दिन बदल रहा है अब इलाहाबाद में कुछ छात्रों की विश्वविद्यालय में राजनीति जोरों पर है कुछ का तो पढ़ाई से कोई वास्ता ही नहीं, केवल टाइम पास और गुन्डई करने के लिए विश्वविद्यालय में किसी तरह एडमिशन ले लिए हैं। एडमिशन में जब विश्वविद्यालय ने पारदर्शिता लाने की कोशिश की थी और प्रवेश परिक्षाओं का मॉडल चेंच करके ऑनलाइन कर दिया तब इन फुटकरिया लोगों के घुसने के चांस काफी कम हो गये जिसके चलते स्वतंत्रता के नाम पर खूब अनशन किये गये।आपको याद दिला दें यह वही लोग हैं जो सरकार के डिजटल-इंडिया प्रोग्राम को प्रमोट करने के लिए गला फाड़कर वाट्सअप फेसबुक पर डिजटलाइजेशन की बात करते थे, लेकिन जब अपनी लुटिया डूबती महसूस हुई तब खुलकर ऑनलाइन प्रवेश परीक्षा का विरोध किया गया, हलांकि यूजी में एडमिशन लेने वाले कुछ ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों को इससे परेशानियां आई। सही मयानेमें यहीं से ही विश्वविद्यालय में मौजूदा अराजकता की पहले कड़ी की शुरूआत होती है। विवि. का आलम किसी से छिपा नहीं है, प्रो. की क्या मजाल किसी छात्र से थोड़ी ऊंची आवाज में बात कर लें, अगर बहुत बद्तमीजी कर दी और प्रो. साहब ने कुछ बोल दिया तो उनका बाहर मिलना तय है। सवाल उठता है कि , क्या उनके परिवार और गुरू ने जो संस्कार उन्हें दिए वह सब बेकार हो गये?
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भोग से मुक्ति का मार्ग दिखाता है योग
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मानव सभ्यता आज विकास के चरम पर है । भले ही भौतिक रूप में हमने बहुत तरक्की कर ली हो लेकिन शारीरिक आघ्यात्मिक और सामाजिक स्तर पर लगातार पिछड़ते जा रहे हैं।
मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग अपने शारीरिक श्रम को कम करने एवं प्राकृतिक संसाधनों को भोगने के लिए कर रहा है ।
यह आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति की देन है कि आज हमने इस शरीर को विलासिता भोगने का एक साधन मात्र समझ लिया है।
भौतिकता के इस दौर में हम लोग केवल वस्तुओं को ही नहीं अपितु एक दूसरे को भी भोगने में लगे हैं। इसी उपभोक्तावाद संस्कृति के परिणामस्वरूप आज सम्पूर्ण समाज में भावनाओं से ऊपर स्वार्थ हो गए हैं और समाज न सिर्फ नैतिक पतन के दौर से गुजर रहा है बल्कि अल्पायु में ही अनेकों शारीरिक बीमारियों एवं मानसिक अवसाद ने मानव जाति को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
नक्सली सिर्फ जंगल में नहीं रहते………!
पहली बात सुकमा में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। दूसरी बात सुकमा में जिस तरह से 26 जवानों की हत्या हुई वह दिखाती है कि हमारी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था या तो काफी कमजोर है या फिर उसमें कई छिद्र हैं। इन छिद्रों का भरा जाना बेहद जरूरी है। आखिर यह कब तक चलता रहेगा ? आज देश यह जानना चाहता है। देश ने प्रचंड बहुमत की ‘बीजेपी सरकार’ को यह छूट दी है कि वह जो भी देशहित में करेगी हम उसका साथ देंगे। अवश्य देंगे। हजारों दुःख सह कर भी देंगे। उसे सफल बनाएंगे। जब सरकार को ये ज्ञात है कि आम जनमानस (जो कि देश को विकास की राह में अग्रसर होते देखना चाहता है वह) उसके साथ है तो सरकार लौह निर्णय लेने में घबराहट क्यों महसूस कर रही है ? आखिर क्यों वह ताबड़तोड़ फैसले करते हुए कुछ मामलों में आर-पार की लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं हो पा रही है ? सब कुछ पता होने के बावजूद क्यों वह महज कुछ लोगों के दबाव में कड़े फैसले लेने से घबरा रही है ?
