धारा 370 सिर्फ अस्थाई प्रावधान था-उपराष्ट्रपति
नई दिल्ली, जन सामना ब्यूरो। उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने आज कहा कि “हमारे लोकतंत्र के लिये यह आवश्यक है कि जनप्रतिनिधि लोकतांत्रिक आदर्शों और संस्थाओं में जनता की आस्था को बनाये रखें।” उन्होंने कहा कि दलीय राजनीति, लोकतंत्र में स्वाभाविक है, “विभिन्न दल राजनैतिक विकल्प उपलब्ध कराते हैं। परंतु राष्ट्रहित और समाज के आदर्शों का कोई विकल्प नहीं होता।”राष्ट्रहित के मुद्दों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर सर्वसहमति होनी चाहिए। इस संदर्भ मैं धारा 370 को निरस्त किए जाने की चर्चा करते हुए, श्री नायडू ने कहा कि धारा 370 केवल एक अस्थाई प्रावधान था। संसद में पंडित नेहरू के वक्तव्य का उल्लेख करते हुए, उन्होंने बताया कि27 नवंबर1963 को धारा 370 को निरस्त करने के मुद्दे पर जवाब देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने स्वयं कहा था कि धारा 370 महज एक अस्थाई प्रावधान है। वह संविधान का स्थाई भाग नहीं है। इस अवसर पर श्री नायडू ने उस समय के राष्ट्रीय समाचार पत्रों में इस विषय पर छपी खबरों को स्वयं पढ़ा।
उन्होंने कहा कि धारा 370 के निरस्त होने का देश भर में स्वागत हुआ है। उन्होंने कहा ये मसला देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा का है। परन्तु पश्चिमी मीडिया का एक वर्ग इस विषय में भारत विरोध भ्रामक प्रचार फैला रहा है।
उन्होंने जनप्रतिनिधियों से कहा कि “आज हम बढ़ती आकांक्षाओं और रोज बदलती संभावनाओं के युग में रह रहे हैं। जनप्रतिनिधियों से जनअपेक्षाएं भी बढ़ी है। लेकिन क्या हम उन आकांक्षाओं के साथ न्याय कर पा रहे हैं?” विधायी संस्थानों में व्यवधान की बढ़ती प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारे विधायी संस्थान विचार-विमर्श और सहमति का माध्यम हैं, व्यवधान का नहीं, “जनप्रतिनिधियों का दायित्व है कि वे लोकतांत्रिक मर्यादाओं और आस्थाओं को और दृढ़ करें।”
उपराष्ट्रपति ने कहा कि मैं सदैव एक तत्पर और सक्षम प्रशासन, न्यायिक सुधारों और सांसद एवं विधाई निकायों सार्थक सकारात्मक बहस का आग्रह करता रहा हूं। Discuss, Debate, Decide, Decentralise and Deliver यही आगे भावी प्रगति का मार्ग है। उन्होंने आगे कहा किन सिर्फ विधायिका और प्रशासन की जन आकांक्षाओं के प्रति जवाबदेही आवश्यक है बल्कि न्यायिक प्रणाली और प्रक्रिया को भी जनसाधारण के लिए सुलभ और सुगम होना चाहिए।
कानून को लागू कराने वाली संस्थाएं और न्याय प्रदान करने वाले अधिष्ठान लोगों के लिए सुगम, विश्वसनीय, पारदर्शी और सामान रूप से न्यायपूर्ण होने चाहिए।
त्वरित न्याय की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कियह आवश्यक है कि सालों से लंबित मुकदमों को कम करने के कारगर प्रयास किए जाएं। कहा गया है Justice Delayed is Justice Denied
