उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर की जनता ने एक बार फिर भाजपा को सत्ता सौंपी तो पंजाब में आप की झाड़ू ने कमाल कर दिखाया| अब बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर बहस शुरू हो गयी है कि चार राज्यों में भाजपा की सत्ता में वापसी तथा पंजाब में पराजय के प्रमुख कारण कौन-कौन से रहे| कुछ लोग चार राज्यों में भाजपा की वापसी का प्रमुख कारण उसके सुशासन को मानते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी इसे विकल्पहीनता का परिणाम बता रहे हैं| क्योंकि महंगाई और बेरोजगारी जैसे ज्वलन्त मुद्दे भी भाजपा को सत्ता में वापसी से नहीं रोक पाये| खासतौर से उत्तर प्रदेश में| इन मुद्दों पर नाराज मतदाताओं को परिवारवाद के मकड़जाल में जकड़ी सपा विकल्प रूप में पूरी तरह रास नहीं आयी| जनाधार खो चुकी बसपा और कांग्रेस पर जनता का भरोसा पहले ही नहीं था| लेकिन समाजवादी पार्टी विकल्प बन सकती थी| सपा की बढ़ी सीटें यह संकेत करती हैं कि कहीं न कहीं लोगों में भाजपा के प्रति असन्तोष का भाव है| लेकिन सपा के परिवारवाद, उसके पिछले कार्यकालों में हुए अपराध तथा भ्रष्टाचार के ग्राफ का ध्यान करके सामान्य मतदाता ठिठक सा गया| गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में 2017 के मुकाबले राजग की सीटें जहाँ 325 से घटकर 273 रह गयीं वहीँ सपा और उसके सहयोगी दल 48 से बढ़कर 125 पर पहुँच गये हैं| अखिलेश यादव ने मंहगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर होम वर्क करने की बजाय यादव-मुस्लिम गठजोड़, सत्ता विरोधी रुझान तथा कोविड महामारी के कुप्रबन्धन के सहारे उत्तर प्रदेश की सत्ता प्राप्त करने का स्वप्न संजोया था, जो पूरा नहीं हो सका| कांग्रेस और बसपा के औंधे मुंह गिरने का लाभ समाजवादी पार्टी को मिल सकता था परन्तु परिवारवाद की संकीर्णता से उसने यह अवसर गँवा दिया| जबकि भाजपा ने एक ओर जहाँ सरकार की उपलब्धियाँ गिनायीं वहीँ दूसरी ओर सपा के यादव-मुस्लिम गठजोड़ को हथियार बनाकर उसी पर प्रहार करती रही| अब यदि उत्तर प्रदेश में सपा और भाजपा को मिले वोट प्रतिशत की बात करें तो 2017 के मुकाबले भाजपा का वोट बैंक मात्र 1.63 फीसदी बढ़ा है| जबकि सपा के वोट बैंक में 10.23 प्रतिशत का इजाफा हुआ| भारतीय जनता पार्टी के चाणक्यों के लिए यह मन्थन करने वाली बात है कि एक ओर केन्द्र और प्रदेश की डबल इंजन वाली सरकार थी तो दूसरी ओर प्रतिद्वन्दी रूप में एकमात्र अखिलेश यादव| इसके बावजूद सपा का बढ़ा वोट प्रतिशत भाजपा की अपेक्षा 5 गुना अधिक रहा| भारतीय जनता पार्टी इस बात से प्रसन्न हो सकती है कि 2017 के मुकाबले राजग की सीट संख्या 325 से घटकर भले ही 273 रह गयी हो लेकिन सत्ता तो अन्ततोगत्वा उसके पास ही रही| किसी भी राजनीति दल का मुख्य उद्देश्य येनकेन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करना हो सकता है| लेकिन उसको मिलने वाली सीट संख्या तथा वोट प्रतिशत का अन्तर उस दल की लोकप्रियता का सबसे बड़ा पैमाना होता है| प्रमुख मुद्दों को परिदृश्य से गायब करके सत्ता प्राप्त करना नहीं बल्कि हथियाना कहा जायेगा| भाजपा के स्थानीय प्रचारक आमजन को यह समझाने में सफल रहे कि रोजगार और मंहगाई जैसे मुद्दे ढांचागत समस्याओं से जुड़े हैं, इनका समाधान एकदम से नहीं हो सकता| उनके द्वारा मोदी और योगी की बेदाग छवि को सामने रखकर मतदाताओं को विश्वास दिलाने का एक तरह से सफल प्रयास किया गया कि जल्द ही ये नेता मंहगाई और बेरोजगारी का स्थाई समाधान ढूँढने में सफल होंगे| हालाकि सपा के सहयोगी दल प्रसपा नेता शिवपाल सिंह यादव मुफ्त राशन वितरण तथा किसान सहायता राशि को भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण मानते हैं| इससे इतर सोशल मीडिया के माधयम से हिन्दू-हिन्दू, मुस्लिम-मुस्लिम का जो खेल अन्दर ही अन्दर चला उसे