Saturday, June 29, 2024
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भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए कार्यपालिका, न्यायपालिका सहित हर नागरिक का योगदान जरूरी – एड किशन भावनानी

संभावित दृष्टिकोण और केवल करेंसी नोटों की बरामदगी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध कायम करने के लिए पर्याप्त नहीं – सुप्रीम कोर्ट
भ्रष्टाचार एक वैश्विक महामारी है जिससे करीब-करीब हर देश पीड़ित है। बात कहीं छोटे तो कहीं बड़े पैमाने पर है, और इसे जड़ से मिटाने के लिए हर स्तर पर कार्य किए जा रहे हैं।अगर हम भारत देश की बात करें तो यहां भी इस महामारी से पीड़ित हैं। यह तो सभी जानते होंगे और प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से भी हम देखते सुनते वह पढ़ते आ रहे हैं, कि किस तरह निचले स्तर से बड़े स्तर तक इस महामारी ने घर कर लिया है। बिना भ्रष्टाचार के करीब करीब कोई काम मुश्किल से होता है। करीब-करीब हर स्तर पर इस महामारी ने पैर फैला रखे हैं। और इसका अलग अलग तरीके, कोडवर्ड, पासवर्ड, भाषा, लेखन, कलर, इत्यादि अनेक तरीकों से लेनदेन किया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि हर स्तर को उसके बड़े स्तर से वरदहस्त प्राप्त है, जिसके कारण बिंदास इस महामारी को पनपने में गति मिलती है। अगर कोई फंस भी जाता है, तो कानूनी इतनी पीचीदगी और लीकेजेस हैं, कि आरोपियों को बड़ी मुश्किल से सज़ा दिलाने में प्रॉसीक्यूशन कामयाब होता है। बहुत सारी स्थितियों, परिस्थितियोंजन्य सबूत, प्रैक्टिकल स्थिति, और आधारभूत सच्चाई, को इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी या अधिकारी द्वारा बड़ी सावधानी व इमानदारी से पेश करना होता है। ना कि, संभावित दृष्टिकोण,, से यदि थोड़ी सीभी जांच अधिकारी द्वारा ढिलाई बरती गई, या किसी तथ्य को अनदेखा किया गया, याने आरोपी छूटा !! हर नागरिक को ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक जाने का अधिकार प्राप्त है। और हम देखते हैं कि बहुत कम भ्रष्टाचारियों को ही सजा हो पाती है जो बहुत बड़ी विडंबना है इस भारत देश के लिए….. ऐसा ही एक मामला बुधवार दिनांक 3 फरवरी 2021 को माननीय सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच जिसमें माननीय न्यायमूर्ति अशोक भूषण, माननीय न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी व माननीय न्यायमूर्ति एम आर शाह की बेंच के सम्मुख क्रिमिनल अपील क्रमांक 100-101/2021 जो एसएलपी क्रमांक (क्रिमिनल)4729 -4730/2020 मद्रास मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच से धारा 7,13(2),13(1)(द) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 से उदय हुई थी। जो याचिकाकर्ता बनाम तमिलनाडु राज्य जिसका माननीय बेंच ने अपने 23 पृष्ठों और 14 पॉइंटों के अपने आदेश में माननीय उच्च न्यायालय के आदेश को ख़ारिज कर याचिकाकर्ता कर्मचारी को बरी किया। माननीय बेंच ने कहा कि, संभावित दृष्टिकोण, पर ट्रायल कोर्ट ने बरी किया था और हाईकोर्ट ने इसे पलटना नहीं चाहिए था माननीय बेंच ने कहा कि केवल करेंसी नोटों का क़ब्ज़ा या बरामदगी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 के तहत अपराध कायम करने के लिए पर्याप्त नहीं है। आरोप साबित करने के लिए, यह उचित संदेह से परे साबित किया जाना चाहिए कि अभियुक्त ने स्वेच्छा से रिश्वत के रूप में जानते हुए ये पैसा स्वीकार किया। माननीय बेंच ने भ्रष्टाचार के एक मामले में एक व्यक्ति को सजा देने के हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए कहा, इस मामले में, आरोपी, जो मदुरै नगर निगम का सेनेटरी इंस्पेक्टर था, को ट्रायल कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में बरी कर दिया था। उच्च न्यायालय ने राज्य द्वारा दायर अपील की अनुमति