श्री नायडु ने कहा कि लोकनीति में आचरण विचारधारा से अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि चुनाव याचिका या जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध आपराधिक मामलों जैसे मामलों में समयबद्ध और शीघ्रता से फैसला होना चाहिए। ये देखा गया कि ऐसे मामले या दल बदल कानून के तहत मुकद्दमे, जनप्रतिनिधि का कार्यकाल समाप्त होने तक भी लंबित रहते है। ऐसे विलंब से तो इन कानूनों का उद्देश्य ही निरर्थक हो जाता है। दल बदल कानून के प्रावधानों को संबंधित पीठासीन सभापति/अध्यक्ष द्वारा लागू करने में देरी पर चिंता व्यक्त करते हुए श्री नायडू ने कहा किदल बदलने वाले जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध पीठसीन सभापति/अध्यक्ष को शीघ्रता से निर्णय लेना चाहिए। देखा गया है कि कतिपय पीठासीन अधिकारियों द्वारा शीघ्रता से कार्यवाही न किए जाने के कारण, दल बदल कानून का अक्षरशः पालन नहीं हो रहा है।ऐसे मामलों में देरी से न्यायिक और विधाई अधिष्ठानों से जनता का विश्वास क्षीण होता है। उन्होंने सलाह दी कि ऐसे मामलों की सुनवाई विशेष न्यायिक प्राधिकरण द्वारा हो और फैसला भी समयबद्ध एक वर्ष के अंदर ही हो।
इसी संदर्भ में देश की न्यायिक व्यवस्था का उल्लेख करते हुए, उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमें न्यायिक प्रणाली को जनता के लिए सुगम सुलभ बनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट की बेंच का विस्तार करके तथा अलग क्षेत्रों के लिए सुप्रीम कोर्ट की अलग पीठ स्थापित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा किसमय आ गया है कि इतने विशाल देश में न्याय को जनता के लिए सुलभ बनाने के लिए उच्चतम न्यायालय की और पीठ स्थापित की जाए।
वे आज चंड़ीगढ़ में स्वर्गीय बलराम दास टंडन जी की प्रथम पुण्य तिथि पर आयोजित अवसर पर संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में, टंडन जी ने नि:स्वार्थ राष्ट्र सेवा, निष्ठापूर्ण समाज सेवा के प्रमाणिक मानदंड स्थापित किये जो जनप्रतिनिधियों और सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं की वर्तमान पीढ़ी के लिये आज भी उतने ही अनुकरणीय हैं।
श्री नायडु ने कहा कि जनता हमसे अपेक्षा करती है कि हम उन मानदंडों का अनुसरण करें जो टंडन जी जैसे विभूतियों ने सार्वजनिक जीवन में स्थापित किये। उन्होंने आग्रह किया कि राजनैतिक दल अपने सदस्यों और विधायकों के लिये आचार संहिता बनायें और उन्हें अपने घोषणा पत्र में शामिल करें, जिससे राष्ट्रीय जीवन में हम वह आदर्श पुन: स्थापित कर सकें जिसे टंडन जी जैसे समाजसेवी नेताओं ने स्थापित किया।
उपराष्ट्रपति ने आह्वाहन किया कि स्वाधीनता दिवस के अवसर पर देश को जातीय, लैंगिक भेदभाव, गरीबी और अशिक्षा से मुक्त करने के लिए साझा प्रयास करने का संकल्प लें।
इस अवसर पर पंजाब के राज्यपाल श्री वी.पी. सिंह बदनोर, केंद्रीय मंत्री, श्री सोम प्रकाश, पंजाब और हरियाणा सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों तथा पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राजकुमार सहित अनेक गणमान्य अतिथि उपस्थित रहे।
उपराष्ट्रपति का पूरा भाषण निम्नोक्त है:
“स्वर्गीय बलराम दास टंडन जी की प्रथम पुण्य तिथि पर दिवंगत पुण्यात्मा को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। और इस अवसर पर मुझे अपने विचार व्यक्त करने का अवसर देने के लिये आयोजनकर्त्ताओं का आभार व्यक्त करता हूँ।
अपने यशस्वी सार्वजनिक जीवन के अंतिम उत्तरदायित्व, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल बनने से पहले तक, प्राय: पंजाब तथा निकटवर्ती क्षेत्र ही टंडन जी का कार्यक्षेत्र रहा। इस क्षेत्र में अपने सार्वजनिक जीवन में टंडन जी ने यश और प्रतिष्ठा अर्जित की, जिसे आज भी लोग आदर के साथ स्मरण करते हैं।
