सख्त निर्देशों के बावजूद पर्चे पर दवा का फार्मूला नहीं लिख रहे, अस्पताल से केवल ३० प्रतिशत दवाएं ही दी जा रहीं।
रुरा/कानपुर देहात, लालू भदौरिया। सरकार मरीजों को राहत देने के लाख प्रयास कर ले, लेकिन अगर डॉक्टर ही मरीजों को लूटने पर आमादा हो जाए तो कोई कुछ नहीं कर सकता। सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर कमीशनखोरी के चक्कर में अपना नैतिक धर्म भूल गए हैं। मरीज परेशान हो तो होता रहे, पर उनकी कमाई में कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए। अब सरकारी डॉक्टर हैं तो सैलरी तो मोटी है ही, उस पर दवा कंपनियों से मिलने वाला कमीशन ऊपर की मलाई की तरह है। जिसे डॉक्टर छोडऩे को तैयार नहीं हैं। इसी कमीशन के चक्कर में महंगी ब्रांडेड दवाएं लिखी जा रही हैं।
जेनेरिक दवाओं का व्यापार ठप
शासन ने मरीजों की जेब पर पड़ने वाले बोझ को कम करने के लिए सरकारी अस्पतालों में जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के प्रयास किए थे। जिसके चलते प्रोत्साहित होकर लोगों ने यहां दुकानें खोलीं, पर डॉक्टरों के लालच की वजह से यह दुकानें बंदी की कगार पर हैं। डॉक्टरों को ब्रांडेड दवाओं से कमीशन मिलता है, जेनेरिक दवाओं से नहीं, तो फिर वे क्यों लिखेंगे जेनेरिक दवाएं। नतीजा यह कि जेनेरिक दुकानों से बिक्री ठप है। दवाएं होने के बावजूद डॉक्टर लिख नहीं रहे हैं। डॉक्टर वही दवा लिखते हैं जो जेनेरिक दुकानों पर नहीं होती है।
नहीं लिखते फार्मूला
डॉक्टरों के लिए नियम बनाया गया है कि जब भी वे पर्चे पर दवा लिखेंगे तो साथ में फार्मूला भी लिखें। ताकि मरीज उस फार्मूले की जेनेरिक दवा लेना चाहे तो ले सकता है। लेकिन डॉक्टर ऐसा नहीं कर रहे हैं। फार्मूला न लिखा होने के चलते मरीज को उसी दुकान पर जाना होता है जो डॉक्टर ने सेट कर रखी होती है। यहां से भी डॉक्टर को मोटी रकम मिलती है, जिसकी कटौती मरीजों की जेब से होती है। जेनेरिक दवा दुकानों पर उस फार्मूले की सस्ती दवा होने पर भी फार्मूले के अभाव में दवा नहीं मिल पाती है।