूझबूझ अहम हो जाती है। भारतीय राजनीति का इतिहास उन जोड़ियों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने साझा विजन, नेतृत्व और रणनीतिक कौशल से देश की दिशा और दशा को आकार दिया। ये जोड़ियां न केवल अपनी पार्टी के लिए बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं। पंडित नेहरू-महात्मा गांधी की वैचारिक साझेदारी से लेकर नरेंद्र मोदी-अमित शाह की आधुनिक रणनीति तक, इन जोड़ियों ने भारतीय राजनीति को एक स्वर्णिम राह पर आगे बढ़ाया।
सर्व ज्ञात है कि स्वतंत्रता संग्राम में गांधी-नेहरू की जोड़ी ने भारत को एकजुट करने में अभूतपूर्व भूमिका निभाई। गांधी जी का अहिंसा और सत्याग्रह का दर्शन जन-जन तक पहुंचा, तो नेहरू ने अपने आधुनिक और समाजवादी दृष्टिकोण से कांग्रेस को संगठित किया। गांधी की नैतिक शक्ति और नेहरू की वैश्विक सोच ने भारत को आजादी की राह पर अग्रसर किया। यह जोड़ी विचारधारा और कार्यान्वयन के तालमेल का प्रतीक बन गई।
इसी क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की राजनीतिक जोड़ी भी आती है, जिन्हे भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक और प्रभावशाली साझेदारी के रूप में जाना जाता है। दोनों भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक नेताओं में से थे और उन्होंने पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी की सफलता का आधार उनकी अलग-अलग लेकिन पूरक नेतृत्व शैली थी, जैसे वाजपेयी हिंदुत्व के विचारों को समर्थन देते थे, लेकिन उनकी छवि ऐसी थी कि गैर-भाजपा दल और अल्पसंख्यक समुदाय भी उन पर भरोसा करते थे। उनकी कविताएं और वक्तत्व कला ने उन्हें जनता का प्रिय नेता बना दिया था, जो आज भी कायम है। दूसरी ओर आडवाणी एक अनुशासित और रणनीतिक नेता थे। उन्होंने भाजपा को संगठनात्मक रूप से मजबूत किया और हिंदुत्व को केंद्र में रखकर पार्टी की विचारधारा को प्रचारित किया। 1998 में वाजपेयी के नेतृत्व में भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया, जिसमें आडवाणी का समर्थन महत्वपूर्ण था। वहीं 1999 कारगिल युद्ध के दौरान वाजपेयी की कूटनीति और आडवाणी की आंतरिक सुरक्षा नीतियों ने भारत को मजबूत स्थिति में रखा।
ऐसी ही एक जोड़ी साउथ में भी उभरी। जयललिता और एम. जी. रामचंद्रन (एमजीआर) की जोड़ी।
प्रशासन से पॉपुलैरिटी तक: आईएएस अधिकारियों का डिजिटल सफर
आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया पर बढ़ता रुझान एक नई चुनौती बनता जा रहा है। वे इंस्टाग्राम, यूट्यूब और ट्विटर पर नीतियों से जुड़ी जानकारियाँ और प्रेरणादायक कहानियाँ साझा कर रहे हैं, जो जागरूकता बढ़ा सकती हैं। लेकिन क्या यह डिजिटल स्टारडम उनकी वास्तविक प्रशासनिक जिम्मेदारियों से समझौता है? व्यक्तिगत छवि बनाने की होड़ में पारदर्शिता और निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है। ऐसे में एक संतुलन जरूरी है, जहां अधिकारी डिजिटल दुनिया में सक्रिय रहते हुए भी जनता की सेवा को प्राथमिकता दें।
-डॉ. सत्यवान सौरभ
भारत में सिविल सेवा हमेशा से ही सम्मान और प्रतिष्ठा का प्रतीक रही है। एक आईएएस अधिकारी का दायित्व न केवल नीतियों को लागू करना होता है, बल्कि जनता की समस्याओं को समझकर उन्हें हल करना भी है। लेकिन हाल के वर्षों में एक नया चलन देखने को मिल रहा है – आईएएस अधिकारियों का सोशल मीडिया की ओर बढ़ता आकर्षण।
