शाहीनबाग़ संयोग या प्रयोग हो सकता है लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान देश की राजधानी में होने वाले दंगे संयोग कतई नहीं हो सकते। अब तक इन दंगों में एक पुलिसकर्मी और एक इंटेलीजेंस कर्मी समेत लगभग 42 से अधिक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। नागरिकता कानून बनने के बाद 15 दिसंबर से दिल्ली समेत पूरे देश में होने वाला इसका विरोध इस कदर हिंसक रूप भी ले सकता है इसे भांपने में निश्चित ही सरकार और प्रशासन दोनों ही नाकाम रहे। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि सांप्रदायिक हिंसा की इन संवेदनशील परिस्थितियों में भी भारत ही नहीं विश्व भर के मीडिया में इसके पक्षपातपूर्ण विश्लेषणात्मक विवरण की भरमार है जबकि इस समय सख्त जरूरत निष्पक्षता और संयम की होती है। देश में अराजकता की ऐसी किसी घटना के बाद सरकार की नाकामी, पुलिस की निष्क्रियता, सत्ता पक्ष का विपक्ष को या विपक्ष का सरकार को दोष देने की राजनीति इस देश के लिए कोई नई नहीं है। परिस्थिति तब और भी विकट हो जाती है जब शाहीनबाग़ में महिलाओं को कैसे सवाल पूछने हैं और किन सवालों के कैसे जवाब देने हैं, कुछ लोगों द्वारा यह समझाने का वीडियो सामने आता है। लेकिन फिर भी ऐसे गंभीर मुद्दे पर न्यायपालिका भी कोई निर्णय लेने के बजाए सरकार और पुलिस पर कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी डाल कर निश्चिंत हो जाती है।
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नेताओं के बिगड़े बोल….आखिर कब तक?
भारत की दीवार….!
सामने 20 हजार प्रति किलो वाले मशरूम की प्लेट रखी थी, लेकिन मंत्रीजी एक निवाला तक हलक से नीचे नहीं उतार पा रहे थे। उन्हें अमरीकी दद्दा के आने की सूचना जैसे ही मिली, मंत्रीजी गहन चिन्ता के सागर में समा गये | तभी उनका निजी सहायक आ पहुंचा | मंत्रीजी का लटका चेहरा देख पलभर में भांप गया कि मंत्रीजी को क्या परेशानी है।
‘सर-सर ! आप चिन्ता छोडिये। हमने हल निकाल लिया है। आगरा की तर्ज पर बड़े – बड़े बैनर – पोस्टर लगा देंगे। जिससे झुग्गियाँ दिखेंगीं ही नहीं।’ सहायक ने सलाह दी।
‘अरे नहीं! वो आयडिया तो फुस्स हो गया था। गरीबों-भिखारियों के नटखट शैतानी बच्चों ने सारे पोस्टर फाड़ दिये थे। सारी करी कराई मेहनत पर पानी फिर गया था।’ मंत्रीजी ने धीरे से अपनी बात रखी।
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का कुत्सित रूप कोरोना वायरस
कांग्रेस की हताशा है या फिर सुनियोजित रणनीति?
दिल्ली के चुनाव आज देश का सबसे चर्चित मुद्दा है। इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य कहें या लोकतंत्र का, कि चुनाव दर चुनाव राजनैतिक दलों द्वारा वोट हासिल करने के लिए वोटरों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देना तो जैसे चुनाव प्रचार का एक आवश्यक हिस्सा बन गया है। कुछ समय पहले तक चुनावों के दौरान चोरी छुपे शराब और साड़ी अथवा कंबल जैसी वस्तुओं के दम पर अपने पक्ष में मतदान करवाने की दबी छुपी सी अपुष्ट खबरें सामने आती थीं लेकिन अब तो राजनैतिक दल खुल कर अपने संकल्प पत्रों में ही डंके की चोट पर इस काम को अंजाम दे रहे हैं। मुफ्त बिजली पानी की घोषणा के बल पर पिछले विधानसभा चुनावों में अपनी बम्पर जीत से उत्साहित आम आदमी पार्टी अपने उसी पुराने फॉर्मूले को इस बार फिर दोहरा रही है। मध्यप्रदेश राजिस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कर्जमाफी की घोषणा के कारण सत्ता से बाहर हुई बीजेपी भी इस बार कोई खतरा नहीं लेना चाहती।
