ट्रेक्टर की ट्राली पर प्रायः लिखा होता है ‘कृषि कार्य हेतु’| परन्तु 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर ट्रेक्टर का एक और हेतु भी देखने को मिला| ट्रेक्टर सिर्फ खेत की जुताई और अनाज की ढुलायी के ही काम नहीं आता, बल्कि उससे कानून की दीवारें ढहाकर, कानून के रखवालों को रौंदा भी जा सकता है| गणतन्त्र दिवस की परेड में, जिस समय दिल्ली के आसमान पर राफेल और जगुआर जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमान अपनी शक्ति का प्रदर्शन करके, दुश्मन देशों को हद में रहने की चेतावनी दे रहे थे| राजपथ पर दौड़ती पिनाक मिसाइल देशवासियों का आत्मविश्वास बढ़ा रही थी| ठीक उसी समय, दिल्ली की सड़कों पर अन्नदाता के ट्रेक्टर वैरियर तोड़कर पुलिस के जवानों को कुचलने के लिए सरपट दौड़ रहे थे| ऐसा लग रहा था मानो वह सड़क पर चलने नहीं वरन खेत जोतने निकले हों| ट्रेक्टर की इसी करतबबाजी में एक ट्रेक्टर पलट गया और उसके चालक के प्राण किसान आन्दोलन की भेंट चढ़ गये| कारनामे तो इससे भी आगे हुए| जब उग्र किसानों ने न केवल दिल्ली के लाल किले पर कब्जा कर लिया, बल्कि जिस पोल पर बीते 73 साल से भारत की आन बान शान कहा जाने वाला तिरंगा फहरा कर स्वतन्त्रता का जश्न मनाया जाता है| वह भी देश के प्रधानमन्त्री के द्वारा| उस पोल पर निशान साहिब का झण्डा लगा कर तिरंगे की शान में गुस्ताखी की एक नयी इबारत भी लिख दी गयी| झण्डा फहराने के बाद गुरु गोविन्द सिंह के अनुयायी की हरकत देख कर लग रहा था, मानो बजरंगबली के वंशज ने विश्व पर विजय प्राप्त कर ली हो| निशान साहिब का झण्डा अकेला नहीं था| उसके साथ एक और झण्डा भी विजयी विश्व तिरंगा प्यारा के सम्मान को चुनौती दे रहा था| इस बीच लाल झण्डे ने भी दोनों झण्डो के साथ गलबहियां करने का प्रयास किया| लेकिन तब तक शायद खाकी का जमीर जाग चुका था और लाल झण्डा अपनी हसरत पूरी करने से रह गया| जिस तिरंगे के नीचे खड़े होकर खाकीधारी जवान देश के लिए मर मिटने की सौगन्ध लेते हैं| वही खाकीधारी उसी तिरंगे की अस्मिता को तार-तार होते देख रहे थे| आखिर देखे भी क्यों न, खाकी ने संयम की चूड़ियाँ जो पहन रखी थीं| बात की बात पर निर्दोषों को पीट-पीट कर मरणासन्न करने वाली पुलिस का यह नया सयंमी अवतार देखकर देश को गर्व होना चाहिए| जिस पुलिस की छवि बदलने के अनगिनत प्रयास विफल हो चुके हों, देश के अन्नदाता का उग्र रूप देखकर वह अचानक अहिंसा की पुजारी बन गयी| वह भी तब, जब देश के खुपिया तन्त्र ने ट्रेक्टर परेड को लेकर हिंसा की आशंका पहले से ही व्यक्त कर दी थी और इसके तार पाकिस्तान से जुड़े होने की बात भी कही थी|