Read More »सिंदूर’ बनाम विदेश मंत्रालय: पाकिस्तानी हमलों पर भारत के बयानों में दिलचस्प अंतर
राजीव रंजन नाग, नई दिल्ली। पाकिस्तान पर हाल ही में हुए हमलों के संबंध में भारतीय जनता के समक्ष दो अलग-अलग तरह की कहानियाँ पेश की गई हैं। पहली कहानी, जैसा कि ऑपरेशन के नाम “सिंदूर” से पता चलता है, पहलगाम हत्याकांड की धार्मिक प्रकृति को दोहराने और प्रतिक्रिया में स्पष्ट रूप से लिंग आधारित हिंदू छवि को उभारने के लिए बनाई गई है।
दूसरी कहानी – एक सावधानीपूर्वक तैयार की गई अधिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी कहानी – विदेश मंत्रालय की ब्रीफिंग में दिखाई दी। इसका नेतृत्व दो महिला अधिकारियों – एक हिंदू और एक मुस्लिम – ने किया और इसमें विदेश सचिव विक्रम मिस्री का एक बयान भी शामिल था, जिसमें दोहराया गया कि पहलगाम हमले का उद्देश्य राष्ट्र को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करना था, लेकिन भारत सरकार और उसके लोगों ने चुनौती का सामना किया और विभाजित होने से इनकार कर दिया।
मजदूरों का भारत: शोषण के साए में खड़ा विकास
“जिन हाथों ने इस देश की इमारतें खड़ी कीं, उन्हीं हाथों को आज रोटी, छत और पहचान के लिए जूझना पड़ रहा है। दिहाड़ीदार मजदूर केवल श्रम नहीं देते, वे इस देश की नींव हैं — लेकिन सबसे उपेक्षित भी। विकास की रफ्तार में उनका पसीना झलकता है, पर उनकी आवाज़ नहीं सुनाई देती। क्या यही है ‘नए भारत’ का सपना — जहाँ श्रमिक अनदेखे, अनसुने और असुरक्षित रहें?”
-डॉ. सत्यवान सौरभ
बदलते दौर में जब तकनीक, पूंजी और ग्लैमर की दुनिया भारत को चमकाता दिखता है, तब देश का एक बड़ा तबका ऐसा है जो उस चमक की नींव बनाता है लेकिन खुद अंधेरे में घुटता रहता है। यही तबका है — दिहाड़ीदार मजदूर। जिनकी बदौलत गगनचुंबी इमारतें खड़ी होती हैं, सड़कों पर रफ्तार दौड़ती है, और शहर सांस लेता है। परन्तु विडंबना यह है कि इन मजदूरों के जीवन में न तो स्थिरता है, न सुरक्षा, न पहचान और न ही संवेदनशीलता।
Read More »ख़ैर मख़दूम
ये वक्त ख़ैर मख़दूम का, है कितना खुश नसीब।
रिश्तो को जोड़ रखने का, बन जाता है रक़ीब।
हम उनकी मेजबानी का, कितना करें तारीफ़।
लब्ज़ ही मेरे पास ना, हम कैसे करें तारीफ़ ।
ख़ुदा ने जो यह की अता, दुनिया को बेदाग समीर।
विनाश के पाँच तोप: शिक्षा से तहसील तक
शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, थाना और तहसील जैसे पाँच संस्थानों की विफलता गंभीर चिंता का विषय है। शिक्षा अब ज्ञान नहीं, कोचिंग और फीस का बाजार बन चुकी है। स्वास्थ्य सेवाएँ निजीकरण की भेंट चढ़ चुकी हैं, जहाँ इलाज से ज्यादा पैकेज बिकते हैं। चिकित्सा व्यवस्था मुनाफाखोरी का अड्डा बन गई है। थाने न्याय की जगह रिश्वत का केंद्र और तहसील एक कागज़ी भूलभुलैया बनकर रह गई है। इन संस्थाओं को सुधारने की जरूरत हैं।
-प्रियंका सौरभ
“शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, थाने औ तहसील।
सब मिलकर ताबूत में, ठोंक रहे हैं कील।।”
यह दो पंक्तियाँ महज़ अलंकार नहीं, बल्कि उस निराशा का संगीन उद्घोष हैं, जो आम आदमी की उम्मीदों को कुचलकर उसे निराशा की चुम्बक बनाती हैं। ये पाँच स्तंभों से हमारा समाज अपनी नाजुक मिट्टी का संतुलन बनाये रखता है — पर, अफ़सोस, वे स्वयं पत्थर बन चुके हैं।