मायानगरी मुम्बई, प्रमोद दीक्षित। यह युवाओं के सपनों का शहर है। यहां रातें भी सितारों की झिलमिलाहट से रोशन रहती हैं। यहां गिरने वालों को कोई उठाने वाला नहीं होता उसे स्वयं ही उठकर अपनी धूल झाड खड़ा होना पड़ता है। यह उगते सूरज को वंदन करने वालों की जगह है। यहां उल्लास है, उमंग है, जिजीविषा और आनन्द भी तो वहीं पीड़ा है, बेबसी है और हताशा भी। बेशुमार धन-दौलत है और धन से बने नीरस एवं बेजान सम्बंध भी। सफलता का अट्टहास करती अट्टालिकाएं हैं तो असफलता का रुदन करती चाल-झोंपड़ी भी। फलक पर खुशियों की धारा का सरस प्रवाह है तो तल पर जीवन की विकृति और विषाद का जमाव एवं ठहराव भी। सफलता के भोजपत्र में इंद्रधनुषी रंग और हास-परिहास की मधुर ध्वनि है तो असफलता के स्याह पृष्ठ पर कराहता मूक स्वर और हताश मन की इबारत भी। हंसते-मुस्काते चेहरों के पीछे दर्द से तड़पते मन हैं और सूखे आंसू भी। पर कलाकार अपने दुःखों और पीड़ा को सीने में दफन किए दर्शकों के लिए अभिनय करते हैं ताकि उन्हें रसानुभूति करा सकें। ऐसे सिने कलाकरों की एक लम्बी सूची है जो निजी जीवन के कष्टों को भूल बस कला के लिए जीये। मीना कुमारी निजी जीवन के दर्द और पीड़ा के घूंट को पल-पल पीने वाली भावप्रवण एवं संवेदनशील अदाकरा हैं जिन्हें 1954 में ‘बैजू बावरा’ के लिए पहला फिल्म फेयर एवार्ड प्रदान किया गया था। 38 वर्ष की अल्पायु में ही दुनिया छोड़ देने वाली मीना कुमारी कभी सुख-संतुष्टि का जीवन नहीं जी पायीं। दर्द एवं पीड़ा के अनुभव नज्मों के शेर बन ढलते रहे। उनकी गजलों का संग्रह गुलजार के संपादन में मृत्यु के बाद ‘तन्हां चांद’ के नाम से छपा।
मीनाकुमारी की पहचान भारतीय सिनेमा में एक सशक्त अभिनेत्री की रही है। पिता अली बख्श पारसी रंगमंच के एक समर्थ कलाकार थे और उन्होंने ‘शाही लुटेरे’ फिल्म में संगीत दिया था। पारसी थिएटर में काम करने वाली टैगोर परिवार से सम्बंधित कुशल नृत्यांगना प्रभावती देवी अली बख्श से निकाह कर इकबाल बानों बनीं और दोनों से तीसरी पुत्री के रूप में 1.8.1932 को दादर में मीना कुमारी का जन्म हुआ। वह दौर परिवार के मुफलिसी का दौर था और काम न होने के कारण वे पैसे-पैसे को मोहताज थे। मीना कुमारी के बचपन का नाम महजबी था। घोर आर्थिक संकट के चलते पिता ने सीने में पत्थर रख महजबी को जन्म के बाद एक अनाथाश्रम के द्वारा पर छोड़ आये। लेकिन बाप के दिल में बेटी के प्रति उमडे़ प्यार ने जैसे पैरों में बेड़ियां बांध दी हों। वह वापस लौटे और महजबी को गोद में उठा घर ले आये। घर की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के कारण महजबी को बहुत छोटी उम्र में ही फिल्मों में काम करने के लिए पिता द्वारा भेजा जाने लगा। महजबी ने पहली बार 1939 में एक बाल कलाकार के रूप में फिल्म ‘लेदरफेस’ में कैमरे का सामना किया और फिल्मी नाम मिला बेबी मीना। बाल कलाकार के रूप में 12 फिल्मों में काम किया। 1946 में ‘बच्चों का खेल’ से मीना कुमारी नाम से काम करना शुरु किया।
