Friday, May 17, 2024
Breaking News
Home » लेख/विचार » लोक कला के संवाहकों के जीवन की अनिश्चतता

लोक कला के संवाहकों के जीवन की अनिश्चतता

लोक कला ही जिनके जीवन का आधार एवं रोजगार है, कोविड-19 के चलते उनका जीवन आज अनिश्चतताओं से भर गया है| आधुनिक परिवेश में सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई कार्य कर रहा है तो वह लोक कलाकार ही हैं| भौतिक प्रगति की अन्धी दौड़ में भागते समाज के वर्तमान स्वरुप को ध्यान में रखते हुए यदि लोक कलाओं को समाज से हटाकर विचार किया जाये तो हम देखेंगे कि समाज में ऐसा कुछ भी नहीं बचता है, जिसे हम अपना कह सकें| कहते हैं कि शिक्षा संस्कार देती है, पर क्या आधुनिक शिक्षा, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों का कहीं कोई स्थान ही नहीं है? वर्तमान शिक्षा व्यक्ति को यन्त्र तो बना सकती है| परन्तु मनुष्य कभी नहीं बना सकती है| ऐसे में मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा, जिसमें त्याग, बलिदान और अनुशासन के आदर्श निहित हैं, यदि कहीं संरक्षित है तो वह मात्र लोक कलाओं में ही है| इस तरह से वर्तमान परिवेश में लोक कलाएं ही भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की सच्ची संवाहक हैं और लोक कलाकार उन लोक कलाओं के| समाज का सामान्य परन्तु एक बड़ा वर्ग इन कलाओं का सम्मान करते हुए, लोक कलाकारों को प्रस्तुति के अवसर देकर सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण करने का प्रयास करता है| क्योंकि समाज का सामान्य वर्ग जहाँ एक ओर न चाहते हुए भी भौतिक प्रगति की दौड़ में भाग रहा है वहीँ स्वयं को नैतिक मूल्यों से जोड़े भी रखना चाहता है| क्योंकि वह यह अच्छी तरह से जानता है कि नैतिक मूल्यों के अभाव में समाज और परिवार नाम की संस्था का अस्तित्व बहुत लम्बे समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता है| समाज के इसी वर्ग के माध्यम से लोक कलाएं संरक्षित हैं और लोक कलकारों की कला धर्मिता तथा उनके परिवार का पोषण हो रहा है| लेकिन वैश्विक महामारी कोविड-19 के बढ़ते प्रकोप के कारण शारीरिक दूरी की प्रतिबद्धता ने लोक कलाओं के प्रदर्शन पर अचानक विराम लगा दिया है| ऐसे में लोक कलाकारों के सामने उनकी कला धर्मिता के पालन में बाधा तो आयी ही, उनके परिवार के भरण-पोषण का मार्ग भी बन्द हो गया है|
भारत के विभिन्न लोकनाट्य यथा रामलीला, रासलीला, नौटंकी, ढोला, चौबोला, स्वांग, नाचा, जात्रा, तमाशा, ख्याल, रम्मान, यक्षगान, दशावतार, करियाला, ओट्टन थुलाल, तेरुक्कुट्टू, भाम कलापम, लोकगायन, वादन, जवाबी कीर्तन, लोकनृत्य, कठपुतली नृत्य, तथा चित्रकारी आदि से जुड़े लाखों कलाकार आज रोजी-रोटी की समस्या से ग्रसित हैं| उन लोक कलाकारों को यदि छोड़ दें, जिन्होंने किसी तरह से अपनी पहचान राष्ट्रिय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बना ली है तो शेष सभी कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन के बदले मात्र इतना ही मिलता है जिससे जैसे-तैसे वे अपना गुजारा ही कर पाते हैं| इन कलाकारों में भी