राजनीति में सबकुछ जायज कहा जाता है। किसी का चाहे अच्छा हो या बुरा लेकिन सभी अपना हित साधने की जुगत में रहते है। इसी का उदाहरण सामने देखने को मिला कि 25 वर्षों तक मुलायम सिंह यादव की सरपस्ती में जो समाजवादी कुनबा समाजवादी पार्टी की ताकत बनता रहा, वह अब पार्टी की कमजोरी बन गया है। इसका खामियाजा सपा को अगले वर्ष होने वाले विधान सभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। वर्तमान पर गौर करें तो इस समय में 2017 के विधान सभा चुनाव की तैयारी में जुटी सपा अगर बैकफुट पर नजर आ रही है तो इसकी मुख्य वजह सत्ता विरोधी लहर से अधिक परिवार का अंतर्कलह है। खास बात यह है कि सपा में बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा नेता भी मुलायम सिंह का हर आदेश मानने की सौगंध खाते मिल जायेगा, लेकिन मुलायम की सियासत और बातों में अब वजन नहीं दिखाई पड़ता है।
चचा-भतीजे यानीकि शिवपाल-अखिलेश के मनमुटाव ने पार्टी को तार-तार कर दिया है। इसी के चलते अखिलेश के पक्ष में खड़े रहने वाले और सपा के बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले प्रोफेसर रामगोपाल यादव सहित तमाम सपा नेताओं को शिवपाल यादव ने बाहर का रास्ता दिखा दिया तो अखिलेश यादव ने चचा शिवपाल यादव और उनके करीबी मंत्रियों को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करके पारिवारिक जंग को और हवा देने का काम किया। यहां तक की लखनऊ में हुए दो बड़े आयोजनों तीन नवंबर को शुरू हुई अखिलेश की समाजवादी विकास रथ यात्रा और बिगत 5 नवंबर को समाजवादी पार्टी का रजत जयंती समारोह भी इससे अछूता नहीं रह पाया। दोनों ही जगह चाचा-भतीजे और उनके समर्थक एक-दूसरे पर जोरदार तंज कसते नजर आये। शिवपाल यादव सवाल खड़ा कर रहे थे उनसे कितना त्याग लिया जायेगा शिवपाल ने जैसे ही अखिलेश को यूपी का लोकप्रिय मुख्यमंत्री कहा, पंडाल में युवाओं की नारेबाजी शुरू हो गई। शिवपाल ने गुस्से में कहा, मुझे मुख्यमंत्री नहीं बनना, कभी नहीं बनना। चाहे मेरा जितना अपमान कर लेना। बर्खास्त कर लेना। खून माँगेंगे तो दूँगा। इसके थोड़ी देर बाद भाषण देने आये मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी पूरे रौ में दिखे।
अखिलेश यादव ने अपने संबोधन में कहा कि किसी को परीक्षा लेनी है तो मैं देने के लिए तैयार हूं। उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपी एक मंत्री पर तंज कसते हुए कहा कि तलवार तो देते हो पर उसे चलाने का अधिकार नहीं देते। वहीं लोहिया का उदाहरण देते हुआ कहा कि कुछ लोग सुनेंगे जरूर पर समाजवादी पार्टी का सब बिगड़ने के बाद। इस मौके पर अखिलेश ने रजत जयंती समारोह स्थल जनेश्वर मिश्र पार्क नहीं भरने पर चचा शिवपाल यादव पर तंज भी कसा। हद तो तब हो गई जब शिवपाल यादव ने एक सपा नेता को उसका भाषण इसलिये नहीं पूरा करने दिया क्योंकि वह अखिलेश की तारीफ कर रहा था। शिवपाल ने आब्दी को माइक के सामने से धक्का देकर हटा दिया। इस बीच लालू यादव ने बढ़-चढ़कर और अन्य नेताओं ने संयमित लहजे में चचा-भतीजे के बीच की दूरियां कम करने का प्रयास किया, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा। हाँ, एक जज्बा मंच पर सभी नेताओं के भाषण में दिखा, वह था साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने का। वहीं अंत में मुलायम सिंह भी बोले लेकिन वह अतीत की यादों में ही डूबे रहे। उन्होंने जमीनों पर कब्जा करने वाले सपा नेताओं की जरूर क्लास लगाई। बात महागठबंधन की भी चली लेकिन यह कैसे खड़ा हो सकता है इसका खाका किसी के पास नहीं था। बहरहाल, बात मुलायम के समाजवादी कुनबे में सिरफुटव्वल की कि जाये तो समाजवादी पार्टी में परिवार के बीच भीतर घिरे संग्राम ने भारतीय राजनीति में परिवारवाद के मुद्दे को एक बार फिर से ताजा कर दिया है। ऐसा नहीं है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला सपा तक ही सीमित रहा है। शायद ही कोई राजनैतिक दल ऐसा हो, जिसमें परिवारवाद और वंशवाद की बेल दिखाई नहीं पड़ती हो। कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद की जड़ें काफी मजबूत हैं। काडर आधारित कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में परिवारवाद भले न दिखाई पड़े, पर दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियां हों या उत्तर भारत के अनेकानेक दल, सभी में परिवारवाद और वंशवाद मजबूत दिखाई देता है। परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए कभी अच्छा नहीं समझा गया, लेकिन तथ्य यह है कि कांग्रेस में इस प्रवृत्ति की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे यह संक्रामक की तरफ फैलती गई। कांग्रेस की आज जो भी पहचान है वह नेहरू-गांधी परिवार तक सीमित होकर रह गई है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी, संजय गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, मेनका गांधी के बाद आजकल राहुल गांधी, वरूण गांधी सियासत में जमे हुए हैं। यह और बात है कि मेनका गांधी और वरूण गांधी इस समय बीजेपी से जुड़े हुए हैं। मेनका केन्द्र में मंत्री हैं तो वरूण गांधी सांसद हैं। केन्द्र में बहुत समय तक सत्तसीन रही कांग्रेस के अलावा यह प्रवृत्ति सबसे अधिक समाजवादी कहे जाने वाले नेताओं और पार्टियों में भी दिखलाई पड़ती है। बिहार का लालू यादव, यूपी का मुलायम सिंह, कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार हो या फिर बिहार के ही रामविलास पासवान, सब के सब राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद को आगे बढ़ाने के मोह से बच नहीं पाए। बात सपा की ही कि जाये तो यह बात बिल्कुल साफ है कि देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में परिवारवाद काफी मजबूत होकर उभरा है। आज सपा की बात करें तो पार्टी के अध्यक्ष पद पर मुलायम सिंह यादव, प्रदेश अध्यक्ष के पद पर उनके भाई शिवपाल यादव विराजमान हैं तो मुलायम के पुत्र अखिलेश यादव यूपी के सीएम हैं। अब तो मुलायम के परिवार की तीसरी पीढ़ी का भी राजनीति में पदार्पण हो चुका है। मुलायम परिवार की महिलाएं भी राजनीति में आगे बढ़ रही हैं। वर्तमान में मुलायम सिंह के परिवार के तमाम सदस्यों का सक्रिय राजनीति में होना इस बात का प्रमाण है। और मुलायम परिवार किसी भी पार्टी में सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के होने का दावा कर सकता है।