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भारत के अभ्युत्थान में पत्रकारिता की भूमिका
भारत का अभ्युत्थान अर्थात भारत के विकास का अभ्युदय। भारत आज विकास के जिस पायदान पर खड़ा है वहां तक पंहुचने का आधार यदि शिक्षा, संस्कृति, तकनीक, श्रम, समर्पण रहा है, तो इस आधार को सुदृढ़ता प्रदान करने का काम हमारी मीडिया ने किया है। विकास और मीडिया अन्योन्याश्रित है। जब तक ज्ञान का प्रचार प्रसार नहीं होगा वह लोगों तक नहीं पंहुच पायेगा। सूचनाएं ही यदि प्रचारित नहीं होंगी तो लोग उन पर काम कैसे कर पाएंगे। जब हम भारत के अभ्युदय की बात करते हैं तो यह किसी एक बिंदु की नहीं बल्कि इसके बहुआयामी कलेवर की बात होती है अर्थात भारत का सर्वांगीण विकास।इस बहुआयामी अभ्युदय में हमारी मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। यह भूमिका हमारा संचारतंत्र तीन तरह से निभाता है- इलेक्ट्राॅनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया और मुखाग्र मीडिया।
भारत के अभ्युदय को दो श्रेणी में विभाजित कर देखते हैं-शहरी विकास, ग्रामीण विकास: शहरों में सुविधाओं की सहज उपलब्धता के चलते इलेक्ट्राॅनिक व प्रिंट मीडिया की महती महत्वपूर्ण भूमिका है। भारत अभ्युदय से जुड़े ऐतिहासिक तथ्य, भौगोलिक जानकारी, आर्थिक स्थिति, देश व समाज की वर्तमान स्थिति,वैश्विक स्तर पर भारत अभ्युदय की स्थिति, राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में तथ्यों को उजागर करने, तत्संबंधित आंकड़े जुटाने, उन्हें जन जन तक पंहुचाने, जन मानस को जागरूक बनाने में मीडिया उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
जहाँ इलेक्ट्राॅनिक मीडिया स्रोतों में मोबाइल, कंप्यूटर, टी वी, इन्टरनेट, सैटेलाइट चैनल का बड़ा योगदान है, वहीं प्रिंट मीडिया, पत्रकारिता,संपादन दैनिक पत्र, पत्रिकाओं व लेखन के माध्यम से शिक्षित प्रबुद्ध वर्ग तक विविध क्षेत्रों की विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराती है। शहरों में जीवन की व्यस्तताओं के चलते प्रिंट मीडिया के मुकाबले इलेक्ट्राॅनिक मीडिया अधिक सक्रिय भूमिका में है। मोबाइल पर चलते फिरते सामाचर पत्र पढ़े जा सकते हैं, कोई भी पुस्तक सर्च कर कभी भी,कहीं भी पढ़ी जा सकती है। ज्ञानार्जन के साथ व्यक्ति अपने व समाज के अभ्युदय-विकास के साथ साथ देश की उन्नति में भी अपना अमूल्य योगदान करता है। यह मीडिया के कारण ही संभव है। मीडिया के बिना व्यक्ति तथ्यों व परिस्थितिजन्य जानकारी से अनभिज्ञ रहता है और अपने दायित्व निर्वहन मात्र अपने जीवन की आधारभूत आवश्यकता पूर्ति के अतिरिक्त क्षमतावान, सामर्थ्यवान होने के उपरांत भी देश व समाज के अभ्युदय उत्थान में अपना कोई योगदान देने की स्थिति में नहीँ होता।
क्या मुस्लिम महिलाएँ और बच्चे अब विपक्ष का नया हथियार हैं?
