किसान आन्दोलन को सौ से ज्यादा दिन हो चुके है, और आन्दोलन के नेताओं तथा केंद्र सरकार के मध्य नौ दस दौर की बातचीत हो चुकी है, केंद्र सरकार ने अभी भी वार्ता के द्वार खुले रखें है| किसान न जाने किसका इन्तजार कर रहे है| वो या तो सिर्फ आन्दोलन रत रहकर देस अन्दुरुनी हालात को अस्थिर करना चाह रहें है, अन्यथा सही में जो कृषक मेहनत से अन्न उपजता है, वह किसी भी तीन पांच में नहीं पड़ना चाहता, ये किसान अति सम्पन्न है, सारी अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ धरने में विराजमान है, पर छब्बीस जनवरी के तथाकथित किसानो द्वारा लाल किले पर हिंसा और नकाराम्तक उन्माद प्रदर्शन से देश का सर निचा कर दिया उस घटना से यह स्पष्ट हो गया और मीडिया और टीवी चैनलों ने भी खुले रूप में बता दिया कि इसमें खालिस्तानी समर्थको का खुला हाथ है, और पाकिस्तान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लेंड, और तमाम एसे देश जहाँ खालिस्तानी समर्थक निवासरत है| ये न सिर्फ इस आन्दोलन को हिंसात्मक रूप दे रहे हैं बल्कि प्रचुर मात्रा में आन्दोलन को चलाये रखने के लिये आर्थिक मदद बड़े पैमाने में कर रहे है| और उन देशों की सरकारों पर किसान आन्दोलन का समर्थन करने तथा भारत का विरोध करने दबाव भी बनाने का प्रयास भी कर रहे है| जो पंजाब, और हरियाणा के बड़े और मझोले कद के किसान है, उनमे साठ से सत्तर प्रतिशत तक के किसान किसी न किसी राजनैतिक पार्टी से गहरे जुड़े हैं, उन्हें पंजाब के आगामी विधान सभा चुनाव में मुद्दा बनाने, जनाधार बनाने के लिए किसान आन्दोलन एक बेहतर कंधे के रूप में मिल गया है, अब राजनीतिज्ञ इनके कन्धों पर बन्दुक रख कर लगातार वार्ताएं असफल करवा रहे है, जिससे ये किसान आन्दोलन के गर्म तवे में अपनी राजननैतिक रोटी सेंक सकें, और केंद्र सरकार का विरोध कर अना वश्यक व्यवधान पैदा कर वाह वाही लूटकर अपना वोट बैंक तैयार कर सकें|
राष्ट्रीय स्तर के एक सर्वे तथा विश्लेषण में यह तथ्य प्रकाश में आया कि भारत देश के कुल धान की खरीदी में एम.एस.पी में होती है, उसका 80% धान केवल और केवल पंजाब से होता है, और अन्य राज्यों में 20% धान की खरीदी एम.एस.पी से हो पाती है| एमएसपी की खरीदी कहां पंजाब में पूरा काम राजनीतिक नेताओं जो जमीन जायजात वाले किसान भी हैं उनके सीधे नियंत्रण में होती है और उनके नियंत्रण में होने से एम.एस.पी के दाम उनके प्रयासों से ऊंची कीमत में तय होते हैं| बाजार में धान की एम.एस.पी की कीमत नेताओं के कारण अपनी सुविधा के अनुसार तय किए जाते हैं| इस तरह एम.एस.पी एक ऊंचे स्तर पर पहुंच जाती है और केंद्र सरकार के कृषि कानून 20 20 के तीनों अध्यादेश उसे इन राजनैतिक किसानों को नुकसान पहुंचने की बहुत ज्यादा संभावनाएं दृष्टिगोचर होते हैं, ऐसे में यह राजनीतिज्ञ, तथाकथित किसान इस कानून को कैसे बर्दाश्त करते, फलस्वरूप वे इस किसान आंदोलन को उस स्तर तक ले जाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं, जिससे केंद्रीय सरकार पर दबाव डालकर अपना उल्लू सीधा कर सकें, आंदोलन को अब राजनीतिज्ञों ने अपने जाल में जकड़ लिया है जो इसे अपनी पार्टी के हित के लिए इसका इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहे हैं| कृषक आंदोलन जैसा दिखाई दे रहा है वैसा है नहीं, नेपथ्य में विपक्षी राजनीतिज्ञ अपना पूरा जोर लगा कर आंदोलन की आग को और ज्यादा प्रज्वलित करने में लगे हुए हैं, वे किसानों को भड़काने के साथ यह स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि केंद्र का कृषि कानून देश के किसानों के लिए वर्तमान तथा भविष्य में बहुत ही नुकसानदायक एवं खतरनाक है| वह इस तरह केंद्र सरकार को किसान विरोधी सरकार साबित करने पर अमादा है| कृषक आंदोलन को ऊंचाई पर ले जाने तथा चरम पर पहुंचाने के लिए पंजाब में आगामी होने वाले चुनाव के लिए बतौर तैयारी एक दूसरे के कट्टर विरोधी पार्टियां शिरोमणि अकाली दल और अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी पंजाब में कंधे से कंधा मिलाकर एक दूसरे के साथ कृषकों को केंद्र सरकार के विरोध में भड़काने और बरगलाने में साथ साथ हैं| इस केंद्रीय कानून से पंजाब के राजनीतिज्ञ किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना है, क्योंकि यह बड़े किसान छोटे-छोटे किसानों से कम दाम पर धान खरीद कर एम.एस.पी की दरों में विक्रय किया करते हैं, पहले जब कृषि संबंधित इन कानून को अध्यादेश के जरिए लागू कराया गया था फिर इसे संसद में बहुमत के आधार पर पारित करा लिया गया| सितंबर मैं इस कानून के खिलाफ कोई चर्चा या सुगबुगाहट नहीं हुई थी, फिर पंजाबी नेताओं के उकसाने पर पंजाब प्रांत में इस कानून के विरोध में ऐसी चिंगारी उठी की केंद्र सरकार कथा बाकी बचे हुए राज्यों के किसानों को भी कल्पना नहीं थी, पंजाब के किसानों के मध्य ऐसे आक्रोश को समझने के लिए वहां की राजनीतिक पृष्ठभूमि को भी समझना अत्यंत आवश्यक होगा, पंजाब प्रांत में सारी की सारी आवश्यक सेवाएं जैसे कृषि, ट्रांसपोर्ट. खनिज, बाजार, पेट्रोल पंप दो बड़े राजनीतिक दलों के नेताओं के नियंत्रण में है| और यही कारण है कि तीन दशक पुराने संबंधों वाली शिरोमणि अकाली दल ने किसान आंदोलन की चिंता को देखते हुए भाजपा से अलग होना ज्यादा फायदे का मुद्दा समझ में आया, वह तुरंत भाजपा से अपना नाता तोड़कर राज्य की राजनीति में वापस लौट आइ, और दूसरी तरफ वामपंथी दल भी इस आंदोलन के जरिए अपना ठिकाना खोजने का प्रयास करने लगे हैं, इसके पीछे बड़ा कारण यह है की पंजाब हरियाणा के अलावा अन्य सरकारों को यह बात समझ आ गई है कि केंद्रीय सरकार द्वारा किसी कानून में अनुबंधित कृषि कार्य यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का विधि सम्मत निर्णय किसानों के भविष्य के फायदे के लिए है अन्य किसान जिन्हें कानून समझ आया है, वे काफी खुश है, अन्य जिन्हें राजनैतिक चश्मा पहना कर इस कानून को पढ़ाया गया है वे अभी तक इस कानून के विरोध में पूरी ताकत से खड़े हैं, ऐसे में को को इस कानून को अच्छे से समझ बूझ कर आंदोलन में ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है, जिससे राजनीतिक दलों को अपना उल्लू सीधा करने का मौका ही ना मिले और किसान राजनीत के शिकार न होकर केंद्र के साथ बातचीत के जरिए इस कृषि कानून 2020 का मध्य मार्गी समझौता किया जाना चाहिए|
संजीव ठाकुर, स्वतंत्र लेखक, रायपुर छत्तीसगढ़