कानपुर देहात। शिक्षा के गिरते स्तर के कारण उसकी गुणवत्ता पर प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है लेकिन इस बात के जिम्मेदार कौन लोग है। इस ओर न तो राजनीतिक मंथन हो रहा न ही सामाजिक चिंतन किया जा रहा है। बातें शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की अकसर सुनने में आती हैं किन्तु सुधार कहीं नजर नहीं आता। अभी कुछ दिनों से शिक्षा विभाग में बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार को लेकर संकुल स्तर से लेकर राज्य स्तर तक के अधिकारियों व कर्मचारियों द्वारा एक नाटक खेला जा रहा है। जिसमें बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता की जाँच की जा रही है, टेस्ट ले रहे हैं। शिक्षकों को निपुण लक्ष्य पूरा करने का टारगेट दिया जा रहा है। अधिकारीगण शिक्षकों को फटकारनुमा समझाइश देते हैं कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करें। यह कैसी विडंबना है कि स्कूलों में शिक्षक पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा स्थापित करने का भारी दबाव तो है मगर उसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए तैयार ही नहीं किया गया। उल्टे शिक्षकों को प्रतिमाह प्रशिक्षण के बहाने कक्षा शिक्षण से दूर करने की साजिश रची जा रही है। इस साजिश के तहत देश की भोली भाली जनता को यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि शासन को उनके बच्चों की खूब परवाह है लेकिन उनके जो शिक्षक हैं वह सही तरीके से काम नहीं कर रहे हैं जिसके कारण उनके बच्चे शैक्षिक गुणवत्ता में पिछड़ रहे है। सरकार की गलत शिक्षा नीतियों के जो दुष्परिणाम आज सामने आ रहे हैं उनमें सुधार करने कि बजाय इसका ठीकरा शिक्षकों के सिर फोड़ा जा रहा है जो कहाँ तक उचित है? सरकार दोष देने के बजाए शिक्षकों को क्षमतावान बनाएं यह कहना है शैक्षिक कार्यकर्ता राजेश कटियार का।
उनका यह भी कहना है कि देश में परिषदीय स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर अक्सर चिंता जतायी जाती है। ऐसी रिपोर्ट भी आती रहती हैं कि सरकारी स्कूलों में पांचवीं-आठवीं के बच्चों को दूसरी-तीसरी के स्तर का ज्ञान भी नहीं होता। छात्रों का स्तर अपेक्षा से नीचे बताया जाता है। इस स्थिति के लिए आम तौर पर शिक्षकों को दोषी ठहरा दिया जाता है लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि हमारे विद्यालयों का इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था बेहद लचर है। शिक्षकों को जो प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं वह महज एक खानापूर्ति ही होती है बजट को ठिकाने लगाने के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण करवाए जाते हैं।
बताया कि प्रदेश में हजारों विद्यालय ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक है। अधिकतर विद्यालयों में छात्र-शिक्षक अनुपात समुचित नहीं है। इतना तो छोड़िए जिन विद्यालयों में शिक्षक हैं भी उनसे शिक्षण कार्य न करवाकर अन्य विभागों के बेवजह के सैकड़ों कार्य करवाए जाते हैं जिनका कि शिक्षकों से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे में छात्रों का खराब प्रदर्शन एक स्वाभाविक परिणति है। पहली नजर में बहुत से लोग हकीकत जाने बिना इसके लिए सिर्फ सरकारी शिक्षकों को दोषी मान लेते हैं उन्हें यह पता ही नहीं होता कि सरकार खुद नहीं चाहती है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे पढ़ें इसीलिए वह शिक्षकों को पढ़ाने के अलावा अन्य दूसरे कार्यों में शिक्षकों को लगाए रहते हैं।
उन्होंने बताया कि स्कूल के तमाम क्लर्कियल काम शिक्षकों के ही जिम्मे हैं। इतना ही नहीं केंद्र या राज्य सरकार द्वारा संचालित की जाने वाली अनेक योजनाओं, अभियानों या कार्यक्रमों के लिए जिला प्रशासन को जब किसी लोकल नेटवर्क की जरूरत होती है तो इस काम में भी शिक्षकों को लगा दिया जाता है। इसके लिए उन्हें अनेक मीटिंग में भी शामिल होना पड़ता है। जनगणना और पल्स पोलियो जैसे स्वास्थ्य कार्यक्रमों से लेकर चुनाव ड्यूटी व डिजास्टर मैनेजमेंट संबंधी विविध प्रकार के कार्यों की जिम्मेवारी इन्हें सौंपी जाती है। दूसरी ओर केंद्रीय, नवोदय और अटल आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों के साथ ऐसा नहीं होता लिहाजा वहां के बच्चों के बारे में ऐसी रिपोर्ट नहीं आती कि सातवीं-आठवीं के बच्चे तीसरी-चौथी का ज्ञान नहीं रखते। वहां सरकार ज्यादा धन खर्च करती है और शिक्षकों की संख्या भी समुचित है। उनके जिम्में केवल पढ़ाने का काम होता है और किसी तरह के गैर-शैक्षणिक कार्यों में उन्हें नहीं लगाया जाता है। शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले कई अन्य कारक भी हैं। सबसे पहले हमें शिक्षा-व्यवस्था की उस हालत को देखने की जरूरत है जिस हालत में एक शिक्षक बच्चों को पढ़ाने का काम करता है। अगर एक शिक्षक से पढ़ने वाले बच्चों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव है तो यह जरूरी नहीं कि शिक्षक ने मन से नहीं पढ़ाया। एक शिक्षक की गुणवत्ता को प्रभावित करनेवाले कई कारक हैं जिनको दूर किये बिना शिक्षक से यह उम्मीद कर पाना मुश्किल है कि वह बच्चों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का वाहक बनेगा। पहला कारक तो यही है कि हमारे नीति-निर्माता जो पाठ्यक्रम बनाते हैं वह बच्चों के सोचने-समझने की क्षमता के स्तर से मेल नहीं खाता। हमारे नीति-निर्माता यह भी नहीं समझ पाते कि शिक्षक और पाठ्यक्रम में कोई तालमेल है कि नहीं। सिर्फ शिक्षक को शुरुआती ट्रेनिंग देकर छोड़ दिया जाता है कि वह उस पाठ्यक्रम को पूरा करने की जिम्मेवारी उठायेगा। शिक्षक यही करता है उस पाठ्यक्रम को पूरा करने में ही शिक्षक का सारा समय चला जाता है। पाठ्यक्रम तो पूरा हो जाता है लेकिन उस पाठ्यक्रम का कितना हिस्सा एक बच्चे के दिमाग में दर्ज हुआ यह सवाल वहीं खड़ा हो जाता है इसलिए हमें प्राथमिक स्तर पर ऐसे पाठ्यक्रम की जरूरत है जो बच्चों की सोचने-समझने की क्षमता और स्तर के अनुकूल तो हो ही, शिक्षकों के भी अनुकूल हो ताकि उसे पढ़ाने में आनंद आये। इसके साथ ही बेवजह की चलाई जाने वाली योजनाओं को तत्काल बंद किया जाना चाहिए साथ ही शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य नहीं लिए जाने चाहिए। पूरा फोकस पढ़ाई पर ही होना चाहिए। शिक्षकों पर दोष मढ़ने की जगह कमियों को दूर करने की कोशिश होनी चाहिए। लोगों को अपनी सोच में परिवर्तन लाना चाहिए।