समाज को आईना दिखाता एक सच..
अगर पुराने दौर में एक नजर घुमाई जाए तो बुजुर्गवार लोग इतने लाचार नहीं होते थे जितने कि अब दिखाई देते हैं। तब परिवार में मुखिया के तौर पर उनकी पहचान बनी रहती थी और हर जरूरी कार्य में उनकी सलाह या रजामंदी ली जाती थी। बदलते वक्त ने संबंधों में दूरी तो बढ़ा ही दी है साथ में भावनाओं को भी खत्म कर दिया है। व्यक्ति अपनों के प्रति असंवेदनशील होता जा रहा है। हम भाग दौड़ भरी जिंदगी, व्यस्तता और छोटे होते परिवार को दोष देते हैं लेकिन क्या यह सही नहीं है कि मूल्यों का हनन और संस्कार भी मिटते जा रहे है। अपवाद हर जगह होते हैं और अब भी दिखाई देते हैं कि बहुत व्यस्तता के बावजूद लोग अभी भी जिम्मेदारियां निभाते हैं हालांकि यह अब गांवों में, छोटे परिवार और संयुक्त परिवारों में दिखाई देती है जहां बुजुर्गों देखभाल होती है। उन्हें अपमानित या निरादर नहीं किया जाता है। लेकिन फिर भी आज समाज में इतना बदलाव आ चुका है कि मानव मन संवेदना से दूर होता जा रहा है। आज हम अपने लोगों से ही दूर होना चाहते हैं, जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते हैं। आज लोग अपने बूढ़े माता-पिता को बोझ समझने लगें हैं। आज की औलादें यह महसूस नहीं कर पा रही है कि यह वही माता पिता है जिन्होंने उनके लिए खुद को होम किया है। बचपन से लेकर जवानी तक उनके एक शानदार जीवन के लिए संघर्ष किया है। बाद में वही बच्चे यह तो तुम्हारा फर्ज था कहकर मुंह चुराते हैं, और जब जिम्मेदारी की बात आती है तो व्यस्तता का बहाना बना कर मुंह मोड़ लेते हैं।
पहले के समय में फिल्मी दुनिया में ही ग्लैमर था लेकिन आज हर व्यक्ति ग्लैमरस जीवन जीना चाहता है। आधुनिकता की दौड़ में रिश्तों को पीछे छोड़ना चाहता है। शायद पश्चिमी सभ्यता की नकल करते करते हम यह भूलते जा रहे हैं कि बुजुर्ग हमारे परिवार की “लाठी” है जो एक मजबूत सहारा है परिवार के लिए।
बुजुर्गों की अनदेखी की समस्या दिनों दिन बढ़ती जा रही है। अब चाहे व्यस्तता, महंगाई किसी भी बात का हवाला दे लेकिन व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहा है और उसी का नतीजा है कि वृद्धाश्रम फल फूल रहे हैं। अक्सर देखा जाता है कि बच्चे अपने माता पिता को घर से बाहर निकाल देते हैं, उनका इलाज नहीं कराते, उन्हें मारते पीटते हैं और अक्सर सड़कों पर मरने के लिए छोड़ देते हैं। यहां तक कि कई बार खाने पीने से भी मोहताज कर देते हैं। ऐसे ही एक बुजुर्ग मुकेश भट्ट की कहानी है जो मार्केटिंग विशेषज्ञ है। अपनी बीमारी के चलते उनकी सारी जमा पूंजी खर्च हो गई। बेटे से मदद मांगी तो उसने पहचानने से इंकार कर दिया। परिस्थितियों से लड़ते लड़ते आखिर वो वृद्धाश्रम पहुंच गए, जहां इलाज तो हो रहा है लेकिन दवाइयों की समस्या अभी भी बनी हुई है। सरकार द्वारा चलाई गई योजना “प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना” का लाभ अधिकतर लोगों को नहीं मिल पा रहा है। सरकारी उदासीनता इन वृद्धों के आड़े आ रही है।
सामाजिक रूप से नजर डाले तो कई जगह बुजुर्गों को लेकर अपराध भी होते हैं। बच्चों द्वारा प्रॉपर्टी हथियाने के लिए माता पिता को प्रताड़ित करना यहां तक कि हत्या कर तक कर देने जैसे अपराध होते हैं। “कौन बनेगा करोड़पति” में मैं एक वीडियो देख रही थी, जिसमें एक समाज सेवक समाज का आइना दिखा रहा था। वह बता रहे थे कि बच्चे किस तरह से अपने माता-पिता के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। एक बेटे ने अपने पिता को दस साल से कमरे में बंद किया हुआ था सिर्फ प्रॉपर्टी की वजह से। इसी तरह एक बेटे ने अपनी मां को टॉयलेट में बंद कर दिया था सिर्फ बहनों को प्रॉपर्टी नहीं देनी है, सारी प्रॉपर्टी उसके नाम कर दो। मरणासन्न अवस्था में पहुंचने के बाद उसे इलाज के लिए गए तो डॉक्टर आश्चर्यचकित थे कि उस महिला का वजन सिर्फ 12 किलो था। कुछ इसी तरह एक बेटे के पिता कोमा में चले गए। लड़के ने अपना ग्रीन कार्ड बनवा लिया और पिता को एक किराए के कमरे में रख दिया और वहां कमरे में बड़े बड़े चूहे छोड़ दिए। इस तरह के तमाम अपराध समाज में घटते रहते हैं।
मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या ज्यादा धन कमाने के चक्कर में हम संस्कारों को खोते जा रहे हैं? या हमारा स्वार्थ हमारे संस्कार पर हावी हो रहा हैं? या हम इस भाग दौड़ भरी जिंदगी में अपने बच्चों को संस्कार का पाठ नहीं पढ़ा पा रहे हैं? प्रियंका माहेश्वरी।