नये कृषि बिल को लेकर जहाँ पूरे देश के अन्दर बबाल मचा हुआ है वही कई विदेशी नेताओं का भी इस ओर ध्यान केन्द्रित है| भारत सरकार कृषि बिल की विशेषताएं बताकर नहीं थक रही है तो आन्दोलनरत किसान इसे वापस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं| किसानों के सुर में सुर मिला रही विपक्षी पार्टियाँ आपसी भेदभाव भुलाकर एकता और अखण्डता के सूत्र में बंध चुकी हैं| कनाडा के प्रधानमन्त्री सांसद तनमनजीत सिंह ने भारतीय किसानों का मुद्दा उठाकर अपने भारत प्रेम को प्रस्तुत किया है| भारत सरकार के मन्त्री भी किसी से कम नहीं हैं| केन्द्रीय मन्त्री राव साहब दानवे किसान आन्दोलन को चीन और पाकिस्तान की साजिश बता रहे हैं| कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद सहित अन्य सभी भाजपा नेता इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरते हुए आरोप लगा रहे हैं कि 2019 के चुनावी घोषणा-पत्र में जिस कांग्रेस ने कृषि कानूनों में संशोधन को शामिल किया था वही कांग्रेस अब नये कृषि विधेयक का विरोध कर रही है| निश्चित रूप से इससे कांग्रेस का दोहरा चरित्र उजागर होता है| लेकिन यहाँ सरकार को भी यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वह कांग्रेस का एजेण्डा आगे बढ़ा रही है? यदि आज किसान नये कृषि बिल का विरोध न करते तो क्या सरकार इसका श्रेय कांग्रेस को देती? कृषि कानूनों में संशोधन को अपने घोषणा-पत्र में शामिल करने के बाद यदि कांग्रेस 2019 के चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई तो इसका सीधा अर्थ यही है कि देश का किसान ऐसे किसी संशोधन को नहीं चाहता था| सरकार यदि इतनी सी बात समझ लेती और नये कृषि बिल का प्रारूप बनाने से पूर्व किसानों से पर्याप्त चर्चा कर लेती तो आज यह नौबत ही नहीं आती| इससे तो विपक्ष का यह आरोप सही सिद्ध होता है कि सरकार किसी गोपनीय एजेण्डे पर काम कर रही है| तब फिर किसानों की वह आशंका निराधार कैसे कही जा सकती है, जिसके अनुसार आने वाले समय में देश की कृषि व्यवस्था पूंजीपतियों के हांथों में चली जायेगी और किसान अपने ही खेतों में सिर्फ मजदूर बनकर रह जायेगा|
यह लोकतन्त्र की बिडम्बना ही है कि आजादी के तिहत्तर वर्ष बाद आज जब बहुत कुछ बदल चुका है तब कानून बनाने की हमारी परम्परा में बदलाव क्यों नही हो रहा है| अस्सी के दशक तक प्रायः जमीन से जुड़े लोग ही विधायक और सांसद बनते थे| उनसे यह अपेक्षा रहती थी कि वह आम जन की व्यावहारिक समस्याओं से पूर्णतया परिचित होंगें और किसी भी विषय पर सदन में चर्चा के दौरान अपने व्यावहारिक अनुभव साझा करेंगे| वर्तमान समय में देश के कितने सांसद और विधायक ऐसे हैं जो सीधे तौर पर जमीन से जुड़े हुए हैं| कुछ एक को यदि छोड़ दें तो बांकी लगभग सभी करोड़पति और अरबपति ही हैं| आम जन की बात वह भले ही करते हों परन्तु आम जन से उनका दूर-दूर तक कहीं कोई जमीनी सम्बन्ध नहीं होता है| इसके साथ ही एक बात यह भी समझने वाली है कि देश में प्रजातन्त्र अवश्य है परन्तु राजनीतिक दलों में विशुद्ध रूप से राजतन्त्रीय व्यवस्था चल रही है| हाईकमान की हाँ में हाँ मिलाना आज सभी दलों के छोटे नेताओं की विवशता बन चुका है| ऐसे में आम जन की व्यावहारिक समस्याएं बिना किसी होमवर्क के सरकार तक पहुँच पाना सम्भव नहीं है| सरकार ने