कोटियाँ हैं| कुछ बहुत अच्छे होते हैं तो कुछ कम अच्छे होते हैं| जो बहुत अच्छे होते हैं, उनके कार्यक्रमों की संख्या कुछ अधिक रहती है और उन्हें अपनी कला की सम्मान राशि भी थोड़ी अधिक मिल जाती है| परन्तु इतनी नहीं कि वह बिना कोई कार्यक्रम किये लम्बे समय तक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें| देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों से लेकर बड़े शहरों तक में निवास करने वाले इन कलाकारों की कला का सारा दारोमदार लोक कला के कद्रदानों पर होता है| खुले आसमान के नीचे, गावों में, शहर-कस्बों की गल्ली-मुहल्लों में समाज को जोड़कर अपनी कला से लोगों को मन्त्रमुग्ध कर वाहवाही लूटकर प्रसन्न होना और आयोजकों से प्राप्त एक से डेढ़ हजार रुपये से परिवार का पोषण करना ही इन लोक कलाकारों की जीवन-प्रक्रिया बन जाती है| यह भी सत्य है कि हर कलाकार को प्रतिदिन कार्यक्रम नहीं मिलते हैं| परन्तु वर्ष के कम से कम आठ महीने ऐसे होते हैं जब उन्हें हर माह पन्द्रह से बीस कार्यक्रम तो मिल ही जाते हैं| बरसात के दिनों में यह संख्या लगभग न के बराबर होती है| अतः सभी कलाकार पूरे वर्ष का गणित लगाकर चलते हैं| प्रायः बरसात के बाद नवरात्रि में ही रामलीला आदि के कार्यक्रम प्रारम्भ होते हैं| रासलीला के कार्यक्रम कृष्ण जन्माष्टमी से प्रारम्भ हो जाते हैं| इन कार्यक्रमों से प्राप्त धनराशि प्रायः उस उधार को पटाने में खर्च हो जाती है जो बरसात के अन्तिम चरण में लेना पड़ता है| इसके बाद अगले तीन-चार महीने की आमदनी घर-गृहस्थी के बड़े खर्चों में लग जाती है| मार्च से लेकर मई तक के कार्यक्रमों से प्राप्त आमदनी से जहाँ वर्तमान के खर्चे चलते हैं, वहीँ कुछ धनराशि बरसात के लिए बचा कर रखने का प्रयास होता है|
कोविड-19 के चलते मार्च के तीसरे सप्ताह से सामाजिक दूरी की अनिवार्यता लागू होते ही आगे के सभी पूर्व निश्चित कार्यक्रम निरस्त हो गये| इस बीच नवरात्रि भी पड़ गयी| जिसमें प्रतिदिन थोड़ा ज्यादा पैसे वाले कार्यक्रम मिल जाते हैं, वे सब भी लॉकडाउन की भेंट चढ़ गये| जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, आगे के कार्यक्रम निरस्त होते गये| अब जब अनलॉक-1 लागू हुआ है तो भी इस तरह के कार्यक्रमों की न तो अनुमति है और न ही महामारी की गम्भीरता को देखते हुए यह उचित भी है| जिस गति से देश में कोविड-19 के मरीज बढ़ रहे हैं और इसकी दवा का अभी तक कहीं कोई पता नहीं है, उससे अश्विन नवरात्रि तक के कार्यक्रम भी होते हुए नहीं दिखायी दे रहे हैं| ऐसे में पूर्ण व्यावसायिक लोक कलाकारों के सामने परिवार के भरण-पोषण का गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है| इस स्थिति में आखिर कौन और कैसे इनकी सम्मानजनक ढंग से सहायता करेगा? विषय की गम्भीरता को देखते हुए देश और प्रदेश की सरकारों को संयुक्त रूप से इस दिशा में शीघ्र और प्रभावी कदम उठाने चाहिए| अन्यथा प्रवासी मजदूरों की तरह लोक कलकारों की समस्या भी भयावह रूप ले सकती है|
डॉ. दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार एवं रामलीला कलाकार)