Monday, April 29, 2024
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एनकाउंटर नहीं त्वरित न्याय कीजिये

ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह

भारत ‘रूल ऑफ लॉ’ से चलने वाला देश है, मगर हैदराबाद काण्ड के रेपिस्टों को पुलिस एनकाउंटर में मार गिराने के बाद जो हालात बने हैं, उसमें रूल ऑफ लॉ के पैरोकार जलालत के खतरों से जूझ रहे हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने जैसे मनोभाव जाहिर किए हैं, उसने कुछ समय के लिए बलात्कारियों का एनकाउंटर करने वाली पुलिस को हीरो बना दिया है। पुलिस पर जो फूल बरसें हैं, उनकी महक और ताजगी खत्म होते ही जन सामान्य के नथुनों में व्यवस्था की वही पुरानी सड़ांध भर जाएगी। वही भययुक्त महौल जहां बलात्कार के बाद पीड़िता की रिपोर्ट यही फूलों से नवाजी गई पुलिस नहीं लिखेगी। लिख गई तो अपराधी गिरफ्तार न होंगे और हो गए तो किसी पीड़िता को ट्रक से कुचलवा देंगे या उन्नाव की तरह जलाकर मार देंगे।
यह कोई नई बात नहीं है जब सड़ांध मारते तन्त्र से परेशान लोग अपराधियों का एनकाउंटर किए जाने की घटनाओं पर खुश हुए हैं। ऐसा अनेक बार हुआ है, और हालात न बदले तो ऐसा होता रहेगा। किसी अपराधी को बिना न्यायिक प्रक्रिया के ही मौत के घाट उतार देने की जो मनोवृत्ति बढ़ रही है, वह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। इस देश में पुलिस द्वारा अपराधियों को मार गिराने के ज्यादातर मामलो में पुलिस ही सवालों के घेरे में रहती है। पर जब मामला बलात्कार और हत्या का होता है तो स्वाभाविक रूप से लोगो का आक्रोश बढ़ता है। 2012 में दिल्ली में निर्भया के बलात्कार और उसकी हत्या के बाद जिस तरह से समूहिक आक्रोश का देश व्यापी प्रदर्शन हुआ था, अपराधियों को तत्काल मृत्यु दंड दिए जाने की मांग हुई थी, उससे लगा था कि देश में न्याय का तंत्र कुछ सक्रिय होगा। मगर निर्भया के अपराधियों की सजा अभी अंजाम तक नहीं पहुँच पाई। न्याय की यह लम्बी प्रतीक्षा लोगों को न सिर्फ बेचैन करती है बल्कि पूरी न्याययिक व्यवस्था पर से ही भरोसा उठाने का काम करती है। रेपिस्टों, हत्यारों को फांसी की सजा की मांग करने वाले इन्ही हालात में एनकाउंटर करने वाली पुलिस को हीरो बनाकर पेश करते हैं। तब यह सवाल पीछे छूट जाते हैं कि एन्काउंटर असली था या नकली। महिला डॉक्टर के मामले में हैदराबाद की बदनामी देश के बाहर तक पहुँची थी। ऐसे में वहाँ की पुलिस ने जिस तरह अपराधियों को उसी ठौर पर यह कहते हुए मार गिराया कि वो अपराधी भागने की कोशिश कर रहे थे, पूरी घटना से कई सवाल तो पैदा ही हुए हैं। इस एनकाउंटर की जांच शुरू हो गई है। सच जो भी हो मगर अभी आम लोगों का समर्थन पुलिस के पक्ष में है। इस मनोभाव को गहराई से समझा जाना आवश्यक है। पुलिस के पक्ष में बजती हुई यह तालियां बिल्कुल वैसी ही हैं जैसी किसी फिल्म में लड़की को छेड़ रहे शोहदों को सबक सिखाने वाले हीरो के लिए बजती हैं। यानी यह तालियां फैसला ‘आन स्पॉट’ के लिए हैं। जैसे को तैसा, हत्या का बदला हत्या। इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि जल्द ही आपको महिला डॉक्टर रेपकांड पर हॉलीवुड या साउथ सिनेमा का कोई फिल्मकार एक बेहतरीन फिल्म बनाकर दे, तब सिनेमा हॉल में भी तालियां बजेंगी। संसद के अंदर जब सिने अभिनेत्री जया बच्चन ने ऐसे बलात्कारियों के साथ ‘मॉब लिंचिंग’ किए जाने की बात कही थी- तब भी तालियां बजी थीं। याद है ‘बैंडिट क्वीन’ फिल्म की वो नायिका जिसे फूलन देवी कहते हैं। वही फूलन देवी जिसके साथ गांव के दबंगों ने बलात्कार किया और उसने लाइन में खड़ा करके सबको मौत के घाट उतार दिया था। तब भी तालियां बजी थीं, फूलन के लिए सहानुभूति भी उमड़ी थी। वो सामूहिक बलात्कार की शिकार थी पर जेल भेजी गई। जेल इसलिए भेजी गई कि भारत में कानून का राज है। उन्हीं फूलन को आम लोगों चुनकर संसद भी भेजा था। फूलन देवी के बलात्कारी तो खुद फूलन ने मार गिराए थे, महिला डॉक्टर के बलात्कारियों को हैदराबाद पुलिस ने मार गिराया है। उन्नाव की बिटिया के बलात्कारी विधायक कुलदीप सेंगर को कौन मार गिरायेगा ? यह सवाल उत्तर मांग रहा है और पूरी व्यवस्था पर सवाल भी खड़े कर रहा है। फिल्म अभिनेत्री और सांसद जया बच्चन की मानिये तो ‘मॉब लिंचिंग’ होनी चाहिये। सिर्फ जया ही नहीं, सोशल मीडिया