पात्र लाभार्थी भ्रष्ट अधिकारियों की मानसिकता के बनते मजाक- नहीं होती ग्राम समितियों की बैठक
मौदहा/हमीरपुर, जन सामना। देश की तमाम राजनैतिक पार्टियां जब सत्ता में आ जाती है तो केन्द्र से लेकर तमाम प्रदेशों तक अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने की मानसिक के चलते दबाव बनाकर प्रदेश की सरकारें बदल देती है जो लोकतन्त्र का मजाक है। गांव के जिस देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी ने सत्ता के विकेन्द्रकरण का नारा देते हुये गांव की सरकार के रूप में प्रधान व ग्राम सदस्यों के चुनाव शुरू कराये थे। हालांकि इससे पूर्व भी ग्राम पंचायत व जिला पंचायत अध्यक्ष हुआ करते थे किन्तु चुनाव में ही ऐसे ही सत्ताधारी पार्टी अधिकारियों को आदेश देकर गांव की सरकार बनवा देते है। ग्रामीण सरकार के रूप में प्रधान व ग्राम सदस्यों सहित बीडीसी सदस्य, जिला पंचायत सदस्य आदि के चुनाव विकेन्द्रीकरण का नारा देकर स्व प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने शुरू कराये थे। ग्रामीणो को ग्राम सभा का प्रधान चुनने का अधिकार दिये जाने और ग्रामीण विकास का अधिकार व रखरखाव के लिये बजट भी दिया। ताकि स्वम अपने गांव के विकास के लिये किसी नेता मन्त्री की ओर मुहं ताकना न पडे व स्वयं ही अपने गांव का विकास करे। सरकारें आती जाती रही और उसमे कई प्रकार के संसोधन भी सरकारों ने अपने हित के हिसाब किये व इसे तोडा मरोडा और इस व्यवस्था को अपना वर्चस्व कायम कराने के लिये चुनाव मे दबाव बनाकर अपनी पार्टी के नेता को ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत के रूप मे बैठाते रहे। सरकारे बदली तो अर्थ दण्ड साम दाम भेद से हर कीमत में लोकतन्त्र की ऐसी तैसी करके जबरिया अध्यक्ष बैठाने का सिलसिला भी शुरू हो गया मतलब जनता के द्वारा चुना हुआ तो है| लेकिन उसकी परवाह न करते हुये सत्ताधारी पार्टी को चन्दे के रूप मे ब्लैंक चेक देकर कुर्सी हथियाने का खेल भी जारी है तो अब उसी आधार पर अपनी कमाई भी करेगा। सत्ता की हनक के चलते ग्राम विकास के कामो मे कमीशनखोरी का दीमक भी लम्बे समय से लगा है। अब भूमिका ग्राम सदस्य या क्षेत्र पंचायत के चुनाव की, जिसमें सबसे अधिक निरीह बेचारा प्राणी ग्राम सदस्य है जिसको नियम कानून के तहत अधिकार तो बहुत दिये गये। लेकिन क्या वह गांव के दबंग प्रधान व भ्रष्ट सचिव या पूरा ग्रामीण विकास का ठेका सभाले इस विभाग के अधिकारियो के सामने अपने अधिकार के क्रियान्वन के लिये अपने ही वार्ड की आवाज उठाने हेतू खुली मीटिंग मे कभी बुलाये ही नही जाते। जिससे सदस्य किसी ग्राम सभा के विकास के प्रयास का हिस्सा नही बन पाता जिसका वह अधिकारी है। चाहे वह चुनाव लडकर आया हो या निर्विरोध जीत गया हो। कुल मिलाकर पंचायत सदस्य की भूमिका नगण्य होकर प्रजातन्त्र का मजाक बन जाता है तो अधिकांश लोगो का विश्वास भी इस चुनाव से उठता जा रहा है और चुनाव जीते हुये प्रधान का खाता संचालन तब तक नही हो सकता जब तक पूरे सदस्य न चुने जाये जिसपर प्रधान अपने जेबी लोगों की लिस्ट देकर निर्विरोध चुनाव जिता लेते है और विकास के नाम पर पाच वर्ष का समय गुजरने के बाद भी गांव कि गलियां दलदल व कीचड़ सुसज्जित है। कुछ इसी तरह क्षेत्र पंचायत सदस्य भी ब्लाक प्रमुख के चुनाव मे किसी सत्ताधारी से टिकट लेकर धनबल, छलबल, बाहुबल के दम पर ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर आसीन हो जाते है। हालाकि हालफिलहाल योगी सरकार में उनके बजट के अधिकार को उनसे छीन लिया है और वह केवल बेगार का तमगा लिये घूम रहे है। अब आगे आने वाली सरकार इनके प्रति कौन सा नियम लायेगी यह भविष्य के गर्त में है।