सरकार की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। होती भी हैं। लेकिन आज जनता इन मजबूरियों का रोना सुनने को तैयार नहीं है। वह कुछ समस्याओं का तुरंत समाधान चाहती है। ’नक्सलवाद’ उन्हीं समस्याओं में से एक है। पर उसे खत्म करने के साथ-साथ जिन समस्याओं पर गौर किया जाना चाहिए वह इस प्रकार हैं…
एक स्वाभाविक वैचारिक समानता
भारत और इजरायल के मध्य एक स्वाभाविक वैचारिक और आत्मीय समानता का भाव विद्यमान रहा है। यद्यपि दोनों देश इस प्रकार की कूटनीतिक परिस्थितियों में उलझे रहते हैं कि वे चाहकर भी एक-दूसरे के प्रति संबंधों में गर्माहट का इजहार नहीं कर पाते। भारत में कतिपय घरेलू राजनीतिक कारणों से भी भारतीय सरकारें और राजनेता इजरायल को लेकर कुछ कहने से सहमे से रहते हैं। हाल ही में भारतीय राष्ट्रपति ने सनसनीखेज ढंग से अपनी विदेश यात्रा के एक कार्यक्रम को इसलिए बदल दिया, क्योंकि उस कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हें इजरायल की यात्रा करनी थी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्पष्ट कहा कि इजरायल वह तभी जाएंगे, जब इसके साथ ही उनका फिलीस्तीन यात्रा का भी कार्यक्रम तय किया जाए। इस घटना से भारतीय कूटनीति की दुविधा खुलकर सामने आ गई है। यह आश्चर्यजनक है कि भारत में विदेश नीति जैसे गंभीर मुद्दे को भी आज तक वोट बैंक पर आधारित घरेलू राजनीति से मुक्त नहीं किया जा सका है। प्रायरू भारत सरकार के प्रतिनिधि इजरायल के साथ अपने संबंधों को छिपाने का प्रयास करते हैं। भारत-इजरायल के मध्य संबंधों पर प्रायः पर्दा इसलिए भी डाला जाता रहा है, क्योंकि भारत को यह लगता है कि इससे अरब देश भारत से नाराज हो जाएंगे।
Read More »अंधेरी सुरंग में कांग्रेस!
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बढ़ती मानसिक समस्याएं और अवसाद
तकनीकी विकास और आर्थिक प्रगति के इस अंतहीन युग में नए युग के सापेक्ष अनेक जटिल मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक समस्याएं भी उभरनी शुरू हो गई हैं। भारत जैसे देश नए युग की देन बनी इन सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक चुनौतियों से जूझने का प्रयास कर रहे हैं। तेजी से बदलती जीवनशैली संपूर्ण विश्व में तनाव और अवसाद का प्रमुख कारण बन गई है। बढ़ता तनाव और असंतोष ही आज विश्व में हिंसा और आतंकवाद का प्रमुख कारण और स्रोत बना हुआ है। तेजी से बढ़ता तनाव अब किसी भी सामान्य नागरिक को भी असामान्य व्यवहार की ओर खतरनाक ढंग से प्रेरित करने का कारण बनता जा रहा है। ऐसी कई घटनाएं विश्व में जब-तब सामने आती रहती हैं, जब अनायास ही बहुत छोटे-मोटे कारणों अथवा बिना किसी कारण के ही किसी नागरिक ने अन्य नागरिकों के जीवन के लिए गंभीर संकट खड़ा कर दिया। सार्वजनिक स्थानों पर इस प्रकार की घटनाएं अब आम होती जा रही हैं। संपूर्ण विश्व में मनोरोग और मानसिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। यदि मनुष्य और उससे निर्मित समाज मानसिक रूप से स्वस्थ व संतुष्ट नही होगा, तो समस्त विकास प्रक्रिया और आर्थिक समृद्धि पूरी तरह व्यर्थ होगी।
Read More »चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली में सुधार की महती आवश्यकता है
किसी भी लोकतान्त्रिक देश में लोकतन्त्र को सफल और सार्थक बनाने का प्रमुख दायित्व उस देश में चुनाव सम्पन्न कराने वाली संस्था का होता है। विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र वाले देश भारत में इस दायित्व का निर्वहन करने वाली संस्था का नाम चुनाव आयोग है। भारत की इस अति महत्वपूर्ण संस्था की कार्यप्रणाली पर यदा-कदा प्रश्नचिन्ह लगते रहते हैं। कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी के लिए, कभी ऊटपटांग परिसीमन के लिए, कभी फर्जी मतदान के लिए, कभी मतदान केन्द्रों पर अव्यवस्था के लिए तो कभी ई.वी.एम. में गड़बड़ी के लिए। आधी-अधूरी तैयारी के साथ आनन-फानन चुनावों की घोषणा करने में भारत का चुनाव आयोग अब माहिर हो चुका है। ऐसे में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की दूरगामी सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
