टूटी -फूटी फुलवारी का, दुःख देख कर रोना आएगा
धरती-अंबर, सरिता-सागर हर एक पर रोना आएगा
औषधियों के बदले मानव, हथियार बनाएगा जब तक
दहशत की गलियों में कैसे, खुशियों का कोना आएगा।।
जाने किस सोच के लोग हैं ये, फूलों से विचलित होते हैं
अनुराग से वर्जित होते हैं, शोलों से पुलकित होते हैं
जब मन ही रोगी होगा, कैसे रोग भगाना आएगा।
बरबादी का मौसम लेकर यूँही कोरोना आएगा।।
एक लम्हें का सुख अच्छा है, अपने घर का रुख अच्छा है
निर्बल की छाती को दल कर पाए सुख से दुःख अच्छा है
अवहेला अपनी मिट्टी का नदिया को कब तक सींचेगा
पाताल की प्यास तनिक सोचो, कब तक जलधार उलीचेगा
ज्यादा से ज्यादा पाने की, चाहत में सब खो जाएगा
फिर उस बिछड़े छोटे से छोटे पल पर रोना आएगा।।
कब रात कटे, उत्ताप कटे, उन्माद छंटे जग तीतल का
जाने किस दिन जाकर मानव को मानव होना आएगा।।
कंचन पाठक कवियित्री, लेखिका ग्रेटर कैलाश, नई-दिल्ली