जैन परम्परा में दशलाक्षणिक धर्म पर्यूषण पर्व सबसे महत्वपूर्ण है। इन दिनों में समाज के आबालवृद्ध स्वशक्ति अनुसार धर्माराधना, व्रत, उपवासादि करते हैं। त्योहार थोड़े मौज-मस्ती के होते हैं, पर्व गन्ने की पोर-गांठ के समान नीरस होते हैं, उस गांठ को भी पर्व ही कहते हैं। यदि कृषक को गन्ना चयन को दिया जाता है तो वह अधिक और परिपक्व पर्व-गांठ वाले गन्ने का चयन करता है, क्योंकि उसी पर्व-गांठ में ही अत्यधिक गन्ने उत्पन्न करने की श्क्ति होती है। उसी तरह हमारी संसकृति में जो वर्च आते है वे सादगी, त्याग, व्रत, उपवास, स्नेह, समर्पण, भाईचारा आदि को अन्तर्निहित किये हुए होत हैं। पर्वों में स्वयं की वाह्य शुद्धि और आत्मिक शुद्धि करके पवित्र होता है। उन्हीं पर्वों में महत्वपूर्ण है दशलाक्षणिक पर्यूषण पर्व।
धर्म के दस भेदों के कारण यह दशलाक्षणिक धर्म का पर्व कहलाता है। जो व्यक्ति को वास्तविक सुख में धारण करावे वह धर्म है शेष परम्परायें मात्र कह सकते हैं। वे दस धर्म हैं- उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य।
इनमें उत्तम क्षमा को प्रथम स्थान पर लिया गया है। निश्चय से तो पर को निरपेक्ष करके आत्मा के शान्त स्वभाव में स्थिर होना है क्षमा। और व्यवहारिक दृष्टि से तो क्षमा के प्रभाव हम अपने जीवन में प्रायः देखते हैं। करोड़ों पूजा, जप, स्तुतियों से महान् है क्षमा कही गई है। जैसे-
पूजा कोटि समं स्तोत्रं, स्तोत्र कोटि समं जपः।
जपः कोटि समं ध्यानं, ध्यानं कोटि समं क्षमा।।
मानव जीवन में क्षमा का बहुत महत्व है। क्षमा से बहुत बड़े बड़े केस सुलझ जाते हैं, यहां तक कि मृत्यु की सजा भी क्षमा मांगने से खत्म होने के प्रकरण आये हैं। कुछ राजनेताओं को क्षमा नहीं मांगने पर फांसी की सजा हुई है। पाकिस्तान के जुल्फिकार अली भुट्टो जैसों के उदाहरण हमारे सामने हैं। यद्यपि कुछ प्रकरण स्वाभिमान से जुड़े होते हैं, जिसके कारण लोग क्षमा मांगने के स्थान पर फाँसी का वरण कर लेते हैं। किन्तु यहां क्षमा की क्षमता की बात है कि क्षमा फांसी को भी टाल सकती है। भारत में भी फांसी की सजायाफ्ता व्यक्ति के लिये अंतिम अवसर होता है राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान का।
रास्ते चलते भी हमलोग प्रायः देखते हैं कि यदि किसी के बाहन ने छोटी सी भी टक्कर मार दी और सॉरी बोल दिया तो मैटर वहीं खत्म हो जाता है और यदि क्षमा नहीं मांगी तो मामला बहुत बढ़ जाता है, हाथा-पाई, सिर-फुटौअल, कोर्ट-कचहरी सब हो जाता है। इसलिए दो अक्षरों के क्षमा या सॉरी में बहुत शक्ति निहित है।
जैन धर्म में श्रावकों और श्रमणों को क्षमा धारण करने के लिए कहा गया है। श्रावकों को एक मंत्र दिया गया है-
क्षमाशस्त्रं करे यस्य किंकरः किं करिष्यति।