में ऐसे-ऐसे विचार लोगों ने जाहिर किए हैं कि गोया यह भारत न हो तालिबानी मुल्क हो। यानी बलात्कार का आरोपी जब दिखे तो भीड़तंत्र लागू हो जाये। जिस इलाके में बलात्कार हो वहां तब तक पुलिस थाने बन्द कर दिए जाएं जब तक बलात्कारी को भीड़ खुद न मार दे या किसी दरोगा को रिवॉल्वर चलाने की खुली छूट दे दी जाए कि बलात्कार होते ही आरोपी के सीने में गोली मार दो? क्या एक सभ्य समाज में ऐसी बर्बरता का स्थान है? भारत के समाज, उसकी संस्कृति के मूल में दण्ड की व्यवस्था भी है, सुधार का सूत्र भी है। एक संवेदनशील समाज का अपराध के खिलाफ खड़ा होना न सिर्फ आवश्यक है, बल्कि अपराधी के खिलाफ कठोर दंड जो मृतुदण्ड भी हो सकता है, वह अपेक्षित है। यही लोकतंत्र की बुनियाद भी है। दुनिया में कहीं भी, खासतौर पर भारत में नारी के प्रति अपराध होने पर सम्वेदनाएँ ज्यादा झंकृत होती हैं। विगत दशकों में स्त्रियों के प्रति जैसे अपराध बढ़े हैं, उसने समाज को और संगठित किया, आवाजें तेजी से बुलन्द हुई हैं, यह होनी भी चाहिए। इन आवाजों को सही मायने में सुना जाना जरूरी है। आवाज और शोर का फर्क करना आवश्यक है। पूरे तन्त्र को आत्म मंथन की पहल करनी होगी। पहले निर्भया और अब महिला डॉक्टर के लिए जो आवाजें उठी हैं, उन्हें गौर से सुनिए। ये आवाजें न्याय के लिए हैं। अपराध के खिलाफ हैं। इन अवाजों में भयमुक्त समाज देने के स्वर शामिल हैं। तेज रफ्तार से न्याय किए जाने की फरियादें हैं। अपराधियों के पक्ष में हो जाने अदालतों के फैसलों के खिलाफ सुबुगाहटें हैं। तन्त्र को इन आवाजों का सम्मान करना होगा।
पुलिस पर बरसते फूलों की महक यह बता रही है कि देश की अदालतों से लोगों को सड़ांध मारती तारीखें ही मिल रहीं हैं। भारत में ‘रूल ऑफ लॉ’ यानी कानून का राज अपने होने का अहसास कराता रहे, सबको सुरक्षा और न्याय के लिए आश्वस्त करता रहे, इसके लिए सर्वोच्च न्यायालय को आत्मावलोकन करना होगा। यह वक्त की ऐसी आवश्यकता है जिसके पूरा होने में विलंब लोकतंत्र के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। अदालतों में लम्बित मुकदमों के ढेरों में न्याय की उम्मीदें सड़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट में बैठे हे ! न्याय के सर्वोच्च ‘देवताओ’ ताजे फूल आपके चरणों में चढ़ने चाहिए थे, एनकाउंटर करने वालों पर नहीं। यह फूल कहीं रूल ऑफ लॉ की श्रद्धाजंलि के प्रथम पुष्प न बन जाएं, जरूरी है कि कानून के मंदिर से त्वरित न्याय मिलना शुरू हो।
आप सोशल मीडिया के जरिये देश का मानस देख सकते हैं। पूरा का पूरा तन्त्र सवालिया घेरे में है। ऐसे में भारत की निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक न्याय की रफ्तार बढ़ना और न्याय होते हुए दिखना जरूरी है। ऐसे जतन संसद और कोर्ट को मिलकर करने चाहिए। बार बार रिपोर्ट्स बताती है कि अदालतों में मुकदमों की अधिकता और न्यायाधीशों की कमी है। मगर यह विरोधाभाष खत्म होने का नाम नहीं लेता। लम्बे समय से एक यथास्थिति बनी हुई है। इस हालत में त्वरित न्याय की कल्पना साकार होती नहीं दिखती। अदालतों में भर्ती अभियान, बैकलॉग के मुकदमों का समयबद्ध निस्तारण और पुलिस को वैज्ञानिक विवेचना के संसाधनों से लैस करने का अभियान छेड़े बिना किसी अपराधी को समय से दण्ड देना सम्भव न होगा। लाखों बलात्कारियों में से किन्ही दो चार को मार गिराए जाने पर तालियां तो बजेंगी पर कोई बेटी सड़क पर भयमुक्त होकर कहाँ चल पाएगी। अगर देश का न्यायिक तन्त्र रफ्तार न पकड़ पाया तो हर वक्त भीड़तन्त्र का खतरा बढ़ेगा जो लोकतंत्र के लिए घातक है। भारत की बेटियां सुरक्षित रहें, इसके लिए सही मायने में कानून का राज स्थापित किये जाने की ताजा कोशिशें होनी चाहिए। फास्ट ट्रैक कोर्ट्स की स्थापना के साथ देश में पुलिस सुधार के काम को आगे बढ़ाना जरूरी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस संसद के कुछ एक सदस्यों ने ‘मॉब लिंचिंग’ का स्वर बुलंद किया है, उसी संसद में दर्जनों ऐसे दागी लोग हैं जिन पर मुकदमें चल रहे हैं। हर तरह के अपराधी हैं, बलात्कार के आरोपी भी, इनमें कुछ एक जेल में भी हैं। अगर कानून का राज अपने होने का सही मायनो में अहसास कराएगा तो संसद से लेकर सड़क तक अपराधी कहीं बच न पाएगा।
(लेखक पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं)