Thursday, March 28, 2024
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युद्ध स्मारकों को जातीय चश्में से न देखा जाए

सुशील स्वतंत्र

नया साल हर तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद आ जाता है लेकिन 2018 के पहले दिन को हम इस लिहाज से अलग कह सकते हैं कि इस दिन ने देश के दो युद्ध स्मारकों को भी जातीय बहस का हिस्सा बना डाला। 200 वर्ष पहले 500 महारों की ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी ने हजारों पेशवा सैनिकों को धूल चटाकर मराठा शासन को इस देश से खत्म किया था। उन वीर लड़ाकों की याद में अंग्रेजों ने वैसा ही युद्ध स्मारक भीमा कोरेगांव में ‘जय स्तंभ’ (विक्ट्री पिलर) के नाम से बनाया जैसा देश की राजधानी दिल्ली में इंडिया गेट के नाम से बनवाया गया है। यह अंग्रेजों की परम्परा रही है। ऐसे विजय के प्रतीक देश के अन्य स्थानों पर आज भी मिल जाएंगे। दिल्ली के नजदीक नॉएडा के गाँव छलेरा में भी ऐसा ही एक युद्ध स्मारक है जिसे स्थानीय लोग ‘विजय गढ़’ कहते हैं। युद्ध में शहीद सैनिकों के गाँव के आस-आस ब्रिटिश हुकूमत ऐसे स्मारकों का निर्माण करवा दिया करती थी।
1 जनवरी 1818 को छोटी सी महार सैन्य टुकड़ी द्वारा अनुशासित, प्रशिक्षित और सुसज्जित मानी जाने वाली विशाल पेशवा सेना पर प्राप्त किए गए विजय के भारत के दलित समाज के लिए अनेक मायने हैं। 19वीं सदी के पेशवा राज में दलितों की सामाजिक स्थिति को समझे बिना, कोरेगांव विजय का दलितों के लिए महत्त्व को नहीं समझा जा सकता है भारतीय इतिहास का यह वही कलंकित दौर था जब जाति विशेष के लोगों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू बंधा होता था। जब जाति को छिपाना अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता था। पेशवा शासकों द्वारा इंसानों के एक समुदाय को अछूत घोषित कर उनपर लम्बे समय से शोषण और भेदभाव किया जा रहा था। भीमा कोरेगांव विजय ने इस देश से पेशवा राज का अंत कर अंग्रेजी हुकूमत को बहाल कियाद्य भारत का दलित समाज आज भी 1 जनवरी को क्रूर पेशवाओं पर प्राप्त विजय के दिन को ‘शौर्य दिवस’ के रूप में मनाता है। यहां यह समझना बहुत जरूरी है कि यह महज जातीय कारणों से नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से सामाजिक कारणों की वजह से किया जाता है। अपमान और अमानवीयता के जीवन से मुक्ति पाने के लिए और सम्मान व स्वतंत्रता हासिल करने के लिए दुनिया में अनेक क्रांतियां हुयीं हैं।
भीमा कोरेगांव में निर्मित जय स्तंभ (विक्ट्री पिलर) पर हर साल 1 जनवरी को हजारों की संख्या में न सिर्फ दलित बल्कि मराठा, मुस्लिम, प्रगतिशील, बौद्ध और ओबीसी समुदाय के लोग शौर्य दिवस मनाकर 1818 युद्ध के उन महार लड़ाकों को सम्मान देने के लिए एकत्रित होते हैं। यह एक सच है कि भीमा कोरेगांव भारत की एक बड़ी आबादी के लिए तीर्थ बन चुका है लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि इस देश की मुख्यधारा की मीडिया इसकी घोर अनदेखी करता चला आया है। नववर्ष की चकाचैंध भरी खबरों, अपराध की घटनाओं, छलकते जामों और गैर-जरूरी न्यू इयर सेलिब्रेशंस के लिए जितना ‘स्पेस’ भारत की प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में दिया जाता है, उसके मुकाबले भीमा कोरेगांव की मुक्तिगाथा के लिए स्थान नगण्य रहा है।
