आज से एक डेढ़-दो दशक पूर्व तक हमारे घरों में एक नन्ही प्यारी चिड़िया की खूब आवाजाही हुआ करती थी। वह बच्चों की मीत थी तो महिलाओं की चिर सखी भी। उसकी चहचहाहट में संगीत के सुरों की मिठास थी और हवा की ताजगी का सुवासित झोंका भी। नित्यप्रति प्रातः उसके कलरव से लोकजीवन को सूर्योदय का संदेश मिलता और वह अपने नेत्र खोल दैनन्दिन जीवनचर्या में सक्रिय हो उठता। विद्याथियों के बस्ते खुलते और किताबें बोलने लगतीं। कोयले से पुती काठ की पाटियों में सफेद खड़िया से सजे अक्षर उभरने लगते। बैलों के गले में बंधी घंटियों की रूनझुन के साथ कंधे पर हल रखे किसानों के पग खेतों की ओर चलने को मचल पड़ते और महिलाएं गीत गाती हुई जुट जातीं द्वार-आँगन बुहारने में। और तभी आँगन में उतर आता कलरव करता चिड़ियों का झुण्ड। रसोई राँधने के लिए अनाज पछोरते समय सूप के सामने वह फुदकती रहती। सूप से गिरे चावल के दाने चुगती चिड़ियाँ लोक से प्रीति के भाव में बँधी निर्भय हो सूप में भी बैठ सहजता से अपना भाग ले जाती। इतना ही नहीं, वह रसोई में भी निर्बाध आती-जाती और पके चावल की बटलोई में बैठ करछुल में चिपका भात साधिकार ले उड़ती।
लेख/विचार
महिला किसान.. महिला सम्मान की हकदार..?
यूं तो महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाता है और बड़े बड़े आयोजन भी होते हैं उस दिन लेकिन फिर भी कहीं न कहीं लोग मूल मुद्दे से भटक जाते हैं। महिला दिवस मेरी समझ से मूल्यों, स्त्री हकों और उनके उत्थान के लिए प्रयासरत और जो आवाज उठाती हैं, जागरूकता पैदा करती हैं वो ही महिला दिवस को सार्थक करते हैं। आज एक पिछड़े तबके की ओर ध्यान ले जाना चाहूंगी जो समाज में कार्य की दृष्टि से पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहीं हैं और कहीं ज्यादा मेहनती भी हैं लेकिन उनका दर्जा दोयम है। मैं बात कर रही हूं महिला किसानों की।
महिला किसान दिवस 15 अक्टूबर को मनाया जाता है। महिला किसान दिवस जिसका उद्देश्य महिलाओं में खेती किसानी में भागीदारी को बढ़ावा देना है। मेरी नजर में महिला दिवस के दिन महिला किसान की बात ना करके उनके साथ अन्याय करना होगा। महिला किसान जो बीजारोपण, रोपाई, उर्वरक वीटा, फसल कटाई और भंडारण वगैरह में पुरुषों के साथ बराबरी में काम करती है और एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि किसान महिला खेतों में काम करने के बाद घर भी संभालती है और वहीं पुरुष अपना समय में मनोरंजन में व्यतीत करता है। पुरुषों के मुकाबले में महिला किसान ज्यादा काम करती है तो उसे भेदभाव का सामना क्यों करना पड़ता है? क्यों उन्हें किसान का दर्जा नहीं मिल पाता है? किसान की पत्नी के रूप में ही क्यों पहचानी जाती हैं? सबसे बड़ा भेदभाव उनकी मजदूरी को लेकर होता है।
वैश्विक राजनीति में भारत की बदलती भूमिका
ये वो नया भारत है जो पुराने मिथक तोड़ रहा है,
ये वो भारत है जो नई परिभाषाएं गढ़ रहा है,
ये वो भारत है जो आत्मरक्षा में जवाब दे रहा है
ये वो भारत है जिसके जवाब पर विश्व सवाल नहीं उठा रहा है ।
पुलवामा हमले के जवाब में पाक स्थित आतंकी ठिकानों पर एयर स्ट्राइक करने के बाद अब भारतीय सेना का कहना है की आतंकवाद के खिलाफ अभी ऑपरेशन पूरा नहीं हुआ है। ये नया भारत है जिसने एक कायराना हमले में अपने 44 वीर जवानों को खो देने के बाद केवल उसकी कड़ी निंदा करने के बजाए उस की प्रतिक्रिया की और आज इस नए भारत की ताकत को विश्व महसूस कर रहा है।
