Monday, November 18, 2024
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पुलिस विभाग के उच्चाधिकारियों की सामने आई संकुचित सोंच!

ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति जितना अधिक शिक्षित हो जाता है यानीकि उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेता है, उस व्यक्ति की सोंच उतनी ही विस्तृत और उच्च श्रेणी की हो जाती है और लोग उसके विचारों व कृत्यों के मुरीद हो जाते हैं, लेकिन कानपुर महानगर में बिल्कुल इसके विपरीत नजारे देखने को मिल रहे हैं, विशेषकर व्हाट्सएप से अलग होने के मामले में!
जी हाँ, कानपुर महानगर में पुलिस कमिश्नरी की व्यवस्था लागू हो चुकी है। अस्तु, यहां पुलिस विभाग की व्यवस्था में बदलाव किया गया तो इस व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से अनेक आई. पी. एस., पी. पी. एस. अधिकारियों की तैनाती कर दी गई। चर्चायें आम हो गई कि जब शहर में इतने अधिक उच्च स्तर के अधिकारियों की तैनाती हो गई है तो अब बड़े स्तर का सुधार हो जायेगा क्योंकि उच्च स्तर के अधिकारियों की सोंच भी अलग तरह की यानीकि उच्च स्तर की होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं बल्कि उन्होंने एक ऐसा उदाहरण पेश कर दिया जिससे यह प्रतीत होने लगा है कि जो अधिकारी इन दिनों तैनात हैं उनकी सोंच उच्च स्तर की नहीं अपिुत संकुचित स्तर है।
जी हाँ, इसका जीता जागता उदाहरण सामने आ चुका है कि कानपुर महानगर में दिनांक 17 मई 2021 को दोपहर के समय व्हाट्सएप में बने मीडिया ग्रुपों से पुलिस अधिकारियों (जैसे-समस्त थाना प्रभारियों, ए.सी.पी., डी. सी.पी. सहित अन्य सभी) ने अपने को अलग करना शुरू कर दिया और देखते ही देखते व्हाट्सएप पर बने सभी मीडिया ग्रुपों से वे एक-एक कर अलग हो गये। पुलिस अधिकारियों के ग्रुपों से निकलने पर यह पता चला कि पुलिस आयुक्त के अघोषित आदेश पर यह सब कुछ किया गया। पुलिस अधिकारियों के अलग होते ही सोशल प्लेटफाॅर्मों पर पुलिस आयुक्त के प्रति अनेक तरह की चर्चायें व आलोचनायें होने लगीं तो कुछ देर बाद ही पुलिस आयुक्त द्वारा सफाई पेश की गई कि मीडिया/प्रेस से दूर रहने का कोई आदेश मेरे द्वारा नहीं जारी किया गया है बल्कि पुलिस अधिकारियों ने स्वेच्छा से अपने-अपने को अलग किया है। सभी पुलिस अधिकारी स्वतन्त्र हैं, जो जहां रहना चाहे जुड़ा रहे। ठीक बात है ऐसा होना भी चाहिये, किसी को बाध्य भी नहीं किया जाना चाहिये।
अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि व्हाट्सएप के सभी मीडिया ग्रुपों से कुछ पल में ही लगभग पुलिस विभाग के सभी अधिकारी अलग क्यों हुए? सभी अधिकारियों के मन-मस्तिष्क में एक साथ यह विचार कैसे आया कि एक ही समय पर कुछ ही पलों में सब अलग हो जायें? कहीं ना कहीं यह कार्य किसी अघोषित किन्तु सुनियोजित आदेश/निर्देश के अनुपालन में किया गया प्रतीत होता है, भले ही इस बारे में कोई निर्देश/आदेश लिखित रूप में ना जारी किया गया हो और सफाई में कोई कुछ भी कहे।
इसमें कतई दो राय नहीं कि व्हाट्सअप के मीडिया ग्रुपों में खबरों के अलावा अन्य तमाम तरह के संदेशों की भरमार रहती है और पुलिस अधिकारियों को शायद परेशानी होती होगी? वहीं अगर पुलिस अधिकारियों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था, कभी कभी उन्हें अपनी ही आलोचना का शिकार होना पड़ रहा था तो ऐसे में उन्हें सभी ग्रुपों से अपने को अलग रखना चाहिये, किन्तु ऐसा ना करके पुलिस आयुक्त सहित अन्य कई आलाधिकारियों ने अपनी संकुचित सोंच का परिचय देना शुरू कर दिया है। उसका उहारण यह है कि व्हाट्सअप पर ग्रुप बनाने शुरू कर दिये गये हैं और कहा गया कि राष्ट्रीय मीडिया से सीधे संवाद के लिये अलग ग्रुप बनाये गये हैं। साथ ही दूसरे ग्रुपों में अन्य पत्रकारों को जोड़ा जायेगा।
कटु भले ही लगे किन्तु है सत्य है कि पुलिस अधिकारियों ने दो तरह के ग्रुप बनाये हैं और एक में उनकों जोड़ा गया जिन्हें राष्ट्रीय स्तर का पत्रकार माना गया है या यूं कहें कि वो उन अधिकारियों के मुहलगे पत्रकार हैं। उस ग्रुप में कोई बंदिश लागू नहीं है जो चाहे अपने मन की बात कर सकता है। पुलिस अधिकारियों से अपनी कह कर सकता है, कुछ भी पूंछ सकता है यानीकि ग्रुप में कोई बंदिश नहीं है।