अतृणे पतिते बह्नि स्वयमेवोपशाम्यते।।
अर्थात् जिसके हाथ में क्षमा रूपी हथियार है, दुष्ट उसका कुछ भी नहीं कर सकता है, क्योंकि सामने वाला बहुत गालियां देते हुए भी आ जाये और प्रत्युत्तर में यदि उसे गाली नहीं मिली, स्मित चेहरा ही दिखा तो वह स्वतः ही शांत हो जायेगा। जैसे कि अग्नि प्रज्ज्वलित है, यदि उसमें त्रण-ईंधन न डाला जाये तो वह स्वयं ही शांत हो जायेगी। उसी तरह क्रोध को शांत करने के लिए कहा गया है।
क्षमा की और उत्कृष्टता बताते हुए कहा गया है-
गाली सुन मन खेद न आनो, गुन कौ औगुन कहि है अयानो।
कहि है अयानौ वस्तु छीने, बांध मार बहुविध करै।
घरतैं निकारै तन विदारै बैर जो न तँह धरै।।
यदि कोई गाली दे तो, आपके गुणों को भी दोष बताये तो, क्षमाधारण करना चाहिए, यहां तक कि आपकी वस्तु छीन ले, बांधे, मारे, घर से भी निकाल दे तो भी क्षमा धारण करते हुए यह सोचना चाहिए कि हमने पूर्व में या पूर्व भव में ऐसे कुछ कर्म किये होंगे जिनके प्रतिफल स्वरूप मेरे साथ यह व्यवहार हो रहा है, ऐसा सोचकर क्षमा धारण करे, वह उत्कृष्ट क्षमा है।
जैन श्रमण परम्परा में अनेक ऐसे उत्कृष्ट क्षमाधारी/उत्तमक्षमाधारी हुए हैं जिनका उल्लेख धर्मग्रन्थों में हुआ है। एक मुनिराज की परीक्षा लेने या पत्नी के जैन धर्मानुयायी होने की डाह वश मगध नरेश ने मुनिराज के गले में मृत सर्प डाल दिया था। दो दिन वाद यह बात उन्होंने अपनी पत्नी को बताई, और कहा कि उस मुनि की डर के मारे क्या हालत हुई होगी वही जानता होगा। पत्नी ने कहा- यदि वे सच्चे जैन मुनि होंगे तो इस उपसर्ग को सहन करते हुए वे अब भी वहीं बैठे हुए ध्यानस्थ होंगे। दोनों उसी समय उठकर जगंल में जाते हैं, बहुत करुण दृश्य देखा। मृत सर्प अब भी यथावत गले में डला है, वह सड़ रहा है, हजारों चीटियां उन मुनिराज के शरीर पर लिपटी हुई हैं, उनका शरीर वृणित हुआ जगह जगह फूल गया है। रानी ने तत्काल किसी तरह वह सर्प हटाया, कपड़े-पल्लू आदि से चीटियां साफ कीं। जब मुनिराज का उपसर्ग दूर हुआ तब उन्होंने अपना ध्यान छोड़ा। उन्होंने दोनों पति-पत्नी को एक साथ, एक जैसा आशीर्वाद दिया- ‘उभयोः धर्मवृद्धिरस्तु’- दोनों को धर्मकी वृद्धि हो। राजा चकित रह गया मैं अपकारक उपसर्ग करने वाला और ये पत्नी उपकारक उपसर्ग हटाने वाली फिर भी दोनों को एक जैसा आशीर्वाद। राजा ने मन ही मन सोचा ऐसे मुनिराज के चरणों में तो अपनी गर्दन काट कर रख देना चाहिए। निमित्त ज्ञानी मुनिराज ने कहा राजन! ऐसे खोटे विचार मन में मत लाओ। क्षमा मांगने पर उस राजा का भी उद्धार हुआ। और मुनिराज की क्षमा तो अपूर्व है। इसलिए क्षमा के महत्व को समझते हुए प्रत्येक व्यक्ति को यथासक्य इसे धारण करना चाहिए।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,