Sunday, November 24, 2024
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मनुवाद का वितण्डावाद

हाल ही में कांग्रेस के एक पूर्व सांसद ने ट्विटर पर बयान दिया था कि 500 साल बाद मनुवाद की वापसी हो रही है। इसे कांग्रेसी नेता की ओछी बयानबाजी तथा वितण्डावाद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मनुस्मृतिः भारतीय वांग्मय का वेदों के बाद सबसे पुराना ग्रन्थ है, जिसे प्राचीन संविधान कहा जाता है। इसी मनुस्मृतिः के आधार पर न केवल भारत बल्कि विश्व के बहुत बड़े भूभाग की सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था हजारों वर्षों तक निर्बाध एवं निर्विवादित रूप से संचालित होती रही है। मनुस्मृतिः में जहाँ सृष्टि की उत्त्पति का वृतान्त है वहीँ चारो वर्णों, चारो आश्रमों, सोलह संस्कारों, राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, सेना प्रबन्धन तथा दण्ड विधान की सकारण नियमावली भी वर्णित है। इसमें अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्य या दायित्व को अधिक महत्त्व दिया गया है। भारतीय संस्कृति की अवधारणा के मूल ग्रन्थ मनुस्मृतिः में वर्णित दिनचर्या का अनुपालन करके कोई भी व्यक्ति अनुशासित एवं निरोगी जीवन जी सकता है। किसी भी बालक को संस्कारी तथा कर्तव्यपरायण बनाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया इस ग्रन्थ में चरणबद्ध तरीके से दी गयी है। परन्तु दुर्भाग्यवश भारतीय संस्कृति का प्रणेता यह महान ग्रन्थ भारत की ही धरती पर दिन प्रतिदिन अस्पृश्य बनता जा रहा है। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में डॉ.भीमराव आम्बेडकर इस ग्रन्थ के सबसे बड़े आलोचक बनकर उभरे थे। जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृतिः को सर्वाधिक दोषी मानते हुए उन्होंने 25 दिसम्बर 1927 को इसकी प्रति अलाव में जला दी थी। तब महात्मा गाँधी ने मनुस्मृतिः को जलाने का विरोध करते हुए कहा था कि ‘यह ग्रन्थ किसी के अधिकारों को नहीं अपितु कर्तव्यों को परिभाषित करता है। इसके उस हिस्से को हमें स्वीकार करना चाहिए जो सत्य और अहिंसा की शिक्षा देता है।’
भारत के बाहर बर्मा (म्यान्मार), थाईलैण्ड, कम्बोडिया तथा जावा-बाली में भारतीय शास्त्रों उसमें भी विशेषकर मनुस्मृतिः का प्राचीन काल से ही आदर रहा है। इन देशों के राजाओं से सदैव अपेक्षा की गयी कि वे मनुस्मृतिः आदि भारतीय ग्रन्थों के अनुसार ही आचरण करेंगे। वहाँ के विद्वानों ने इन ग्रन्थों का अनुवाद करके इन्हें अपने संविधान में सम्मिलित किया था। पश्चिमी विद्वान लुई जैकोलिऑट ने अपने ग्रन्थ बाइबिल इन इण्डिया में लिखा है कि ‘ मनुस्मृतिः ही वह आधारशिला है जिसके ऊपर मिस्र, परसिया, ग्रेसन और रोमन कानूनी संहिताओं का निर्माण हुआ। आज भी यूरोप में मनु के प्रभाव को अनुभव किया जा सकता है।’ जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक प्रौडरिच नीत्से ने तो मनुस्मृतिः को बाइबिल से भी उत्तम ग्रन्थ माना है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा फोर्ट विलियम कोलकाता में स्थापित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे सर विलियम जोन्स 1783 में जब बतौर न्यायाधीश इंग्लैण्ड से भारत आये तब उन्होंने भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृतिरू को अपरिहार्य मानते हुए संस्कृत सीखी तथा इसको पढ़कर इसका सम्पादन भी किया था। तब मनुस्मृतिः अंग्रेजी में अनुवादित होने वाला पहला भारतीय ग्रन्थ बना। ब्रिटेन, अमेरिका तथा जर्मन से प्रकाशित विश्वकोश में महाराज मनु को मानव जाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री तथा आदि समाज व्यवस्थापक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। पाश्चात्य लेखक लुईसरेनो, मैक्समुलर, पी.थामस तथा ए.ए.मैकडानल ने मनुस्मृतिरू को ‘लॉ बुक’ मानते हुए इसके नियमों को सार्वभौम, सार्वजनीय तथा सबके के लिए हितकारी बताया है। महाराज मनु के जीवन तथा उनके रचना काल के सन्दर्भ में इतिहास और पुराण भले ही एकमत न हों परन्तु उनको आदिपुरुष तथा उनके ग्रन्थ को आदिशास्त्र सभी एक स्वर में स्वीकार करते हैं।