मित्रों, टंडन जी के सामाजिक संस्कार तो युवावस्था में ही पड़ गये थे। आप उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे जिसने स्वाधीनता से पहले और बाद की राजनीति को निकट से देखा और उसमें रचनात्मक भाग भी लिया।
वह दौर था जब राष्ट्रीय मुद्दों पर दलीय मतभेद न थे। सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ता एक से अधिक राजनैतिक संगठन में सक्रिय रहते। देश का विभाजन, पंजाब पर विशेषकर भारी पड़ा था। इस प्रदेश को सबसे अधिक मानव त्रासदी, झेलनी पड़ी। ऐसे में, कई स्वयंसेवी युवा संगठन इस क्षेत्र में सक्रिय थे जो विभाजन से आयी आपदा में, शरणार्थियों, उनके जानमाल, सम्मान की रक्षा के लिये तत्पर थे।
टंडन जी ने इस कठिन समय में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में पंजाब और आसपास के क्षेत्रों-डलहौजी, चंबा में अथक परिश्रम किया। विभाजन से आये शरणार्थियों के लिये शिविर आयोजित किये। उन्हें मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रयास किया।
वर्तमान पीढ़ी शायद ही जानती हो कि 1927 में अमृतसर में जन्में टंडन जी का सार्वजनिक जीवन 1953 में ही अमृतसर नगर निगम के सदस्य के रूप में प्रारंभ हुआ। 1957-77 तक आप 5 बार पंजाब विधान सभा के सदस्य रहे। इसके बाद आप 1997-2002 तक पुन: पंजाब विधान सभा के सदस्य बने। अपने विधायी जीवन में आपने तीन बार आपने पंजाब सरकार में मंत्री पद के दायित्व का निर्वाह भी किया।
अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में, टंडन जी ने नि:स्वार्थ राष्ट्र सेवा, निष्ठापूर्ण समाज सेवा के प्रमाणिक मानदंड स्थापित किये जो जनप्रतिनिधियों और सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं की वर्तमान पीढ़ी के लिये आज भी उतने ही अनुकरणीय हैं।
1962 और 1965 युद्धों के दौरान आपने राष्ट्रीय उद्देश्यों के लिये जनसहयोग और जनभागीदारी को संगठित किया। साधारण नागरिक हर प्रकार से देश की सेनाओं को सहायता करने को तत्पर थे। जनता ने उदारतापूर्वक अपने स्वर्ण भूषण दान भी किये। आवश्यकता थी तो स्थानीय स्तर पर एक राष्ट्रनिष्ठ प्रमाणिक नेतृत्व की जो इन जन-प्रयासों को संगठित कर सके। उन्हें अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचा सके। लोगों को टंडन जी कार्यक्षमता, राष्ट्रनिष्ठा, और प्रमाणिकता पर पूरा विश्वास था। उनके नेतृत्व में सर्वदलीय कमेटी बनी तथा स्थानीय नागरिकों ने मनोयोग से अपना धन, देश की रक्षा के लिये दान कर दिया।
इसी प्रकार 1965 के युद्ध में आपने सीमा पर तैनात सैनिकों के लिये अमृतसर जैसे सीमावर्ती जिले में कैंटीन सुविधा आयोजित कीं।
पंजाब में आतंकवाद के दिनों में टंडन जी सांप्रदायिक सौहार्द और शांति के लिये प्रयासरत रहे। इस दौरान आपके घर पर आतंकवादी हमले भी हुये। फिर भी अपनी और अपने परिजनों की सुरक्षा की चिंता किये बगैर, आप आतंकी घटनाओं से प्रभावित लोगों की सेवा करते रहे। उनके पुर्नवास के लिये समिति बनाई। गरीब परिवारों के लिये चिकित्सा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई।
अपने सार्वजनिक जीवन में टंडन जी अनेक समाजसेवी संस्थाओं से सक्रिय रूप से जुड़े रहे और स्थानीय समुदाय की सेवा करते रहे जैसे रक्तदान, नि:शुल्क शिक्षा, चिकित्सा, गरीब बेसहारा विधवाओं को नि:शुल्क राशन, वस्त्र उपलब्ध कराना।