गणतन्त्र दिवस के मौके पर बात तो ट्रेक्टर परेड की हुई थी| परन्तु साथ में घोड़े भी दौड़ते नजर आये| उन घोड़ों पर सवार योद्धा कुछ इस तरह तलवारें लहरा रहे थे, मानो महाराणा प्रताप के वंशज दिल्ली फतह करने निकले हों| बात तो शान्तिपूर्ण परेड की भी हुई थी, तर्क दिया गया था कि गणतन्त्र दिवस के मौके पर, जिस तरह से देश के जवान राजपथ पर परेड करते हैं, वैसे ही देश के किसान भी शान्तिपूर्ण ढंग से दिल्ली में परेड करके, ‘जय जवान जय किसान’ के नारे को सार्थक करेंगे| परन्तु इसकी परिणिति किस रूप में हुई| यह देश और दुनिया ने आँखे फाड़-फाड़ कर देखा| इस घटना की तुलना 6 जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए हिंसक भीड़ के हमले से भी की जा रही है| जिसकी भर्त्सना पूरे विश्व ने की थी|
सन 2021 का गणतन्त्र दिवस एक ओर जहाँ राफेल के पहले पराक्रमी प्रदर्शन के लिए जाना जायेगा, वहीँ लाल किले की शर्मनाक घटना के लिए इतिहास के काले पन्नों में भी दर्ज होगा| इस बार राजपथ पर एक और विशेष झांकी के दर्शन हुए| वह थी बहु प्रतीक्षित श्रीराम-मन्दिर के मॉडल की झांकी| वह राम जिनकी गौरव गाथा का पूरा विश्व कायल है, वह राम जिनके जीवन का प्रमुख उद्देश्य देश के अन्तिम व्यक्ति को गले लगाकर, उसे सम्मान और न्याय दिलाना रहा हो| उन्हीं राम के देश में अन्तिम व्यक्ति की अराजकता का खुला ताण्डव भी देखने को मिला|
अब प्रश्न उठता है कि आखिर चूक कहाँ हुई? एक दिन पहले तक किसान नेता पूरे आत्मविश्वास के साथ दावा कर रहे थे कि उनका ट्रेक्टर मार्च पूरी तरह से शान्तिपूर्ण होगा| उनके तीन हजार वालंटियर्स ट्रेक्टर रेली को दिशा देंगे और बांकी के लोग भी चौकस रहेंगे| किसी भी ट्रेक्टर पर ज्यादा लोग नहीं होंगे और किसी के पास डंडा तक नहीं होगा| तब फिर सब कुछ उल्टा-पुल्टा कैसे हो गया? ट्रेक्टर मार्च आखिर किसान नेताओं के नियन्त्रण से बाहर कैसे हो गया? क्या दो महीने से शान्तिपूर्ण आन्दोलन कर रहे किसानों का धर्य जवाब दे चुका था, जिसकी परिणिति हिंसक उपद्रव के रूप में हुई? अथवा क्या किसान नेताओं के दावों के अनुसार इस भीड़ में वास्तव में अराजक तत्व घुस आये थे? अथवा दो महीने से शान्तिपूर्ण आन्दोलन कर रहे किसान किसी साजिश में फंसकर वह कर बैठे, जो उन्हें कतई नहीं करना चाहिए था? क्या जान-बूझ कर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की गयीं, जिससे किसानों को उग्र होने के लिए विवश होना पड़ा? कहीं उन आरोपों को सत्य साबित करने के लिए यह व्यूह तो नहीं रचा गया था, जिनमें आन्दोलनकारी किसानों को, उग्रवादी, खालिस्तानी, तथा चीन और पाकिस्तान के इशारे पर आन्दोलन करने वाला कहा जा रहा था? लाल किले पर तिरंगे की जगह निशान साहिब का झण्डा फहराने का मौका प्रदर्शनकारियों को क्या जान-बूझ कर दिया गया? ताकि बाद में इसी आरोप में किसानो के आन्दोलन को छितराया जा सके और अब होगा भी यही| कल तक देश का जो आम आदमी किसानों के साथ खड़ा दिखायी दे रहा था, लाल किले की घटना के बाद वह भी अब उनसे मुंह बिदका रहा है| इससे तो यही सिद्ध होता है कि कल तक सही दिशा में जा रहा किसान अन्दोलन, 26 जनवरी को अचानक दिशाविहीन हो गया| जिससे भविष्य में किसान हित की सारी सम्भावनाओं पर पूर्ण विराम भले ही न लगा हो परन्तु अल्प विराम तो लग ही गया है|
डॉ. दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)