अदृश्य विषाणु कोरोना ने पूंजीवाद की अन्धी दौड़ में बेतहाशा भाग रहे विश्व की रफ़्तार पर जिस तरह से अचानक ब्रेक लगाया है, उससे बड़े-बड़े देशों का आर्थिक ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है| विश्व का प्रत्येक विकसित और विकासशील देश अपनी आर्थिक विकास की रणनीति पर नये सिरे से विचार करने लगा है| 12 मई को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने दूरदर्शन के माध्यम से देश को सम्बोधित करते हुए 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की घोषणा की| मोदी के अनुसार इस धन के माध्यम से भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम किया जायेगा| देश को आत्मनिर्भर बनाने की बात तो आजादी के समय से ही रही है और इन तिहत्तर सालों में इसके लिए रणनीतियां भी अनगिनत बार बनायीं गयीं| परन्तु परिणाम लक्ष्य से सदैव दूर ही रहा| प्रधानमन्त्री की घोषणा के मुताबिक इस बार की रणनीति सबसे अलग होगी| पूरे भाषण में उनका जोर स्थानीय शब्द पर रहा| उन्होंने लोकल के लिए वोकल का मन्त्र देते हुए स्थानीय स्तर पर देश को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करने पर विशेष बल दिया|
स्थानीय स्तर अर्थात देश के आमजन को आत्मनिर्भर बनाने का स्वप्न गाँधी जी ने आज से तिहत्तर वर्ष पहले देखा था| लेकिन आज तक की सभी सरकारों ने उनके इस स्वप्न को प्रायः नजरअन्दाज ही किया| गाँधी जी का मानना था कि जिस गति से देश में बड़े उद्योंगो को बढ़ावा मिले उससे कहीं अधिक गति से कुटीर उद्योंगो को प्रोत्साहित किया जाये| तभी देश आत्मनिर्भर बन सकेगा| इसके लिए ही उन्होंने चरखे पर विशेष जोर दिया था| गाँधी जी की दृष्टि समाज के अन्तिम व्यक्ति पर सदैव केन्द्रित रहती थी| उनका मानना था कि यदि समाज का अन्तिम व्यक्ति आत्मनिर्भर बन जाये तो देश स्वतः आत्मनिर्भर बन जायेगा| परन्तु इन तिहत्तर सालों में बड़े और मझोले उद्योग तो बढ़े परन्तु लघु और कुटीर उद्योग मृतप्राय हो गये| जिससे आमजन के लिए स्वरोजगार के अवसर धीरे-धीरे समाप्त होते चले गये| इसका कारण यह रहा कि बड़े उद्योगपतियों ने लघु और कुटीर उद्योंगो पर भी कब्ज़ा कर लिया| ऐसे में आमजन के पास पररोजगार अर्थात नौकरी करने के अलावा दूसरा कोई चारा ही नहीं बचा| इस तरह से देश की आर्थिक प्रगति महज कुछ पूंजीपतियों के हाथों में सीमित हो गयी| आज स्थिति यह है कि छोटे से लेकर बड़े उद्योग-व्यापार पर देश के चन्द पूंजीपतियों का कब्जा है और आम आदमी के सामने उनके यहाँ नौकरी करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है| इस संस्कृति से गांवों का अस्तित्व समाप्त होने की कगार पर पहुँच गया| क्योंकि गांवों की अधिकांश आबादी नौकरी के लिए शहरों की तरफ निर्बाध रूप से भाग रही थी| लॉकडाउन के चलते भुखमरी के शिकार हो रहे लाखों प्रवासी मजदूरों में अधिकांशतया गावों के ही रहने वाले हैं| सैकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा करके अपने गाँव लौटने के लिए विवश ये मजदूर सिर्फ रोजगार के लिए ही अपना गाँव छोड़कर शहर गये थे| दर्जनों मजदूरों ने तो मार्ग की थकावट और भूख प्यास से रास्ते में ही तोड़ दी| यदि इन लोगों को गाँव में समुचित रोजगार मिला होता है तो शायद आज उनकी यह हालत न हुई होती| घर लौटे अधिकांश मजदूर अपने मालिकों, मकान मालिकों और सरकार की बेरुखी के चलते लॉकडाउन खुलने के बाद शहर वापस जाने के लिए तैयार नहीं हैं| ऐसे में मजदूरों के अभाव में बड़े उद्योगों को पुनः चालू करना भी एक बड़ी समस्या होगी| यदि गांवों में लघु और कुटीर उद्योगों का समुचित विकास किया गया होता तो आज देश का आर्थिक ढांचा इस तरह से न चरमराया होता और न ही इतनी बड़ी जनसंख्या को पैदल यात्रा करके अपने जीवन को दांव पर लगाने के लिए विवश होना पड़ता|
शहरों में मॉल-संस्कृति के लगातार पैर पसारने से यहाँ भी स्वरोजगार के अवसर धीरे-धीरे समाप्त हो गये| बड़े-बड़े औद्योगिक घराने सब्जी से लेकर जहाज तक के व्यापार पर एकाधिकार करना चाहते हैं| स्थिति यह बनी कि समाज का एक बड़ा वर्ग सब्जीमंडी जाकर या ठेले वालों से सब्जी लेना अपनी शान के खिलाफ समझने लगा था| वह तो भला हो कोरोना का जिसने एक बार फिर स्थानीय दुकानदारों की अहमियत बढ़ा दी|
प्रधानमन्त्री ने देश की आर्थिक प्रगति के 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा करते हुए जो संकेत दिये हैं उनसे यह लगता है कि इस रकम का एक बड़ा भाग स्थानीय स्तर पर ही खर्च होने वाला है| इसकी रूपरेखा क्या और कैसी होगी इसकी जानकारी वित्तमन्त्री को देना है| सरकर स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार के अवसर यदि वास्तव में पैदा करने के लिए कृतसंकल्पित है तो सबसे पहले उसे व्यापार का बंटवारा करना पड़ेगा| बड़े उद्योगपति सिर्फ बड़ा व्यापार ही करें| छोटे व्यापार करने की अनुमति उन्हें न दी जाये| अर्थात जहाज और रेलगाड़ी बनाने वाले सिर्फ जहाज और रेलगाड़ी ही बनायें, सब्जी न बेंचे| सब्जी बेंचने का काम छोटी पूँजी वाले को ही करने दिया जाये| क्योंकि ठेले पर सब्जी बेचने वाला मॉल वाले सब्जी विक्रेता से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है| बड़े उद्योगों को लघु और कुटीर उद्योगों पर निर्भर बनाने की भी महती आवश्यकता है| सूत यदि चरखे से काता जा सकता है तो धागा बनाने के लिए बड़ा उद्योग लगाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए| लघु और कुटीर उद्योगों को शहरों के साथ-साथ गांवों में भी विकसित करने की आवश्यकता है| गांवों में यदि स्वरोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे तो लोगों का शहरों की ओर पलायन भी रुकेगा| साथ ही देश का आमजन आर्थिक रूप सशक्त बनेगा| तभी हम भविष्य में ऐसी किसी भी आपदा से लड़ने में सक्षम बन पायेंगे| क्योंकि आपदा तो सिर्फ आपदा है, मनुष्य को उससे लड़ना ही पड़ेगा| बस समझना यह है कि किसी भी आपदा से लम्बे समय तक लड़कर हम स्वयं को कितना और कब तक सुरक्षित रख सकते हैं| -डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)