आज विश्व इस न्यू इंडिया को केवल महसूस ही नहीं कर रहा बल्कि स्वीकार भी कर रहा है। ये वो न्यू इंडिया है जिसने विश्व को आतंकवाद की परिभाषा बदलने के लिए मजबूर कर दिया। जो भारत अब से कुछ समय पहले तक आतंकवाद के मुद्दे पर विश्व में अलग थलग था आज पूरी दुनिया उसके साथ है। क्योंकि 2008 के मुंबई हमले के दौरान विश्व के जो देश इस साजिश में पाक का नाम लेने बच रहे थे आज पुलवामा के लिए सीधे सीधे पाक को दोषी ठहरा रहे है। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक हर देश आतंकवाद को लेकर पकिस्तान के रुख की भर्त्सना कर रहा है।
सरोजिनी नायडू का भारतीय राजनीति में अवदान प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
भारत भूमि कर्म की पुण्य धरा है। यह साहित्य, शिक्षा, संस्कृति, संगीत, कला, ज्ञान-विज्ञान की जननी है और पोषक भी। यहां जीवन के विविध क्षेत्रों में जहां पुरुषों ने विश्व-गगन में अपनी सामथ्र्य की गौरव पताका फहराई है तो महिलाओं ने भी सफलता के शिखर पर अपने पदचिह्न अंकित किए हैं। सरोजिनी नायडू भारतीय राजनीति और काव्य कानन की एक ऐसी ही महाविभूति हैं जिनके कृतित्व और व्यक्तित्व की सुवास से विश्व महमहा रहा है। जिनकी आभा से जग चमत्कृत हैं। लोक ने ‘दि नाईटिंगेल ऑफ इंडिया’ कह उनकी प्रशस्ति की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष होने का गौरव हासिल किया तो भारत के किसी राज्य की सर्वप्रथम राज्यपाल बनने का कीर्तिमान भी रचा। कविताओं में प्रेम और मृत्यु के गीत गाये तो प्रकृति के कोमल उदात्त मनोहारी चित्रों में लेखनी से इंद्रधनुषी रंग भरे। किसान-कामगारों के श्रम के प्रति निष्ठा व्यक्त की तो देशराग को क्रान्ति स्वर भी दिया। उनका जीवन प्रेरक है और अनुकरणीय भी। भारत कोकिला सरोजनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 को हैदराबाद में एक शिक्षित बंगाली परिवार में हुआ था। पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे जिन्होंने हैदराबाद में निजाम कॉलेज की स्थापना की थी। माता श्रीमती वरद सुंदरी गृहिणी थी और बांग्ला भाषा में कविताएं लिखती थीं। परिवार के शैक्षिक एवं साहित्यिक परिवेश का प्रभाव सरोजिनी के बालमन पर पड़ना ही था।
राष्ट्रीय विज्ञान दिवसः ‘रमन प्रभाव’ की खोज के स्मरण का दिन- प्रमोद दीक्षित ‘मलय’
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् एवं विज्ञान मंत्रालय द्वारा विज्ञान से लाभों, युवाओं एवं बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विज्ञान अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने तथा आमजन में जागरूकता लाने के उद्देश्य से 1986 से प्रत्येक वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। उल्लेखनीय है 28 फरवरी 1928 को ही सीवी रमन ने लोक सम्मुख अपनी विश्व प्रसिद्ध खोज ‘रमन प्रभाव’ की घोषणा की थी। ‘रमन प्रभाव’ के लिए ही 1930 में सीवी रमन को नोबेल पुरस्कार मिला था। रमन अपनी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किए जाने के प्रति पूर्ण आश्वस्त थे क्योंकि आपने 6 महीने पहले ही स्टॉकहोम जाने का टिकट बुक करा लिया था। सीवी रमन एशिया के पहले भौतिक शास्त्री थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। सात साल की साधना के फल ‘रमन प्रभाव’ पर आधारित शोध पत्र ‘नेचर’ पत्रिका में सर्वप्रथम छपा था। अमेरिकन केमिकल सोसायटी