Saturday, June 29, 2024
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मजाक बनता सूचना का अधिकार

समाजसेवी अन्ना हजारे के आमरण अनशन के बाद 12 अक्टूबर 2005 को जब सूचना का अधिकार अधिनियम लागू हुआ तब लगा था कि अब लोकतन्त्र सार्थक होगा। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, शासन-प्रशासन के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप पारदर्शी हो जायेंगे, देश का आम जन सशक्त बनेगा और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में नागरिकों की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित होगी। क्योंकि यह अधिनियम जनता के प्रति सरकारी तन्त्र की जवाबदेही सुनश्चित करता है तथा देश के आमजन को शासन-प्रशासन के कामकाज को जानने और समझने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन देश का आमजन इस अधिकार का कितना और किस हद तक उपयोग कर पा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है। केन्द्रीय और राज्य सूचना आयोग के पास प्रतिदिन पहुँचने वाली सैकड़ों शिकायतें इस बात का प्रमाण हैं कि शासन-प्रशासन के लोग सूचना अधिकार के प्रति कितने गम्भीर हैं। सूचना के नाम पर प्रायः गोलमोल जवाब देकर मामले को टालने का ही प्रयास किया जाता है। आयोग के पास शिकायतों की संख्या इतनी अधिक होती है कि किसी भी शिकायत के निस्तारण में महीनों का समय लग जाता है। कई मामलों में तो आयोग के आदेश तक बेअसर दिखायी देते हैं। वही अनेक में सूचनार्थी भाग-दौड़ में व्यय होने वाले धन तथा समय की कमी के कारण आयोग तक जाते ही नहीं हैं। कई सूचनार्थियों को तो सूचना मांगने की कीमत अपने प्राण देकर चुकानी पड़ी है।
वैश्विक स्तर पर सूचना के अधिकार को महत्ता तब मिली जब सन 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा युनिवर्सल डिक्लरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स को अपनाया गया। इसके माध्यम से सभी को मीडिया या अन्य किसी माध्यम से सूचना मांगने एवं प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन के शब्दों में “सूचना लोकतन्त्र की मुद्रा होती है एवं किसी जीवन्त सभ्य समाज के उद्भव और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।” स्वीडन विश्व का पहला देश है जिसने सबसे पहले सन 1766 में सूचना का अधिकार कानून लागू किया था। इसीलिए स्वीडन को इस कानून का जनक कहा जाता है।
भारतीय संविधान देश के नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार तो देता है परन्तु पारदर्शिता के अभाव में यह अधिकार अधूरा और महत्वहीन है। सूचना का अधिकार अधिनियम अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को पूर्ण बनाने का एक प्रयास है। अंग्रेजी सरकार ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 बनाकर किसी भी सूचना को गोपनीय रखने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। 26 जनवरी 1950 को जो संविधान लागू हुआ, उसमें शासकीय गोपनीयता अधिनिम 1923 को बिना किसी संशोधन के जोड़ लिया गया। इसके बाद आने वाली सभी सरकारें इस अधिनियम की आड़ में जनता से सूचनाओं को छुपाती रहीं। सूचना अधिकार को लेकर सन 1975 में उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राज नारायण के मामले की सुनवायी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में लोक प्राधिकारियों द्वारा सार्वजानिक कार्यों का ब्यौरा जनता को प्रदान करने की व्यवस्था दी थी। उसके बाद भी हमारी सरकारें सूचना का अधिकार कानून को लागू करने से बचती रहीं। सन 1990 में इसको लेकर राजस्थान में अरुणा राय के नेतृत्व में बड़ा आन्दोलन भी हुआ। परन्तु परिणाम सिफर ही रहा। सन 1997 में अन्ना हजारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुम्बई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरू किया था। उसके बाद देश के सात राज्यों तमिलनाडु और गोवा ने 1997 में, कर्नाटक ने 2000 में, दिल्ली ने 2001 में, असम, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान ने 2002 में अपने-अपने स्तर पर सूचना का अधिकार कानून बनाकर लागू कर लिया। 9 अगस्त 2003 को मुम्बई के आजाद मैदान में ही अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गये। 