चुनाव आयोग कितने भी दावे क्यों न कर ले परन्तु त्रुटिरहित चुनाव संपन्न कराने की स्थिति में फिलहाल तो वह नहीं है। मतदाता सूची में नाम की गलतियाँ वह आज तक नहीं सुधार पाया है। सबसे हास्यास्प्रद स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब चुनाव आयोग स्वयं के ही द्वारा जारी किये गये मतदाता पहचान-पत्र को मतदाता सूची में नाम न होने की स्थिति में अस्वीकार कर देता है। किसी व्यक्ति के पास यदि चुनाव आयोग द्वारा जारी किया गया पहचान-पत्र है तो इसका तात्पर्य यही है कि सम्बंधित व्यक्ति ने आयोग द्वारा बनायी गयी उस प्रक्रिया को विधिवत पूरा किया है जो मतदाता बनने के लिए आवश्यक है। इसके बाद चुनाव के समय मतदाता सूची में नाम सुरक्षित रखने का सम्पूर्ण दायित्व आयोग का ही है न कि उस व्यक्ति का।
जिनकी आँखे खुली नहीं, वो कहते ‘रात’ है……..
मेरा ख्याल है कि ‘कबूतर और बिल्ली’ वाली कहावत तो सब जानते ही होंगे। अगर नहीं भी जानते हैं तो उसका भाव यह है- कि यदि आप किसी भी समस्या को सम्मुख देखकर, उससे किनारा करने का प्रयास करें, तो वह खुद-ब-खुद सामने से नहीं जाएगी, बल्कि उसे हटाने के लिए हमें सतत प्रयास करना पड़ेगा। गीता में भगवान ने भी अर्जुन से यही कहा था कि- हालांकि मैं सब जानने वाला हूँ। फिर भी-ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः। अर्थात मैं हर व्यक्ति को उसके कार्य के लिए प्रयुक्त तो करता हूँ लेकिन कार्य उसे ही करना पड़ता है। निष्कर्षतः अपना काम स्वयं ही करना पड़ता है। समस्याओं से मुँह चुरा लेने मात्र से समस्या भागती नहीं है, बल्कि वह और बढती है।
इसी संदर्भ में यदि हम देखें तो कई समस्यायें ऐसी हैं, जिनकी तरफ से हम इतने ज्यादा उदासीन हैं कि हमारा ध्यान कभी उधर जाता ही नहीं। जाता भी है तो हम उस पर बात ही नहीं करना चाहते हैं। ऐसा ही एक मुद्दा है ‘श्रीराम मंदिर’। आखिर हम इतने पवित्र मुद्दे में एक-दूजे से इतने मतभेद क्यूँ बनायें हुए हंत ? क्यूँ नहीं साधारण तरीके से बिना किसी जोर-जबरदस्ती के इसे निपटाना चाहते हैं ? क्यूँ हमेशा यह मुद्दा आते ही हमारे मन में एक डर और भय का माहौल क्रीयेट हो जाता है? दरअसल यह डर, लज्जा,संकोच एक दो दिन का नहीं है। यह सालों से प्रायोजित तरीके से हमारे मनोमष्तिष्क में बैठाया गया है, इतिहास की गलत जानकारी देकर। एक बात और, यदि आपको लगता है कि हर लड़ाई में सिर्फ नेताओं द्वारा ही आग भड़काई जाती है। तो ध्यान दीजिये, आप गलत हैं। इस लड़ाई में आग लगाने का काम नेताओं की बजाय चाटुकार इतिहासकारों ने किया है।
सुख की खोज में हमारी खुशी कहीं खो गई
खुशी का कोई भौतिक स्वरूप नहीं है, वो एक भाव है जो दिखाई नहीं देता तो वो इन भौतिक चीजों में मिलती भी नहीं है। वह मिलती भी उन्हीं भावों में है जो दिखाई नहीं देते।
हमारी संस्कृति ने हमें शुरु से यह ही सिखाया है कि खुशी त्याग में है,सेवा में है, प्रेम में है मित्रता में है, लेने में नहीं देने में है, किसी रोते हुए को हँसाने में है, किसी भूखे को खाना खिलाने में है।
जो खुशी दोस्तों के साथ गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर बातें करने में है वो अकेले माल में फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने में भी नहीं है।
ताजा ग्लोबल हैप्पीनैस इंडैक्स में 155 देशों की सूची में भारत 122 स्थान पर है। भारत जैसा देश जहाँ की आध्यात्मिक शक्ति के वशीभूत विश्व भर के लोग शांति की तलाश में खिंचे चले आते हैं , उस देश के लिए यह रिपोर्ट न सिर्फ चैकाने वाली है बल्कि अनेकों प्रश्नों की जनक भी है।
यह समय हम सभी के लिए आत्ममंथन का है कि सम्पूर्ण विश्व में जिस देश कि पहचान अपनी रंगीन संस्कृति और जिंदादिली के लिए है, जिसके ज्ञान का नूर सारे जहाँ को रोशन करता था आज खुद इस कदर बेनूर कैसे हो गया कि खुश रहना ही भूल गया?