वहीं दूसरे ग्रुपों की बात करें तो उनमें उन पत्रकारों को जोड़ा गया जिन्हें उनकी भाषा में छुटभैये, फटुवे, चूतिये…. आदि ना जाने किन-किन नामों से सुशोभित किया जाता है! इन ग्रुपों की खासियत यह है कि छुटभैये, फटुवे, चूतिये … … और ना जाने किन-किन नामों से प्रसिद्धि पाने वाले पत्रकार अपनी बात नहीं कह सकते हैं, वो किसी मामले में कोई सवाल नहीं कर सकते हैं, सिर्फ पुलिस अधिकारियों के मन की सुन सकते हैं यानीकि ग्रुप में बंदिश लागू है और उस ग्रुप में वही अपनी बात कह सकते हैं जो उस ग्रुप के रहनुमा (एडमिन) हैं। वास्तव में पुलिस के उच्चाधिकारियों द्वारा यह बहुत बड़ा एहसान किया गया है जो छुटभैये, फटुवे, चूतिये … … और ना जाने किन-किन नामों से प्रसिद्ध पाने वाले पत्रकारों को कम से कम ऐसे ग्रुपों से जोड़ा तो गया। जो पत्रकार उन ग्रुपों में जोड़े गये हैं उनके ऊपर अपने मन की बात थोपना भी तो एक एहसान ही है। वर्ना उन्हें कैसे पता चलेगा कि शहर में किस कद्दू में तीर मारा गया है आदि आदि….।
ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि उन्होंने स्थानीय स्तर के व राष्ट्रीय स्तर के पत्रकारों का चयन उनकी किस विधा या कार्यशैली को ध्यान में रखते हुए किया है। ऐसी कौन सी खबर लिखने की विधा सिर्फ उन्हीं को पता है जो राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार ही जानते हैं और अन्य टाइप के नहीं?
यह अवगत कराना अपना दायित्व समझता हूं कि समाचारपत्रों/मीडिया संस्थानों में कार्यरत प्रत्येक पत्रकार को समान अधिकार प्राप्त है। सभी का पंजीयन एक ही विभाग से होता है वह है सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय भारत सरकार का अधीनस्थ ‘‘समाचारों के पंजीयक का कार्यालय’’ जिसे आर. एन. आई. के नाम से ज्यादा जाना जाता है। वहीं डिजिटल युग में कोई समाचारपत्र/मीडिया संस्थान किसी भी नजरिये से इन्टरनेट के दौर में स्थानीय समझना मूर्खता है, क्योंकि अनेक खबरें एक शहर से दूसरे शहर ही नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश तक पलक झपकते ही प्रसारित हो जातीं हैं। हां, संस्थान आर्थिक दृष्टि से तो छोटा या बड़ा हो सकता है लेकिन उसके पत्रकार छोटे-बड़े नहीं होते! उनकी लेखनी भले ही सवालों के घेरे में हो, शब्दों में शुद्धता का अभाव दिखता हो, लेकिन वह वो सबकुछ लिख सकते हैं जो राष्ट्रीय स्तर के कथत पत्रकार नहीं लिख सकते यानीकि बड़ी घटनाओं से लेकर गली-कूचे तक की खबरें सिर्फ वही पत्रकार ही लिख सकते हैं जिन्हें फटुये, चूतिये, और ना जाने क्या क्या कहा जात है….राष्ट्रीय स्तर के नहीं, वहीं राष्ट्रीय स्तर के कथित पत्रकारों की अपने संस्थानों में कितनी चलती है वो तो वही जानते हैं या यूं कहें कि बाॅस की बिना पयलगी किये उनकी नौकरी तक सुरक्षित नहीं है, पत्रकारिता की बात कौन कहे, भले ही वो कितने बड़े पत्रकार अपने आप में बनते हों। अनेक उदाहरण हैं मेरे पास, जो अपने आपको बड़ा पत्रकार मानते थे उन्हें धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखाया गया है।
वहीं यह भी विचारणीय है और अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि कानपुर महानगर में पुलिस विभाग के उच्चाधिकारी उन्हीं प्रेस कर्मियों/पत्रकारों के मोबाइल फोन काॅल्स रिसीव करते हैं जो उनकी जानपहचान के होते हैं या यू कहें कि उनके मुह लगे होते हैं। किसी अपरचित प्रेस कर्मी/पत्रकार अथवा लघु व मध्यम श्रेणी के समाचारपत्रों में काम करने वाले प्रेसकर्मी का फोन काॅल्स शायद ही रिसीव होता है। अगर रिसीव भी होता है तो उन्हीं का होता है जो उनकी जान पहचान के होते हैं अन्यथा यह कर टाल दिया जाता है कि साहेब मीटिंग में व्यस्त (ब्जी) हैं। यह पुलिस विभाग के उच्चाधिकारियों की संकुचित सोंच का परिचय नहीं तो और क्या कहें ?
-लेखक श्याम सिंह पंवार भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य व जन सामना समाचारपत्र के संपादक