सुना है हिसाब के पक्के हो…
चलो कुछ लम्हों का हिसाब कर लें…
वो लम्हें जिनमें मैं सजती संवरती और बिखरती थी…
जहाँ मैं आनंदित होती थी…
जहाँ सपने थे बेहिसाब और बातें थी अनगिनत..
जहाँ ख्याल था तेरा, तमन्नाएं थी जिंदा..
बेकरारी थी तुमसे मिलने की…
जहाँ खुशियां मुस्कुराती थीं..
मुझे वापस लौटा दो…वो गुजरे लम्हें..
और ले जाओ वो पल…
जहाँ तुम्हारी अधूरी बातें थीं…
कुछ ख्वाब पलते थे…
इक आदत मेरी मौजूदगी की…
इक प्रेम तुम्हारा था…
इस हिसाब किताब की गुत्थी…
सुलझा जाओ…
प्रियंका वरमा माहेश्वरी, गुजरात