12 दिन तक चले अन्ना के आमरण अनशन को देशव्यापी समर्थन मिला और अन्ततोगत्वा 2003 में ही महारष्ट्र सरकार को भी यह विधेयक पारित करना पड़ा। उसके बाद जम्मू-कश्मीर ने भी 2004 में यह कानून लागू कर लिया। इस सफलता के बाद अन्ना हजारे का आन्दोलन राष्ट्रिय स्तर पर मुखर हुआ और केन्द्र की यूपीए सरकार को भी 12 अक्टूबर 2005 को इस कानून को पारित करके लागू करना पड़ा। जनता के हाँथ लगे इस प्रबल हथियार की धार को कुंद करने का एक प्रयास अगस्त 2006 में संशोधन प्रस्ताव लाकर किया गया। परन्तु इस प्रस्ताव के खिलाफ अन्ना हजारे द्वारा किये गये 11 दिवसीय आमरण अनशन के बाद सरकार को अपने पैर वापस खींचने पड़े। परन्तु जुलाई-2019 में राजग सरकार ने इस कानून में संशोधन करके सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तो को तय करने का अधिकार स्वयं लेते हुए परोक्ष रूप से सूचना आयुक्तों को सरकार की कठपुतली बनाने का काम किया है।
सूचना अधिकार के प्रावधानों के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने हेतु अनुरोध कर सकता है। यह सूचना 30 दिनों के अन्दर उपलब्ध करायी जाने की व्यवस्था है। यदि मांगी गयी सूचना जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से सम्बन्धित है तो ऐसी सूचना 48 घण्टे के अन्दर उपलब्ध कराने का प्रावधान है। यदि कोई लोक सूचना अधिकारी किसी युक्तियुक्त कारण के बिना सूचना के लिए आवेदन लेने से इंकार कर देता है या मांगी गयी सूचना नहीं देता है, बिलम्ब से देता है। अथवा सन्तोषजनक सूचना नही देता है तो उसे जब तक सूचना दी जाती है, उस दिन तक दो सौ पचास रुपया प्रतिदिन के हिसाब से परन्तु अधिकतम पच्चीस हजार रुपये तक का अर्थदण्ड तथा उसके विरुद्ध अनुशासनिक कार्रवाई की सिफारिश करने का अधिकार सूचना आयुक्त को प्राप्त है। इसके लिए सूचनार्थी को 30 दिन की अवधि में सूचना न मिलने या दी गयी सूचना से असन्तुष्ट होने की स्थति में एक माह के अन्दर प्रथम अपील करनी होती है। उसके बाद भी यदि सूचनार्थी असन्तुष्ट रहता है तो उसे 90 दिन के अन्दर राज्य या केन्द्रीय आयोग (विभाग का सम्बन्ध जिससे भी है) के समक्ष दूसरी अपील करनी होती है। तब जन सूचना अधिकारी को सूचना आयुक्त के समक्ष प्रस्तुत होकर अपना पक्ष रखना होता है। इस मौके पर उपस्थित रहने के लिए सूचनार्थी को भी आमन्त्रित किया जाता है। कई बार अदालत की तरह यहाँ भी अगली तारीख मिल जाती है। सरकारी नुमाइन्दों की तरह काम करने वाले सूचना आयुक्त अक्सर सरकारी अधिकारियों को बचाने का ही प्रयास करते हैं। बहुत कम ही ऐसा होता है जब किसी अधिकारी पर दण्डात्मक कार्रवाई होती हो। बस सही सूचना दिलाकर किसी तरह से सूचनार्थी को सन्तुष्ट करने का प्रयास होता है। सूचना आयुक्तों की इस अवधारणा से परिचित अधिकारी सूचनार्थी को प्रायः गोलमोल सूचना उपलब्ध कराते हैं। उसके बाद जब मामला आयोग में पहुँचता है तो आराम से छुट्टी लेकर सरकारी खर्चे पर आयोग के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। जबकि सूचनार्थी को अपने खर्चे पर आयोग के सामने उपस्थित होना पड़ता है। वहाँ पहुँचने पर उक्त अधिकारी सूचनार्थी से व्यक्तिगत तौर पर मिलकर यह कहते हुए अपील वापस लेने का दबाव बनाता है कि आप बेकार में परेशान हो यहाँ कुछ भी नहीं होगा। हमारा क्या है, हम तो नौकरी पर हैं। विभाग चाहे ऑफिस में बुला ले चाहे यहाँ भेज दे, तनख्वाह पूरी मिलनी है। टीए, डीए अलग से मिलता है। हम रोज भी आ सकते हैं। इसी बहाने चार काम और भी निपट जाते हैं। सोचना आप को है कि आप अपना पैसा खर्च करके आओगे और अपने काम का भी नुकसान करोगे। ऐसी अनेक बातें प्रायः सूचनार्थियों को हतोत्साहित ही करती हैं। कोई भी कानून कितना भी प्रभावी क्यों न हो परन्तु यदि उसका क्रियान्वयन प्रभावी ढंग से नहीं होता है तो उसके होने न होने का कोई मतलब नहीं है। सूचना का अधिकार कानून स्वयं में बहुत प्रभावी है। परन्तु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इस कानून का प्रभावी क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। उलटे राजनेता और नौकरशाह इस कानून को समाप्त करने की मांग उठाते रहते हैं। हर सरकार इसमें कोई न कोई संशोधन करने की फ़िराक में रहती है। पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने इस कानून के दायरे को कम करने और गोपनीयता बढ़ाने की वकालत की थी। जबकि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने तो एक कार्यक्रम में यह तक कहा कि आरटीआई किसी को खाने के लिए नहीं देता है। ऐसे बयानों से देश की राजनीतिक इच्छा शक्ति का अन्दाजा स्वतः लग जाता है। जिससे यह कानून धीरे-धीरे मजाक बनता जा रहा है और भ्रष्टाचार का ग्राफ नित निरन्तर बढ़ता जा रहा है।
– डॉ. दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)