इस वर्ष तो मीडिया ने हद्द तब कर डाला जब अनेक अखबारों और वेबसाइट पर यह लिख दिया गया कि 1818 में पेशवा सेना के खिलाफ लड़ा गया युद्ध ‘भारत’ के खिलाफ लड़ी गयी लड़ाई थी। सबसे पहले मीडिया को यह समझना होगा कि जिस कालखंड में भीमा कोरेगांव की लड़ाई हुयी थी या उस दौर की अन्य लड़ाईयां अंग्रेजों या अन्य आक्रांताओं द्वारा की गयी थीं, उस समय तक ‘भारत एक राष्ट्र’ जैसी कोई संकल्पना ही नहीं बनी थी। इस भौगोलिक भूभाग के अनेक खंड थे जिस पर अलग-अलग व्यक्तियों या कहें वंशों का शासन चलता था। युद्ध होते थे और विजेता को राज करने का अधिकार मिल जाता था। घुम्मकड़ और लड़ाकू कबीलों के दौर से राजघरानों तक जैसे अनेक आक्रमणकारी भारत में आए वैसे ही अंग्रेज भी यहाँ आए। तब तक ‘भारत देश’ जैसी कोई कल्पना नहीं थी। 200 साल राज करने के बाद भी जब अंग्रेज वापस जा रहे थे, मतलब आजादी व विभाजन से पहले तक यहाँ ब्रिटिश शासित क्षेत्र के अलावा भी छोटे-बड़े कुल 565 स्वतन्त्र रियासतें थी। भारत का मौजूदा स्वरूप तो इन सब को एक सूत्र में बांधकर भारतीय परिसंघ का हिस्सा बनाए जाने के बाद ही बन पाया। हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर और भोपाल के रियासतों ने भारत को आकार लेता देखने के बावजूद आसानी से विलय के लिए मंजूरी नहीं दिया था। उनमें भोपाल का विलय सबसे अंत में भारत में हुआ था। सिक्किम को तो 1975 में जनमत-संग्रह के बाद भारत के 22वें राज्य के रूप में शामिल किया गया था। तो यह कहना कि 1818 में भीमा कोरेगांव में किया गया युद्ध भारत के विरुद्ध युद्ध था, महज एक भूल ही हो सकती है।
मीडिया तब और लापरवाह दिखता है जब उसके द्वारा ऐतिहासिक सन्दर्भ की घटनाओं को पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर देखने या परोसने का प्रयास किया जाता है। जब कोई लेखक, पत्रकार या संपादक यह लिखता है कि भीमा कोरेगांव में बना ‘जयस्तंभ’ अंग्रेजों का साथ देने वालों का स्मारक है, तब उन्हें यह भी बताना चाहिए कि आखिर इंडिया गेट क्या है? देश की राजधानी के राजपथ पर बना इंडिया गेट भी एक सैनिक स्मारक ही है जिसकी लाल और पीले बलुआ पत्थर की देह पर 13300 भारतीय और ब्रिटिश सैनिकों व अधिकारियों के नाम खुदे हैं। यह कैसे हो सकता हैं कि ब्रिटिश सेना में लड़ने वाले भारतीय सैनिकों की याद में बने एक स्मारक को अंग्रेजों का साथ देने वालों का प्रतीक स्थल कहा जाये और दूसरे को उसे पूज्यनीय स्थल की तरह स्थापित किया जाये जहाँ खड़े होकर देश के राष्ट्रपति गणतंत्रता दिवस पर सेना की सलामी लेते हुए राष्ट्र के शक्ति प्रदर्शन और गौरवपूर्ण झांकियों पर गौरान्वित होते हों। लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया द्वारा युद्ध स्मारकों को भी जातीय चश्में से देखा जाना लोकतंत्र के साथ किया जाने वाला धोखा नहीं तो और क्या है?