ने 1998 में ‘रमन प्रभाव’ को अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान के इतिहास की एक युगान्तकारी घटना के रूप में स्वीकार किया। राष्ट्रीय विज्ञान दिवस वास्तव में ‘रमन प्रभाव’ के समरण का दिन है। विज्ञान दिवस के अवसर पर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती है जिनमें विज्ञान विषयक निबंध लेखन, विज्ञान मॉडल निर्माण, प्रोजेक्ट वर्क, विज्ञान प्रदर्शनी, क्विज काम्पटीशन, भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न स्तर पर विद्यार्थियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं रुचि को परखा और प्रोत्साहित किया जाता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद् 1999 से थीम आधारित आयोजन करता है। 1999 में विषय था ‘हमारी बदलती धरती’। जबकि 2018 के आयोजन का थीम विषय था एक ‘सतत् भविष्य के लिए विज्ञान’। इसी कड़ी में 2019 का विषय है ‘जनमानस के लिए विज्ञान और विज्ञान के लिए जनमानस’। रमन की यह खोज आज तमाम नवीन खोजों का आधार है।
सोशल मीडिया पर बहादुरी….
पठानकोट, उरी और अब पुलवामा पर अटैक और हमारे जवानों की हत्या निस्संदेह निंदनीय है और ये एक कायरतापूर्ण हरकत है। हमारे जवानों का बलिदान बेकार नहीं जाना चाहिए। लोगों में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा जायज है। ये सही है कि पाकिस्तान को सबक सिखाना जरूरी है लेकिन लड़ाई आसान नहीं होती है। अगर युद्ध होता है तो किस स्तर पर होगा? और उसके परिणाम क्या होंगे? और उससे भी अहम सवाल कि हमारी सेना कितनी तैयार है इसके लिए? जब भी कोई युद्ध होता है हम सब का गुस्सा एकदम चरम स्थिति पर होता है और हम चाहते हैं कि तुरंत कार्यवाही हो। इसमें सिंधु जल समझौता, एमएफएन (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा, पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करना, दूतावास बंद कर देना, राजदूत की वापसी इस तरह की बातों पर जोर दिया जाता है लेकिन इन बातों पर अमल नहीं होता। हालांकि इस बार एम एफ एन का दर्जा वापस ले लिया गया है और सेना को छूट भी दे दी गई है।
बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज़ हो गया
वैलेंटाइन डे, एक ऐसा दिन जिसके बारे में कुछ सालों पहले तक हमारे देश में बहुत ही कम लोग जानते थे, आज उस दिन का इंतजार करने वाला एक अच्छा खासा वर्ग उपलब्ध है। अगर आप सोच रहे हैं कि केवल इसे चाहने वाला युवा वर्ग ही इस दिन का इंतजार विशेष रूप से करता है तो आप गलत हैं। क्योंकि इसका विरोध करने वाले बजरंग दल, हिन्दू महासभा जैसे हिन्दूवादी संगठन भी इस दिन का इंतजार उतनी ही बेसब्री से करते हैं। इसके अलावा आज के भौतिकवादी युग में जब हर मौके और हर भावना का बाज़ारीकरण हो गया हो, ऐसे दौर में गिफ्ट्स टेडी बियर चॉकलेट और फूलों का बाजार भी इस दिन का इंतजार उतनी ही व्याकुलता से करता है।
आज प्रेम आपके दिल और उसकी भावनाओं तक सीमित रहने वाला केवल आपका एक निजी मामला नहीं रह गया है। उपभोगतावाद और बाज़ारवाद के इस दौर में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही बाज़ारवाद का शिकार हो गए हैं। आज प्रेम छुप कर करने वाली चीज नहीं है, फेसबुक इंस्टाग्राम पर शेयर करने वाली चीज है। आज प्यार वो नहीं है जो निस्वार्थ होता है और बदले में कुछ नहीं चाहता बल्कि आज प्यार वो है जो त्याग नहीं अधिकार मांगता है।
ईवीएम पर बार बार सवाल क्यों ?