भी मतों के ध्रुवीकरण का एक अहम कारण माना जा रहा है| इस बार मुस्लिम बिरादरी ने लगभग एकजुट होकर सपा के पक्ष में मतदान किया| जिसे असद्दुदीन ओवैसी जैसे कई मुस्लिम नेता भी नहीं रोक सके| 2017 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में 24 मुस्लिम विधायक चुने गये थे, जिनमें 17 सपा के थे| जबकि इस बार 34 मुस्लिम विधायक बने हैं, जिनमें 31 सपा के टिकट पर चुनाव जीते हैं| भाजपा को मुस्लिम विरोधी पार्टी मानने वाले मुसलमानों ने यदि बड़ी संख्या में सपा के पक्ष में मतदान किया तो वहीँ दूसरी ओर सारी समस्याओं को परे रखकर भाजपा को वोट देने वाले ऐसे हिन्दुओं की संख्या भी कम नहीं रही जिन्हें यह लगता है कि भाजपा ही एक ऐसी पार्टी है जो मुसलमानों के बढ़ते प्रभाव पर नियन्त्रण लगा सकती है| इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग ने भाजपा से डर कर सपा के पक्ष में मतदान किया तो हिन्दुओं के एक बड़े वर्ग ने मुस्लिमों के भय से भाजपा को वोट दिया है| काल्पनिक भय का यह वातावरण राजनीति के विद्रूप भविष्य का संकेत है| एक वर्ग का दूसरे पर बढ़ता अविश्वास दोनों को एक-दूसरे के विरुद्ध संगठित करके वर्ग संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है| सत्ता और कानून से अपराधी, माफिया और भ्रष्टाचारियों को भय हो, यह तो समझ में आता है लेकिन एक वर्ग विशेष के अन्दर किसी विशेष दल की सत्ता से भय व्याप्त होना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है| किसी भी व्यक्ति या संगठन द्वारा ऐसी किसी भी विचारधारा को प्रोत्साहित करना न तो सामाजिक रूप से उचित है और न संवैधानिक रूप से ही, जिससे देश की एकता और अखण्डता प्रभावित हो| संविधान का अनुच्छेद 15 केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग तथा जन्मस्थान के आधार पर विभेद का पूर्णतया प्रतिषेध करता है| सभी को अपने-अपने धर्म के आधार पर जीवन जीने का पूर्ण अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त है| विभिन्न विचारधाराओं का सम्मान भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता रही है| इसी कारण भारत की संस्कृति और सभ्यता का विश्व में कहीं कोई जोड़ नहीं है| दुनियां की लगभग सभी संस्कृतियाँ सम्प्रदाय की संकीर्ण विचारधारा में जकड़ी हुई हैं और किसी न किसी परिस्थिति में जाकर दिशाहीन हो जाती हैं| परन्तु भारतीय संस्कृति हर प्रतिकूल और अनुकूल परिस्थिति में लक्ष्य के अन्तिम बिन्दु तक पहुँचाने में सक्षम है, बशर्ते उसकी व्याख्या उसके वास्तविक स्वरुप में की जाये|सुशासन भी भारतीय संस्कृति का मूल अंग है| जिसका मुख्य उद्देश्य समाज के अन्तिम व्यक्ति तक कल्याणकारी योजनाओं तथा न्याय को पहुँचाना है| इस मुद्दे पर मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग भाजपा को अन्य दलों की अपेक्षा अधिक सफल मानता है| इसीलिए उसे भाजपा के विकल्प में कोई अन्य दल खड़ा नहीं दिखाई दिया| इसके अलावा संविधान की मूल भावना के विपरीत अब चुनाव दल परक न होकर व्यक्ति परक हो गये हैं| अतः नरेन्द्र मोदी तथा योगी आदित्यनाथ की बेदाग छवि ने भी मतदाताओं का रूख भाजपा की ओर मोड़ने से सफल भूमिका निभाई| वह अलग बात है कि इन नेताओं की बेदाग छवि के सहारे भाजपा के 111 दागी प्रत्याशी भी चुनावी वैतरणी पार करने में सफल रहे| हालाकि दागी प्रत्याशियों को टिकट देने से इस बार किसी भी पार्टी ने परहेज नहीं किया| उत्तर प्रदेश इलेक्शन वाच एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार इस बार 403 में से 205 विधायक किसी न किसी अपराध के आरोपी हैं| जबकि 403 में से 366 विधायक करोड़पति बताये जा रहे हैं| ऐसे प्रतिनिधि आमजन की अपेक्षाओं पर कितना खरे उतरेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा|
डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)