मनुस्मृतिः की अनेक प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं। जिनमें कुछ न कुछ अन्तर भी देखने को मिलता है। अतः कालान्तर में इसके अंशों से छेड़छाड़ को खारिज नहीं किया जा सकता। सामान्य व्यक्ति के लिए इन अंशों की पहचान कर पाना सम्भव नहीं है और उसके लिए तो बिलकुल भी सम्भव नहीं है, जिसे संस्कृत भाषा की वर्णमाला तक का ज्ञान न हो। दुर्भाग्य से आज ऐसे ही लोगों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है, जो न तो संस्कृत साहित्य से परिचित हैं और न ही कभी भारतीय ग्रन्थों के अध्ययन का प्रयास करते हैं। अपितु सुनी सनाई बातों के आधार पर वितण्डावाद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
चौखम्भा संस्कृत प्रतिष्ठान नई दिल्ली से प्रकाशित मनुस्मृतिः में 12 अध्याय तथा 2684 श्लोक हैं। वहीँ कुछ संस्करणों में श्लोक संख्या 2964 बताई जाती है। मानव जाति को वैयक्तिक आचरण तथा समाज रचना की प्रेरणा देने वाले इस महान ग्रन्थ को केवल धार्मिक आस्था एवं विश्वास से जोड़ना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। सन्तान उत्पति के संस्कार, ब्रह्मचारियों अर्थात विद्यार्थियों की जीवन शैली, संस्कार विधि, स्नान विधि, विवाह विधि, विवाह के प्रकार, विवाह के लक्षण, वृत्तियों के लक्षण, गृहस्थों के नियम, भक्ष्य-अभक्ष्य भोजन का वर्गीकरण, स्त्री-पुरुषों के धर्म, वानप्रस्थ के धर्म, सन्यास के धर्म एवं लक्षण, मृत्यु संस्कार, चारो वर्णों के धर्म, राज धर्म, न्याय पद्धति, गवाहों से पूंछने की विधि, हिस्सा बांटना, दण्ड विधान, देश, जाति, कुल तथा इनके पारम्परिक धर्म, पाखण्ड और उससे दूर रहने के उपाय आदि का विस्तृत वर्णन मनुस्मृतिः में देखने को मिलता है। जिनसे दूर होता समाज धीरे-धीरे पाखण्ड और दुराचरण के मार्ग का अनुकरण करके पतन की ओर अग्रसर है। न केवल आचारः परमो धर्मः तथा यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः के सिद्धान्त की प्रणेता मनुस्मृतिः अपितु भारतीय संस्कृति के संवाहक सभी ग्रन्थ मानव मात्र को आदर्श जीवन शैली की प्रेरणा और शिक्षा प्रदान करते हैं। परन्तु हमारे तथाकथित धर्माचार्य इन ग्रन्थों को मात्र पूजा-पद्धति तथा स्वर्ग, नर्क और मोक्ष प्राप्ति के साधन रूप में प्रस्तुत करके अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं। पूर्व के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत की राजनीतिक अस्थिरता के कारण समाज का एक वर्ग पूर्णतः निरंकुश हो गया था। उसने दलित समाज को अस्प्रश्य मानते हुए उन पर जमकर अत्याचार किया। अत्यचार का यह क्रम पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। जिसने हजारों वर्षों से स्थापित वर्ण व्यवस्था को वर्ण विभाजन के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में भी इस विद्रुप को बरकरार रखते हुए इसे सत्ता प्राप्ति का साधन बना लिया गया। इसका एक अन्य रूप समाज के साम्प्रदायिक विभाजन के रूप में भी प्रगट हुआ। जो धर्म के नाम पर मात्र पाखण्ड का पोषण कर रहा है। जिसमें उलझा देश का आम जन धीरे-धीरे संस्कार विहीन होता जा रहा है। परिणामस्वरुप साल-दर-साल वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या तथा इनमें निरन्तर बढ़ती भीड़ छिन्न-भिन्न होते हमारे सामाजिक ढांचे का चित्रण करती है। यह सब देखने के बाद भी समाज के तथाकथित शुभ चिन्तक मनुवाद का वितण्डावाद बनाने की आदत से बाज नहीं आ रहे हैं।

डॉ. दीपकुमार शुक्ल
(स्वतन्त्र टिप्पणीकार)