संसद के दोनों सदनों में पूर्ण बहुमत का लाभ उठाकर तीनों कृषि अधिनियम भले ही पारित कर लिए हों परन्तु व्यावहारिक धरातल से वह सर्वथा दूर ही रही| कृषि कानूनों में संशोधन से पूर्व सरकार ने यदि अलग-अलग क्षेत्रों के किसानों से खुली चर्चा कर ली होती| तो न केवल देश के किसान आज सरकार के साथ खड़े होते बल्कि देश में सही कृषि नीति भी सफलतापूर्वक लागू हो जाती| प्रधानमन्त्री के कथनानुसार नये कृषि कानून यदि पूरी तरह से किसानों के हितैषी हैं तो फिर किसान नेताओं से बातचीत करने के बाद अब सरकार उनमें परिवर्तन पर विचार क्यों कर रही है? इसका अर्थ तो यही है कि किसानों की आशंका के अनुरूप कानून में कुछ न कुछ खामियां जरुर हैं|
नये कानून के अनुसार देश के किसान सरकारी मण्डियों से इतर निजी व्यापारियों को भी मन मुताबिक कीमत पर अपनी उपज बेच सकेंगे| वह फसल बोने से पूर्व व्यापारियों के साथ समझौता भी कर सकेंगे| निश्चित ही इससे सरकारी मण्डियों में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा बिचौलियों की मनमानी से किसानों को मुक्ति मिलेगी| लेकिन निजी व्यापारियों से समझौते के बाद किसानों के हित कितने दिनों तक संरक्षित रहेंगे, इसकी गारंटी कौन देगा? किसी भी वस्तु के मूल्य का निर्धारण मांग और आपूर्ति के आधार पर होता है| अतः किसानों से अनुबन्ध करने वाले व्यापारियों को फसल की खरीद से कम मूल्य यदि बाजार में प्राप्त हुआ तब वह किसानों से अनुबन्ध के मूल्य पर भला फसल कैसे और क्यों खरीदेंगे? और यदि बाजार में फसल का मूल्य अनुबन्ध की रकम से बहुत अधिक हुआ तब क्या इसका लाभ किसानों को मिलेगा? शायद नहीं| किसी समय नील के व्यापारी भी भारतीय किसानों से मामूली मूल्य पर अनुबन्ध करके स्वयं कई गुना मुनाफा कमाते थे| उस दौर में नील का उत्पादन करने वाले किसानों की हालत क्या हुई थी, यह सभी को पता है|
मण्डियों में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा बिचौलियों की मनमानी यदि नहीं रुक रही है तो यह सरकार की विफलता है| इसके लिए मण्डियों के समानान्तर निजी बाजार खड़ा कर देना उपयुक्त विकल्प नहीं है| इससे धीरे-धीरे मण्डियों का अस्तित्व स्वतः ही समाप्त हो जायेगा और अन्त में सिर्फ निजी बाजार ही बचेगा| उस समय व्यापारियों को मनमानी करने से कौन और कैसे रोक पायेगा? क्योंकि व्यापारी सिर्फ व्यापारी होता है| वह केवल और केवल अपना लाभ देखता है| किसी का हित अनहित उसका विषय नहीं होता है| वह तभी तक दबाव में रहता है जब तक सरकारी क्षेत्र से उसकी प्रतिस्पर्धा चलती है| इसलिए सरकार को चाहिए कि किसानों के साथ पर्याप्त विचार-विमर्श करने के उपरान्त ही किसी भी प्रकार के कृषि कानून का प्रारूप तैयार करे| जहाँ तक न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात है तो किसानों को सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार से जोड़ना भी एक विकल्प हो सकता है| जहाँ किसान स्वतन्त्र रूप से अपनी उपज का मूल्य निर्धारित कर सकते हैं| अन्य तमाम वस्तुओं की ही तरह किसानों को भी अपने उत्पाद के मूल्य निर्धारित करने तथा बेचने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए| साथ ही उन्हें शोषण से बचाने के लिए कड़े कानून भी होने आवश्यक हैं|
डॉ. दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)