पिछले काफी समय से ईवीएम पर छेड़छाड़ की खबरें सामने आ रही है और चुनाव बैलेट पेपर से किए जाने पर जोर दिया जा रहा है। एक तरह से देखा जाए तो यह चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा का सवाल है कि उस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त जिस तरह से ईवीएम मशीनों की सुरक्षा व्यवस्था पर जोर देते हैं और जिस तरह से मशीनों के साथ छेड़छाड़ की खबरें आ रही हैं वह मशीनों के सुचारू रूप से कार्य करने की प्रक्रिया को संदेह के घेरे में खड़ा करती है। चुनाव आयोग का कहना है कि ईवीएम मशीन बनने के बाद इनकी विश्वसनीयता की परख की जाती है और उसके बाद ही काम में ली जाती है। हर चुनाव में 20 से 25 प्रतिशत तक अतिरिक्त मशीनें सेक्टर अधिकारी के निगरानी में रखी जाती हैं जिन्हें वह मशीनों के खराब होने पर बदल देता है। ईवीएम मशीन 1982 में कांग्रेस द्वारा लाई गई थी और तब भाजपा ने इस का पुरजोर विरोध किया था और आज हालात वही है, पर उल्टे हैं। आज कांग्रेस विरोध कर रही है और भाजपा समर्थन। तो क्या ईवीएम का विकल्प बैलेट पेपर है?
Read More »रेडियो के सुनहरे सफर के स्मरण का दिन
सुनहरी और खट्टी-मिट्ठी स्मृतियों को सहेजे रेडियो अपनी जीवन-यात्रा का शतक पूरा करने को है। पूरी दुनिया में रेडियो ने श्रोता वर्ग से जो सम्मान और प्यार हासिल किया वह अन्य किसी माध्यम को न मिला और न कभी मिल सकेगा। विविध इंद्रधनुषी कार्यक्रमों के द्वारा रेडियो ने न केवल मनोरंजन, जागरूकता और शिक्षा संस्कार के वितान को समुज्ज्वल किया बल्कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के ध्वज को भी थामे रखा। सुदूर दक्षिण के तमिल, कन्नड, मलयालम भाषी जन हों या उत्तर का कश्मीरी-डोंगरी, हिमाचली समुदाय। हरियाणवी, राजस्थानी भाषा के चित्ताकर्षक रंग हो या ब्रज, बुंदेली, बघेली और अवधी बोलियों की मधुमय मृदुल रसधार। पूर्वोत्तर की मिजो, नागा, त्रिपुरा, असम की क्षेत्रीय भाषायी समुद्धि हो या मराठी, गुजराती, पंजाबी की मधुर वाणी। सभी को रेडियो ने स्वर दिए और विस्तार एवं संरक्षण का रेशमी फलक भी। हिन्दी के राष्ट्रीय प्रसारणों को सम्पूर्ण देश ने सुना और गुना तथा सृजन के सुवासित सुमन पोषित किए। रेडियो ने जन-जन का बाहें फैलाकर स्वागत किया। भारत में तो रेडियो परिवार के सदस्य की तरह रहा और है। आज की पीढ़ी के पास भले ही इलेक्ट्रनिक गैजैट के रूप में मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के तमाम संसाधन एवं विकल्प मौजूद हों पर वह संतुष्ट नहीं है। लेकिन पूर्व पीढ़ी के पास केवल रेडियो था और आत्मीय संतुष्टि भी। रेडियो ने भी कभी निराश नहीं किया।
Read More »प्राथमिक शिक्षा में विज्ञान शिक्षण की चुनौती भरी राह
