Saturday, July 6, 2024
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पीपल बरगद नीम की छइयां, मीठे पानी की कुइयां कोरोना महामारी ने याद दिलाए पुराने दिन

महामारी कोरोना की भयावहता के चलते हीरो से लोग गांव के लौटने लगे एक बार फिर लोगों को भूले बिसरे गांव याद आने लगे याद आने लगा है गांव का वह बचपन, घर का कच्चा आंगन बाबा दाई और घर के बाहर बंधी गाय। याद आने लगे आम के बाग उसमें कूकती कोयल, नीम व बरगद की छांव। हम कितने प्रगतिशील व आधुनिक हो गए हैं। कोरोना ने उसकी पोल खोल दी है। महामारी से परेशान होकर अपनी जड़ों को तलाशते हुए लोग गांव वापस आ रहे हैं। शायद उन्हे गांव की अहमियत का अहसास हो गया है। पेड़ चाहे जितना बड़ा हो जाए उसका जड़ो से जुड़े रहना जरूरी है। पतंग आसमान को छू ले लेकिन उसका अपने कन्ने से जुड़ा रहना जरूरी है।
आज कहने के लिए भारत गांवों का देश है। लेकिन गांवों में मूलभूत सुविधाएं बढ़ाने की जरूरत है। खेती किसानी को और तरजीह की जरूरत है। जिससे गांव फले फूले गांव की सबको साथ लेकर चलने सबको समेटने की संस्कृति बरकरार रहे। गांवों में इंसानियत अभी भी जिंदा है। भारतीयता हिलोर मारती है। देश भक्ति सिखानी नही पड़ती। अभिमन्यु की तरह मां के पेट से गांव का बच्चा सीखकर पैदा होता है। वर्तमान सरकारों ने गांवों की इसी अहमियत को समझकर कदम उठाना शुरू किया है। लेकिन इसकी रफ्तार को और बढ़ाना होगा। गांव को मूलभूत सुविधाओं के साथ ही समर्थ और साधन संपन्न बनाना होगा। गांव ग्रामीणों उनके उत्पाद को प्राथमिकता देनी होगी। उनकी कलाकृतियों,गांव की जीवन शैली को अपनाना होगा। ग्रामीणों को उनके आसपास ही रोजगार,अच्छे स्कूल देने होगे। ग्रामीण जीवन शैली का सम्मान करना होगा। लोकतंत्र में पत्रकारिता का बहुत ऊंचा स्थान है। लेकिन आधुनिकता, शहरीकरण का भाव चमक दमक में ग्रामीण पत्रकारिता को दोयम दर्जे का बनाकर रख दिया है। उनके साथ सौतेला व्यवहार होता है। बड़े शहर में बैठकर रिपोर्टिंग करने वालों को ग्रामीण पत्रकारिता का पुरस्कार मिलता है। पत्रकार संघर्ष मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष संतोष गुप्ता का कहना है कि गांवों की दशा व दिशा को गांव में रहकर भोगने और बदलने वाले ग्रामीण पत्रकारों को इस तरह से सम्मान नही दिया जाता है। भारत विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहा है। हम सब को इससे सबक लेकर आने वाले समय की तैयारी करनी चाहिए। गांवों को उनको महत्व देना चाहिए।
– गीतेश अग्निहोत्री, लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं।