Wednesday, January 22, 2025
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लेख/विचार

करना होगा ऐसे दरिंदों का सामाजिक बहिष्कार

हमें खुद पहल करनी होगी। इस समाज का नव निर्माण करना होगा। देश की सीमाओं की रक्षा तो हमारे वीर सैनिक कर ही रहे हैं नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए आज समाज के हर व्यक्ति को सैनिक और हर माँ को मदर इंडिया बनना होगा।
हर आँख नम है हर शख्स शर्मिंदा है क्योंकि, आज मानवता शर्मसार है इंसानियत लहूलुहान है।
एक वो दौर था जब नर में नारायण का वास था लेकिन आज उस नर पर पिशाच हावी है। एक वो दौर था जब आदर्शों नैतिक मूल्यों संवेदनाओं से युक्त चरित्र किसी सभ्यता की नींव होते थे लेकिन आज का समाज तो इनके खंडहरों पर खड़ा है। वो कल की बात थी जब मनुष्य को अपने इंसान होने का गुरूर था लेकिन आज का मानव तो खुद से ही शर्मिंदा है। क्योंकि आज उस पिशाच के लिए न उम्र की सीमा है न शर्म का कोई बंधन। ढाई साल की बच्ची हो या आठ माह की क्या फर्क पड़ता है। मासूमियत पर हैवानियत हावी हो जाती है।

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बढ़ते प्रदूषण का जन जीवन पर प्रभाव चिंताजनक

आज विश्व पर्यावरण दिवस पर सोशल मीडिया पर पेड़ पौधे लगाते लोगों की तस्वीरें खूब पोस्ट हुई। क्या ये सभी लगाए पेड़ बच जाएंगे। जवाब में आओ यही कहेंगे नहीं। क्योंकि आज हम कोई भी दिवस आता है उसे औपचारिक तौर पर मना लेते हैं। दिवस की सार्थकता तभी होती है जब धरातल पर काम होता है। मात्र अखबार में फ़ोटो व न्यूज़ देना ही हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए। आज धरती का तापमान कितना बढ़ता जा रहा है। पेड़ कटते जा रहे हैं। सड़कों का जाल बिछ रहा है मगर साथ ही हज़ारो पेड़ काट दिए जाते हैं। धूल धुंआ के सिवाय क्या बचा है अब। हर ओर प्रदूषण ही प्रदूषण। वायु प्रदूषण ,ध्वनि प्रदूषण असहनीय हो गया है। बढ़ते वाहनों की रेलमपेल ने जीवन नारकीय कर दिया है। वायु प्रदूषण बढ़ते कल कारखानों की चिमनियों से निकले जहरीले धुएं ने बस्तियों में अनेक रोग फैला दिए हैं। प्लास्टिक प्रदूषण से सब दुखी है। मूक पशु इन्हें खाकर मर रहे हैं। पवित्र नदियां गंगा यमुना क्षिप्रा नर्मदा आदि सभी मैली हो गई है। कचरे के ढेर ही ढेर हैं नदियों के किनारे बसे बड़े महानगरों के बुरे हाल हैं। करोड़ो रूपये जिन नदियों को साफ करने के लिए खर्च किये लेकिन आज भी ये गंदी ही है।
लगातार अनावश्यक रूप से वनों की कटोती व बढ़ता शहरीकरण औधोगिकरण से प्रदूषण बढ़ा है। इससे विषैला कचरा मिट्टी हवा व पानी सभी प्रदूषित हो गया है। सार्वजनिक स्तर पर आज सामाजिक जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।

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दल्लों की भेंट चढ़ता किसान..

कहा जाता है कि भारत कृषि प्रधान देश है या भारत गांवों में बसता है। वैसे ये बात सही है कि भारत गांवों में ही बसता है। देश का मजबूत आधार किसान है और यही किसान अब राजनीति की भेंट चढ़ गए हैं। उनकी समस्याएं और उनसे जुड़े मुद्दे सियासी भट्टी में तप रहे हैं। उनके नाम पर योजनाएं तो बनती है लेकिन उसका लाभ किसानों को नहीं मिलता। कर्जमाफी के नाम पर सरकारें बदलती रहतीं है। आज भी 70% किसानों को दो वक्त की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और जो 30% किसान हैं वे नौकरीपेशा या धनी किसान होते हैं जो सुविधा संपन्न होते हैं। इन 70% गरीब किसानों को चुनावी मुद्दा बनाकर घोषणा पत्रों में जगह तो मिल जाती है लेकिन उनकी हालत ज्यों की त्यों रहती है। वोट का मोहरा बनते किसान लोकलुभावन वादों के आसरे रह जाते हैं।