विज्ञान का अध्ययन बच्चों को तर्कशील एवं विवेकवान बनाता है। वे अवलोकन, प्रेक्षण, परिकल्पना, प्रयोग, निरीक्षण एवं निष्कर्ष के सोपानों से गुजरकर किसी तथ्य का अन्वेषण करते हुए एक सैद्धान्तिक फलक की रचना करते हैं जिसमें सच की इबारत लिखी होती है। फलतः बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टि एवं सोच विकसित होती है और वह किसी घटना के निहितार्थ को विज्ञान की कसौटी पर कस कर ही आगे बढ़ते हैं न कि आंख मूंद स्वीकार कर अंधविश्वास के गहन अंधेरे पथ पर फिसलतेे हैं। अवैज्ञानिक सोच का ही परिणाम है कि कभी गणेश मूर्तियां दूध पीने लगती है तो कभी क्रास से रक्त की धारा फूट बहने लगती है। आस्था, कर्मकाण्ड या अंधविश्वास का रास्ता विज्ञान के प्रासाद के द्वार पर आकर ठहर जाता है। विज्ञान के उपवन में अंदर वही प्रवेश कर सकता है जिसकी चेतना विज्ञानमय हो और दृष्टि एवं सोच दर्पण की मानिंद निर्मल। पर दुर्भाग्य से देश में ऐसा है नहीं। उपग्रह प्रक्षेपण के पूर्व विध्नहरण के लिए वैज्ञानिकों द्वारा किये जाने वाले हवन-पूजन के दृश्य उनके स्वयं के प्रयोग के विश्वास प्रति सवाल खड़ा करते हैं। यदि विज्ञान के शिक्षक बिल्ली के रास्ता काट जाने पर अपनी यात्रा स्थगित कर दें, सिर पर कौवा बैठ जाने को मृत्यु की सूचना समझ लें, रास्ते पर पानी से भरी बाल्टी और बछड़े को दूध पिलाती गाय मिलना शुभ और सफलता की गारंटी मान लिया जाये तो सोचना पडेगा कि वह विद्यार्थियों को कैसा विज्ञान बोध करा रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि बच्चों में इसका बीजवपन समाज एवं घर-परिवार द्वारा पहले ही कर दिया गया होता है और हमारी प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र उसके निर्मूलन की बजाय खाद-पानी दे पोषण का काम करते हैं। कालेज तक आते आते उसके अन्तर्मन में अंधविश्वास और ठकोसलों की जड़ें इतनी गहरी और पुष्ट हो जाती हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना असम्भव सा हो जाता है। रही सही कसर शिक्षकों का अतार्किक अवैज्ञानिक आचरण पूरी कर देता है।
आजादी के सत्तर सालों के बाद भी हम देश में एक वैज्ञानिक वातावरण क्यों नहीं बना पाये। क्यों हमने अपनी प्राथमिक शिक्षा को विज्ञान का दृढ़ आधार नहीं दे सके। क्यों किसी भी प्राथमिक स्कूल में विज्ञान का कोई छोटा-सा भी उपकरण बच्चों के हाथ में नहीं पहुंच पा रहा। क्यों विज्ञान को किताबांे से लिखाया और रटाया जाता रहेगा। प्रयोग के लिए जगह और अवसर कब-कहां मिलेगा। क्यों विज्ञान के शोधों में हम वैश्विक स्तर पर कहीं दिखाई नहीं देतें। कब तक हम विश्वगुरु होने का थोथा गान गाते फिरते रहेंगे। उत्तर कौन देगा, सर्वत्र मौन पसरा है। जाति, धर्म एवं भाषा के नाम पर तो आये दिन आंदोलन होते हैं पर प्राथमिक विद्यालयों में वैज्ञानिक उपकरणों एवं प्रयोगशालाओं की व्यवस्था के लिए क्यों नहीं कोई आंदोलन होता। प्राथमिक विद्यालयों से उभर रहे दृश्य निराश करतेे हैं क्योंकि उनमें विज्ञानमय जीवन की धड़कन सुनाई नहीं देती बल्कि अंधविश्वास की जड़ता का कर्कश स्वर गूंजता है।