मीना कुमारी की शुरुआती फिल्में धार्मिक संदर्भों पर आधारित थीं जिनमें हनुमान, पाताल विजय, वीर घटोत्कच आदि का उल्लेख किया जा सकता है। 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ 100 सप्ताह तक पर्दे पर रही। मीना कुमारी के किरदार को खूब सराहा गया और वह स्टार बन गईं। इस फिल्म के लिए 1954 में पहले फिल्म फेयर अवार्ड में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। इसी दरम्यान एक फिल्म ‘तमाशा’ के सेट पर 1951 में कमाल अमरोही से मुलाकात हुई और दोनों एक दूसरे को दिल दे बैठे। वे निकाह करना चाहते थे लेकिन मीना पर पिता की बंदिशें और पहरेदारी थी। उन्हीं दिनों वे रात को 8-10 के बीच मीना को फिजियो थेरेपी के लिए छोटी बहन के साथ एक केन्द्र पर छोड़ जाते थे। वहीं 14 फरवरी 1952 को कमाल ने मीना से में गुपचुप निकाह किया। लेकिन निकाह के बाद भी वह पति के साथ नहीं जा सकीं। एक डेढ़ साल बाद पिता को जब मीना और कमाल अमरोही के निकाह के बारे में पता चला तो गुस्से में मीना को घर से निकाल दिया। तब मीना अपने शौहर के घर पहुंची। पर मीना का दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रहा। मीना का फिल्मी कैरियर दिन दूने रात चौगुने गति से बढ़ रहा थ तो वहीं कमाल की फिल्में कमाल न कर पा रही थीं। एक समय ऐसा आया की कमाल का नाम मीना के नाम की चमक में कहीं खो गया। अब मीना पर शौहर की पाबंदिया्रं लागू होने लगीं। पर मीना तो फिल्मी पार्टियों की चमकता सितारा और धड़कन थीं। परिणामतः आये दिन घर में झगड़े होने लगे। और 1964 में दोनों में अलगाव हो गया।
मीना कुमारी की फिल्मी जीवन विविधता भरा रहा। ‘परिणीता’ के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला साथ ही इस फिल्म में आम भारतीय महिला की जीवन की कठिनाइयों को चित्रित किया गया था। 1957 में ‘शारदा’ के लिए मीना को बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन द्वारा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया। ‘शारदा’ ने ही मीना को ‘ट्रेजडी क्वीन’ बना दिया। ‘दो बीघा जमीन’ ने कान फिल्म समारोह में पुरस्कृत होने वाली पहली भारतीय फिल्म का गौरव हासिल किया। मीना की कुल 12 फिल्मों को फिल्मफेयर पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया जिसमें चार फिल्मों ( बैजू बावरा 1954, परिणीता 1655, साहब, बीबी और गुलाम 1963, काजल 1965 ) के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1963 में केवल तीन फिल्मों ‘मैं चुप रहूंगी’, ‘आरती’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ को फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया और तीनों फिल्मों में नायिका मीना कुमारी ही थीं। उनकी महत्वपूर्ण फिलमों में दो बीघा जमीन, परिणीता, चांदनी चैक, एक ही रास्ता, नौलखा हार, दिल अपना प्रीत पराई, कोहिनूर, दिल एक मंदिर, आजाद, चिराग कहां रोशनी कहां, सहारा, हलाकू, चित्रलेखा, फूल और पत्थर, बहू बेगम, काजल, पाकीजा का उल्लेख किया जा सकता है। मीना कुमारी ने अभिनय के साथ कुछ फिल्मों के लिए पाश्र्व गायन भी किया है।
कमाल से तलाक के बाद भी मीना उन्हें भुला ना सकीं। गम हल्का करने के लिए शायरी का शौक पाला। नींद आंखों से दूर रहने लगी। चिकित्सकों की सलाह पर नींद हेतु लिया गया शराब का सहारा उन्हें अपने नशे में डुबाता चला गया और वह बीमार रहने लगीं। और एक दिन 31 मार्च 1972 को हिंदी फिल्म जगत की ट्रेजडी क्वीन मीनाकुमारी ने मुम्बई के सेंट एलिजाबेथ अस्पताल में अपने लाखों प्रशंसकों को रोता हुआ छोड़ कर अंतिम सांस ले इस नश्वर दुनिया से विदा ली। मीनाकुमारी ने अभिनय के जो मानक स्थापित किये थे वर्तमान में कोई अभिनेत्री उसके आसपास भी दिखाई नहीं देती। उनके जीवन पर कई लेखकों ने किताबे भी लिखी हैं। वह हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहेंगी। भारत सरकार द्वारा मीना कुमारी पर फरवरी 2011 में एक डाक टिकट भी जारी किया गया है।