Thursday, May 2, 2024
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कर्त्तव्य का बोध

प्रधानमंत्री मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए राष्ट्र को उद्बोधन में नागरिक कर्तव्य का जिक्र करते हुए इसे पांचवीं प्राणशक्ति बताया गया और शासक, प्रशासक, पुलिस हो या पीपुल, सबको अपने-अपने कर्तव्य निभाने चाहिए। सही बात भी है कि सभी को अपने अपने कर्त्तव्य निभाने चाहिये, देशहित में सभी को इसके प्रति निष्ठावान भी होना चाहिये क्यों कि बगैर नागरिक कर्तव्य के कोई भी देश पूर्ण रूप से उन्नति नहीं कर सकता है। अब ऐसे में कर्तव्य निभाने का पहला और मूल सवाल तो आम नागरिकों के के सिर पर मढ़ दिया जा चुका है किन्तु इसी तरह का सवाल संसद-विधानसभाओं में कीमती वक्त और लोगों की गाढ़ी कमाई को शोर-शराबे और धरने-प्रदर्शन में बर्बाद करने पर भी प्रधानमन्त्री जी को बोलना चाहिये था जिस पर उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। ऐसे में तो ‘ पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत चरित्रार्थ हो रही है क्योंकि क्या सरकारी कार्मिक वेतन और सुविधाओं के बदले में ईमानदारी से अपनी ड्यूटी को अंजाम दे रहे हैं। इसी तरह क्या जनप्रतिनिधि भी जनता की गाढ़ी कमाई से वेतन व सुविधाएं तो ले रहे हैं लेकिन इसके ऐवज में जनप्रतिनिधि क्या अपना फर्ज अदा कर रहे हैं? इस पर प्रधानमन्त्री जी कुछ नहीं बोले क्यों ?
इसके कतई दो राय नहीं और कटु सत्य व सर्वविदित है कि जनप्रतिधियों ने सर्वाेच्च संवैधानिक संस्थाओं को पैतरेबाजी का अखाड़ा बना दिया है। देश के लोकतंत्र को शर्मसार करने की अनेक घटनाएं इसकी गवाह हैं और सदन में सत्र के दौरान कामकाज में बाधा डालने के अलावा मारपीट, कपड़े फाडऩे, एक-दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने के मामले ज्यादा पुराने नहीं हैं और शायद हर एक को याद भी होगा।
ऐसे में यही उचित रहता कि प्रधानमन्त्री मोदी जी, आम लोगों को नसीहत देने की बजाय आम लोगों की बदौलत ऐश-आराम करने वाले नेताओं और कार्मिकों से कर्तव्य निभाने की बात करते। देश को नेता व उच्चपदों पर बैठे अधिकारी खोखला कर रहे हैं और अनेक नेताओं व अधिकारियों के बंगलों व घरों से बरामद हुई नकदी व जेवरात इसके उदाहरण हैं। खास बात यह है कि देश को लूट कर खाने वाले ऐसे नेताओं-अफसरों के खिलाफ देशद्र्रोह का मुकदमा चलाने के बजाय विरोधी दल ही एकजुट होकर उसके बचाव में उतर आते हैं। इतना ही नहीं उसी के बचाव में धरने-प्रदर्शन तक की करने में गुरेज नहीं रहता।यह बात सबको पता है कि कानून बनाए भी नेताओं ने ही हैं, किन्तु जब लागू करने की बात आती है तो उनका रंग-रूप ही बदल जाता है। वहीं आम लोगों पर ऐसे कानून लागू हों तो किसी को कोई तकलीफ नहीं, पर जब कानून के समानता से लागू करने की बात आती है तो सबसे पहले नेता ही अपने को उससे ऊपर बताने में आगे आ जाते हैं। ऐसे में कह सकते हैं कि नेताओं को कर्तव्य की सीख देना आसान नहीं है। कटु किन्तु सच यही है कि देश में ऐसा एक भी राजनीतिक दल नहीं है, जिसके नेताओं पर चोरी, डकैती, भ्रष्टाचार, बलात्कार, बलवा जैसे मामले न चल रहे हों, इन आपराधिक मामलों पर इनका एक ही जवाब होता है ऐसे नेताओं को कर्तव्य का एहसास कराने के लिए भी कानून बनना चाहिए। कर्तव्यों का पालन नहीं करने वाले जन प्रतिनिधि-अधिकारियों को सीधे जेल भेजे जाने की सजा होनी चाहिए। रहा सवाल देश के आम लोगों से कर्तव्य की उम्मीद करना, तो सवाल यह है कि जिस देश की करीब आधी आबादी को मुश्किल से एक वक्त का भोजन नसीब हो, रहने के लिए अच्छा घर नहीं, बच्चों को अच्छी शिक्षा की व्यवस्था नहीं हो, पीने के लिये साफ सुथरा पानी-बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो, उनसे कर्तव्य की पालना की उम्मीद किस मुंह से की जा सकती है ?
ऐसे में उचित यही रहेगा कि प्रधानमन्त्री मोदी जी पहले उच्च पदासीन अफसरों व जनप्रतिनिधियों को अपने कर्त्तव्य का बोध करवायें इसके बाद आम जन मानस से इसकी उम्मीद करें। सब जिम्मेदारी आम जनता पर डाल देना अच्छा नहीं कह सकते।