सीएए को कानून बने एक माह से ऊपर हो चुका है लेकिन विपक्ष द्वारा इसका विरोध अनवरत जारी है। बल्कि गुजरते समय के साथ विपक्ष का यह विरोध “विरोध” की सीमाओं को लांघ कर हताशा और निराशा से होता हुआ अब विद्रोह का रूप अख्तियार कर चुका है। शाहीन बाग का धरना इसी बात का उदाहरण है। अपनेराजनैतिक स्वार्थ के लिए ये दल किस हद तक जा सकते हैं यह धरना इस बात का भी प्रमाण है। दरअसल नोएडा और दिल्ली को जोड़ने वाली इस सड़क पर लगभग एक महीने से चल रहे धरने के कारण लाखों लोग परेशान हो रहे हैं। प्रदर्शनकारी सड़क पर इस प्रकार से धरने पर बैठे हैं कि लोगों के लिए वहाँ से पैदल निकलना भी दूभर है। लोग अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पा रहे, स्थानीय लोगों का व्यापार ठप्प हो गया है, रास्ता बंद हो जाने के कारण आधे घंटे की दूरी तीन चार घंटों में तय हो रही है जिससे नौकरी पेशा लोगों का अपने कार्यस्थल तक पहुंचने में असाधारण समय बर्बाद हो रहा है।
Read More »गरीबदास का बैंक खाता (बैताल पचीसी)
बैताल ने सम्राट विक्रमादित्य से कहना प्रारम्भ किया। हे! सम्राट, दो चार दिन पहले बासठ-त्रेसठ साल की एक देहाती अनपढ़ औरत सरकारी बैंक से बाहर निकली। बाहर निकलते ही उसे चक्कर आ गया। उसके मुँह से निकला ‘‘हे! राम अब मैं क्या करूँ ?’’ ऐसा कहते हुए वह जमीन पर गिर गई। पास से गुजर रहे लोग उसके पास पहुँचे। पास ही चाय की दूकान थी। चाय वाला गिलास में पानी लेकर दौड़ा और उस वृद्धा के मुँह पर पानी के छींटे मारे। जब वह वृद्धा कुछ समाचेत हुई तो लोगों ने उसे बैठाया और कुछ पूछा। लोगों के कुछ पछते ही वह वृद्धा फफक फफक कर रो पड़ी। बमुष्किल उसने रोते रोते अपनी राम कहानी बताई।
बैताल ने सम्राट विक्रमादित्य से पूछा-हे! राजन वह देहाती अनपढ़ औरत आखिर किस पीड़ा से पीड़ित हो गई जिसके कारण वह बेहोष होकर गिर पड़ी और समाचेत होने के बाद लोगो द्वारा कुछ पूछे जाने पर फफक फफक कर रो पड़ी, इस विषय में कुछ प्रकाश डालिए।
बाँदा में नदी की पूजा, पौधों का प्रसाद
नए साल पर बुंदेलखण्ड से एक बड़ा संदेश आया है। प्यास और भुखमरी का पर्याय बन गए बुंदेलखण्ड की धरती पर एक अनूठा संकल्प साकार हुआ। कुओं की पूजा और तालाबों के उद्धार की मुहिम छेड़ने वाले बांदा के जिलाधिकारी हीरालाल ने युवाओं के समूह के साथ आधी रात को केन नदी के तट पर नए साल का स्वागत किया। नदी संरक्षण का समवेत संकल्प लिया गया। एक नई उम्मीद के साथ, एक नई ऊर्जा के साथ। औरों से अलग, अनूठे रूप में जल संरक्षण का जो पाठ जिलाधिकारी ने बाँदा में शुरू कराया है, वह एक बेहतर भविष्य की तरफ इशारा करता है। केन नदी की पूजा के साथ ही उसके तट वाले 22 गांवों में एक साथ चौपाल लगवाई गई और वहाँ जलवायु परिवरतन के खतरे बताये गए। ग्रामीणों से पूछा कि नदी का दुश्मन कौन? जवाब मिला कि नदी में हुआ भारी खनन और खत्म हुए जंगलात के कारण नदी की दुर्दशा हुई है। राज और समाज का संकल्प हुआ कि सब मिलकर केन को बचायेंगे। उसका जंगल वापस लाएंगे। उसको पानी देने ताल-तलैया और कुओं को फिर भरेंगे। कैसे होगा यह सब? इन चौपालों में तय हुआ कि बारिश का पानी खेत में, तालाब में, कुओं में रोककर भूजल भंडार बढ़ाएंगे और पौधे लगाएंगे। जिले में तालाबों और कुओं को ठीक करने का काम पहले से भी चल रहा था, मगर नए साल से इसे जनांदोलन की शक्ल देने का रास्ता तय हो गया है। जिलाधिकारी ने राज और समाज को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया। नए साल के पहले हफ्ते में ही एक और अनूठी मुहिम शुरू हुई। गुरु गोविंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर जिलाधिकारी ने सभी श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में पौधे दिये। गुरुद्वारा कमेटी ने अब हर रोज प्रसाद में पौधे देने का कर्म शुरू कर दिया है। यह काम मंदिरों में भी शुरू हुआ है। जन मानस में यह बात बैठी है कि प्रसाद में मिले पौधों का अनादर न हो। ऐसे में प्रसाद में मिले पौधे का रोपा जाना और उसकी देखभाल तय है। रोपने वाला परिवार समेत इसकी देखरेख भी करता रहेगा; इसी विश्वास के साथ बुंदेलखण्ड की धरती में एक नई मुहिम शुरू हुई है। यह सिर्फ तुलसी के पौधों तक सीमित नहीं। प्रसाद में नीम, बेर, नींबू, मीठी नीम से लेकर फूल और छायादार पौधे दिये जा रहे हैं। बुंदेलखण्ड की हालत किसी से छिपी नहीं है। वीरों की यह भूमि दशकों से जल संकट से जूझ रही है।
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