“एक ज़माना था जब लेखकों का मान था सम्मान था, रचनाओं का मोल था, बिक रहा है आज साहित्य कोड़ियों के दाम ये कैसा इंसानी दिमाग का खेल था”
आज के ज़माने में कुछ भी नामुमकिन नहीं “पैसा फैंक तमाशा देख” वाली उक्ति हर जगह साबित हो रही है। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि पैसों से, महंगी से महंगी चीजें खरीदी जा सकती है लेकिन खुशियाँ नहीं। पर ना साहब खुशियों की भी कीमत होती है और एक निश्चित राशि देकर उसे खरीदा भी जा सकता है।
आजकल सोशल मीडिया पर लेखकों की भरमार दिख रही है, तो साथ में इतने सारे साहित्यिक मंच उपलब्ध है कि लेखकों को जोड़ने की खिंचातानी लगी है। एक ज़माना था जब लेखकों को लेखन के बदले मानदेय राशि मिलती थी। आज उल्टा हो रहा है लेखकों से लेखन के साथ पैसे भी वसूले जाते है, कभी सदस्यता के नाम पर तो कभी प्रतियोगिता शुल्क के रुप में, तो कभी ये कहा जाता है कि वार्षिक 500 रुपये से लेकर 2500 देकर पूरा साल आप हमारी पत्रिका में रचनाएँ छपवाओ। कोई-कोई पब्लिशर्स साझा संकलन निकालते है, जो लेखक उसका हिस्सा बनते है उनकी रचनाएँ और लेख उस पब्लिशर्स की पत्रिकाओं में नियमित रुप से छपते है, और जो लेखक राशि नहीं देते, या साज़ा संकलन का हिस्सा नहीं बनते उनको ग्रुप से ही हटा दिया जाता है। जो लेखक इनकी बातों में आकर पैसे देकर छपवाते है उनकी बेकार से बेकार और फालतू रचना भी छप जाती है, और जो पैसे देने से मना करते है उनकी बेनमून रचनाएँ पड़ी रहती है।
ताज्जुब की बात यह है कि हर तीसरा लेखक पैसे देकर अपना लेखन बेच रहा है और छपवा रहा है। सोचिए कितनी खुशी मिलती होगी उस लेखक को अपनी विद्या के बदले खुशियाँ खरीद कर। मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा कि लेखक पब्लिशर्स को किस बात के पैसे दें? चलो एकल दुकूल जरूरतमंद को दे भी दें पर यहाँ तो हर कोई दुकान खोलकर बैठे है, कितनों को दें? एक लेखक दस जगह पर अपना लेखन भेजता है तो सोचिए कितनी राशि देनी पड़ेगी। हम लेखक मांगते नहीं, साहित्य की सेवा कर रहे है, तो कम से कम इस काम के बदले पैसे तो मत मांगो। दिमाग लेखक चलाए, कलम या अंगूठा लेखक घिसे उपर से पैसे भी दें। लेखक लिखता है तभी इनकी पत्रिकाएं चलती है, उसी से पब्लिशर्स कमाते है तो लेखकों से शुल्क लेने का मतलब तो रिश्वत ही हुई न, कि अगर अपना लिखा छपवाना है तो राशि दो हम पूरा साल छापेंगे। जिसके पास पैसे है वह तो देते रहेंगे, पर जो पैसे देकर छपवाने की क्षमता नहीं रखता ऐसे आला दरज्जे के लेखक कहाँ जाएंगे। आहिस्ता-आहिस्ता लेखन से विमुख होते जाएंगे और साहित्य का स्तर गिरता जाएगा।
वोट्सएप पर भी ऐसे ग्रुपों की तादात लगी है, किसी न किसी विषय पर प्रतियोगिता करवाकर 10 रुपये से लेकर 100 रुपये शुल्क राशि ली जाती है। सोचिए साहित्य कितना सस्ता हो गया है। और आजकल तो साहित्यकारों को वर्ष के अंत में अवॉर्ड्स देने की प्रथा चली है, उसमें भी पैसे दो अवॉर्ड लो वाली हवा चल रही है। अवॉर्ड बेचने वाली संस्थाएं सरेआम सोशल मीडिया पर अपनी एड ड़ालते है अपने बैंक एकाउंट के साथ कि इतनी राशि जमा करवाईये और पाईये फलाना,फलाना अवार्ड। मतलब अच्छे लेखन की कोई कद्र ही नहीं। ऐसे अवार्ड्स का क्या मतलब रह जाता है। पैसों के दम पर अपना लिखा कुछ भी बेचो और खुशियाँ पाओ। शायद मेरी बात कुछ लोगों को अखर सकती है, पर हुनर भी दो, पैसे भी दो उसके बदले खुशी कैसे मिल सकती है? पैसों की तुला में तुलकर साहित्य दम तोड़ रहा है। अच्छे और सच्चे लेखक निराश हो रहे है। मुद्दा सोचनीय है।