आज के जनप्रतिनिधियों को उनके कृतित्व से प्रेरणा लेनी चाहिये। आज हम बढ़ती आकांक्षाओं और रोज बदलती संभावनाओं के युग में रह रहे हैं। जनप्रतिनिधियों से जनअपेक्षाएं भी बढ़ी है। जनता हमसे अपेक्षा करती है कि हम उन मानदंडों का अनुसरण करें जो टंडन जी जैसे विभूतियों ने सार्वजनिक जीवन में स्थापित किये।
पारदर्शिता और निष्ठा के प्रति उनके आग्रह के बारें में मुझे उनके जीवन की कुछ घटनाएं बतायी गयी है। किस प्रकार आपातकाल के दौरान, माता की मृत्यु के बाद भी पैरोल बढ़ाने से इंकार कर दिया, मंत्री रहते भी अपने कोटे का कोयला भी लेने से मना कर दिया कि अपेक्षित शासकीय शुचिता पर आंच न आये या फिर परिजनों को उनके मंत्री रहते सरकारी टेंडरों में आवेदन करने से मना कर दिया। ये सभी घटनाएं सार्वजनिक जीवन में शुचिता, पारदर्शिता के ऊंचे प्रतिमान स्थापित करती है। तभी जनता का लोकतांत्रिक संस्थाओं और जनप्रतिनिधियों में विश्वास बढ़ता है।
हमारे लोकतंत्र के लिये यह आवश्यक है कि जनप्रतिनिधि लोकतांत्रिक आदर्शों और संस्थाओं में जनता की आस्था को बनाये रखें। दलीय राजनीति, लोकतंत्र में स्वाभाविक है। विभिन्न दल राजनैतिक विकल्प उपलब्ध कराते हैं। परंतु राष्ट्रहित और समाज के आदर्शों का कोई विकल्प नहीं होता।
हाल के वर्षो में हमारे लोकतांत्रिक संस्थाओं से जनआकांक्षाएं बढ़ी है। लेकिन क्या हम उन आकांक्षाओं के साथ न्याय कर पा रहे हैं ? हमारे विधायी संस्थान विचार-विमर्श और सहमति का माध्यम हैं,व्यवधान का नहीं। ऐसे समय में टंडन जी द्वारा स्थापित राष्ट्रनिष्ठा के मानदंडों का सदैव स्मरण रहना चाहिये। हर नागरिक को समाज हित और देश हित में अपने सूक्ष्म व्रतों को पूरा करने का संकल्प लेना चाहिये।
जनप्रतिनिधियों का विशेष दायित्व है कि ये लांकतांत्रिक मर्यादाओं और आस्थाओं को और दृढ़ करें। लोकनीति में आचरण विचारधारा से अधिक महत्वपूर्ण है।
मेरा हमेशा मानना रहा है कि चुनाव भविष्य के विकास के एजेंडें पर लड़े जाने चाहिये। उम्मीदवार की विचारधारा, आचरण, क्षमता, निष्ठा के आधार पर चुनाव होना चाहिये, न कि जाति, धर्म, क्षेत्र, धनबल, बाहुवल आदि के आधार पर। ये प्रवृत्तियां तो हमारे लोकतांत्रिक और सामाजिक संस्कारों को क्षीण करेंगे। मेरा आग्रह रहा है कि राजनैतिक दल अपने सदस्यों और विधायकों के लिये आचार संहिता बनायें जिससे राष्ट्रीय जीवन में हम वह आदर्श पुन: स्थापित कर सकें जिसे टंडन जी जैसे समाजसेवी नेताओं ने स्थापित किया।
मुझे यह भी बताया गया कि किस प्रकार टंडन जी ने राज्यपाल के रूप में, सरकार द्वारा बढ़ाये गये वेतन को लेने से इंकार कर दिया। वे वर्षों तक 18 संस्थाओं/व्यक्तियों को प्रतिमाह डोनेशन देते रहे। जीवन के अंतिम वर्ष में भी सभी लाभार्थियों को एकमुश्त डोनेशन दिया जिससे उनके देहांत के बाद भी लाभार्थियों की आवश्यकताएं पूर्ण हो सकें। भारतीय आश्रम परंपरा में, आदर्श वानप्रस्थी अनासक्त सेवा का यह उत्कृष्टतम उदाहरण है। टंडन जी जीवन पर्यन्त ही नहीं बल्कि देहावसान के बाद भी समाज का कल्याण सुनिश्चित कर गये।
आपका कार्य शरीर, आपके द्वारा प्रतिष्ठित आदर्श, शाश्वत और अनुकरणीय हैं। मैं पुण्यात्मा की पावन स्मृति को पुन: सादर वंदन करता हूँ। टंडन जी जैसे आदर्श व्यक्तित्व के विषय में अपने विचार साझा करने हेतु अवसर प्रदान करने के लिये आप सभी का आभार प्रकट करता हूँ।
जय हिंद ।”