आज हमारा देश विकास के पथ पर अग्रसर है, समाज के हर वर्ग का जीवन समृद्ध हो रहा है, स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हुई हैं, भौतिक सुविधाएं अपनी श्रेष्ठता पर हैं, मानव ने विज्ञान के दम पर अपने शारीरिक श्रम और कम्प्यूटर के दम पर अपने मानसिक श्रम को बहुत कम कर दिया है तो फिर, ऐसा क्यों है कि सुख की खोज में हमारी खुशी खो गई? चैन की तलाश में मुस्कुराहट खो गई? क्यों हम समझ नहीं पाए कि यह आराम हम खरीद रहे हैं अपने सुकून की कीमत पर।
आर्थिक समृद्धि के शिखर पर गरीबी और हिंसा
– पंकज के. सिंह
भ्रष्टाचार एवं कालेधन से मुक्त एक संतुलित एवं स्वस्थ अर्थव्यवस्था के लिए बैंकिंग सुधार एक आवश्यक शर्त है। विकसित देशों ने बैंकिंग सुधार की दिशा में काफी उपलब्धियां हासिल की हैं। भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्था के लिए सामयिक एवं प्रासंगिक बैंकिंग सुधार एक बड़ी चुनौती है। स्विटजरलैंड ने अपनी बैंकिंग प्रणाली से अवैध धन को दूर रखने के लिए इसकी निगरानी और अन्य कानूनी प्रयास तेज कर दिया है। भारत और कुछ अन्य देशों द्वारा स्विस बैंकों में छिपाकर रखे गए काले धन के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई शुरू करने की चेतावनी दिए जाने के बाद इस यूरोपीय देश ने इस मुद्दे पर सख्ती बरतने का फैसला किया है। वित्त बाजार पर्यवेक्षण प्राधिकरण के अनुसार, यह फैसला ऐसे समय लिया गया है, जब कई स्विस संस्थाओं को ग्राहकों द्वारा दी गई टैक्स संबंधी जानकारी गलत पाई गई है। वित्त बाजार पर्यवेक्षण प्राधिकरण को मनी लांड्रिंग पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी भी दी गई है।
स्विटजरलैंड इन दिनों टैक्स मामले पर भारत और कुछ अन्य देशों के साथ आपसी सहयोग बढ़ाने के प्रयास कर रहा है। कर चोरी के मामलों को लेकर कई स्विस बैंकों पर अदालतों में मामले चल रहे हैं। प्राधिकरण ने कहा कि सीमा पार से धन प्रबंधन को लेकर 2014 में अंतरराष्ट्रीय दबाव बना रहा। वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले वर्षो में भी वित्तीय क्षेत्र पर यह दबाव बना रहेगा। इसने कहा कि अमेरिका की तर्ज पर चलते हुए जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम और अर्जंेटीना ने हाई प्रोफाइल आपराधिक जांच की शुरूआत की है। साथ ही भारत और इजरायल ने आपराधिक जांच शुरू करने की धमकी दी है। नियामक संस्था स्वयं भी इन मामलों पर अपनी निगाह बनाए हुए है।