देते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलट दिया और आरोपी को दोषी ठहराया। अपील में, रिकॉर्ड पर सबूत का ध्यान रखते हुए,बेंच ने कहा कि अपीलकर्ता द्वारा रिश्वत की रकम और सेलफोन की मांग और स्वीकृति उचित संदेह से परे साबित नहीं होती है। यह समान रूप से अच्छी तरह से तय किया गया है कि केवल बरामदगी ही अभियुक्त के खिलाफ अभियोजन के आरोप को साबित नहीं कर सकती है। सीएम गिरीश बाबू बनाम सीबीआई, कोचीन, केरल उच्च न्यायालय ( 2009) 3 SCC 779 और बी जयराज बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2014) 13 SCC 55 के मामलों में इस न्यायालय के निर्णयों को संदर्भ बनाया जा सकता है। इस न्यायालय के उपरोक्त निर्णय में भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 की धारा 7, 13 (1) (डी) (i) और (ii) के तहत मामले पर विचार किया गया, जिसमें यह दोहराया गया है कि आरोप साबित करने के लिए, यह उचित संदेह से परे साबित किया जाना चाहिए कि अभियुक्त ने स्वेच्छा से रिश्वत के रूप में जानते हुए धन स्वीकार किया है।अवैध घूस के लिए मांग के सबूत की अनुपस्थिति और करेंसी नोटों का क़ब्ज़ा या वसूली इस तरह के अपराध का गठन करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उक्त निर्णयों में यह भी कहा गया है कि अधिनियम की धारा 20 के तहत अनुमान भी अवैध घूस की मांग और स्वीकृति के बाद ही लिया जा सकता है। ये भी काफी अच्छी तरह से तय है कि आपराधिक न्यायशास्त्र में निर्दोषता का शुरुआती अनुमान ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज बरी होने से दोगुना हो जाता है। अदालत ने यह भी नोट किया कि, इस मामले में, ट्रायल कोर्ट द्वारा व्यक्ति को बरी करने की दर्ज खोज एक संभावित दृष्टिकोण है और इसलिए उच्च न्यायालय को दोषमुक्त करने के लिए बरी किए गए फैसले को उलटना नहीं चाहिए था। बेंच ने कहा, यदि ट्रायल कोर्ट का संभव दृष्टिकोण उच्च न्यायालय के लिए सहमति वाला नहीं है, तब भी ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किए गए ऐसे संभावित दृष्टिकोण को अंत क्रिया के तौर पर नहीं देखा जा सकता है।आगे यह भी आयोजित किया गया है कि जहां तक ट्रायल कोर्ट का यथोचित रूप से दृष्टिकोण हो सकता है, चाहे हाईकोर्ट उसके साथ सहमत हो या न हो, ट्रायल कोर्ट के फैसले पर अंत: क्रिया नहीं जा सकती है और ट्रायल कोर्ट के दृष्टिकोण पर हाईकोर्ट भी रोक नहीं लगा सकता है। उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए,बेंच ने कहा अभियोजन की ओर से जांच किए गए मुख्य गवाहों के बयानों में हमारे द्वारा ऊपर दिए गए विरोधाभासों के मद्देनज़र, हम इस विचार से हैं कि अपीलकर्ता द्वारा रिश्वत राशि और सेल फोन की मांग और स्वीकृति, उचित संदेह से परे साबित नहीं हुई है।ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज बरी किए गए रिकॉर्ड पर इस तरह के साक्ष्य के संबंध में एक संभावित दृष्टिकोण है, जिस पर उच्च न्यायालय का निर्णय रद्द करने के लिए फिट है। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत सजा दर्ज करने से पहले,अदालतों को साक्ष्य की जांच करने में अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए। एक बार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत अभियोग पर दोष सिद्धि दर्ज किए जाने के बाद, यह व्यक्ति पर सेवा प्रदान करने के गंभीर परिणामों के अलावा समाज में एक सामाजिक कलंक भी लगा देता है। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्या ट्रायल कोर्ट द्वारा लिया गया दृष्टिकोण एक संभावित दृष्टिकोण है या नहीं, कोई निश्चित प्रस्ताव नहीं हो सकता है और प्रत्येक मामले को रिकॉर्ड पर दर्ज साक्ष्य के संबंध में उसकी योग्यता के आधार पर आंका जाना चाहिए।
-संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ एड किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र