कैसे लोग अंधभक्ति में बाबा की पेशाब को “प्रसाद” मानकर पी सकते हैं, लेकिन जाति के नाम पर दलित व्यक्ति के छूने मात्र से पानी अपवित्र मान लिया जाता है। इन समस्याओं की जड़ें धर्म, राजनीति, शिक्षा और मीडिया की भूमिका में छिपी हैं। शिक्षा में विवेक की कमी, मीडिया की चुप्पी, धर्मगुरुओं की मनमानी और जातिवादी मानसिकता समाज को पिछड़ेपन की ओर ढकेल रही है। यह सवाल उठाता है कि यदि आस्था किसी बाबा की पेशाब को ‘पवित्र’ मान सकती है, तो एक दलित का पानी ‘अपवित्र’ कैसे हो सकता है?
-प्रियंका सौरभ
भारत, जिसे आध्यात्मिकता और विविधता का देश कहा जाता है, अपने भीतर विरोधाभासों का एक ऐसा संसार छुपाए बैठा है जो कभी-कभी चौंका देता है। एक ओर हम विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और सांस्कृतिक परतों में आज भी मध्ययुगीन सोच जड़ें जमाए बैठी है।
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