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क्यों नहीं छू पा रहा है सत्तर की सीमा को मतदान का प्रतिशत डॉ॰दीपकुमार शुक्ल

चुनाव आयोग तथा विभिन्न सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों के लाख प्रयास के बावजूद भी मतदान का प्रतिशत सत्तर की सीमा को नहीं छू पा रहा है। क्या देश के तीस प्रतिशत से भी अधिक मतदाता लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी सहभागिता के प्रति अभी तक जागरूक नहीं हो पाये हैं या फिर इसका कारण कुछ और है? इस तीस प्रतिशत में वे मतदाता शामिल नहीं हैं जिनका नाम चुनाव कर्मियों की कृपा से मतदाता सूची में शामिल नहीं हो पाया है या फिर हटा दिया गया है। यदि इन सबको भी जोड़ लिया जाये तो पूरे देश में चालीस प्रतिशत से भी अधिक मतदाता किसी न किसी कारणवश मतदान से वंचित रहते हैं। सात चरणों में हो रहे लोकसभा चुनाव के अब तक चार चरण समाप्त हो चुके हैं। पांचवें चरण का भी चुनाव शीघ्र ही सम्पन्न हो जाएगा। बीते चार चरणों के मतदान का प्रतिशत 62 से 68 के बीच ही रहा है। जो कि 2014 के सभी नौ चरणों के औसत मतदान प्रतिशत 66.38 के आसपास ही है।

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क्या है सुन्दरता का मापदण्ड?

हाल ही में आइआइटी में पढने वाली एक लड़की के आत्महत्या करने की खबर आई कारण कि वो मोटी थी उसे अपने मोटा होना इतना शर्मिंदा करता था की वो अवसाद में चली गयी उसका अपनी परीक्षाओं में अव्वल आना भी उसे इस दुःख से बहार नहीं कर पाया यानी उसकी बौधिक क्षमता शारीरक आकर्षण से हार गयी दरअसल। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वो एक ऐसा वैज्ञानिक और औद्योगिक युग है जहाँ भौतिकवाद अपने चरम पर है। इस युग में हर चीज का कृत्रिम उत्पादन हो रहा है। ये वो दौर है जिसमें ईश्वर की बनाई दुनिया से इतर मनुष्य ने एक नई दुनिया का ही अविष्कार कर लिया है यानी कि वर्चुअल वर्ल्ड। इतना ही नहीं बल्कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशल इनटेलीजेंस ने भी इस युग में अपनी क्रांतिकारी आमद दर्ज कर दी है। ऐसे दौर में सौंदर्य कैसे अछूता रह सकता था। इसलिए आज सुंदरता एक नैसर्गिक गुण नहीं रह गया है अपितु यह करोड़ों के कॉस्मेटिक उद्योग के बाज़रवाद का परिणाम बन चुका है। कॉस्मेटिक्स और कॉस्मेटिक सर्जरी ने सौंदर्य की प्राकृतिक दुनिया पर कब्ज़ा कर लिया है। आज नारी को यह बताया जा रहा है कि सुंदरता वो नहीं है जो उसके पास है। बल्कि आज सुदंरता के नए मापदंड हैं और जो स्त्री इन पर खरी नहीं उतरती वो सुंदर नहीं है। परिणामस्वरूप आज की नारी इस पुरुष प्रधान समाज द्वारा तय किए गए खूबसूरती के मानकों पर खरा उतरने के लिए अपने शरीर के साथ भूखा रहने से लेकर और न जाने कितने अत्याचार कर रही है यह किसी से छुपा नहीं है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि खूबसूरत दिखने के लिए महिलाएं उन ब्यूटी पार्लरस में जाती हैं जिनका संचालन करने वाली महिलाओं का सुंदरता अथवा सौंदर्य के इन मानकों से दूर दूर तक कोई नाता ही नहीं होता।

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जनता की अदालत में फैसला अभी बाकी है

कुछ समय पहले अमेरिका के एक शिखर के बेस बॉल खिलाड़ी जो कि वहाँ के लोगों के दिल में सितारा हैसियत रखते थे, उन पर अपनी पत्नी की हत्या का आरोप लगा। लेकिन परिस्थिति जन्य साक्ष्य के आभाव में वो अदालत से बरी कर दिए गए जबकि जज पूरी तरह आश्वस्त थे कि कत्ल उसने ही किया है क्योंकि फैसला “कानून के दायरे” में ही किया जाता है। अदालत या फिर कोई संवैधानिक संस्था चाहे कहीं की भी हो, विश्व में उनके द्वारा इस प्रकार के फैसले दिए जाना कोई नई या अनोखी बात नहीं है। लेकिन अदालत के इस फैसले के बाद जो अमेरिका में हुआ वो जरूर अनूठा था। क्योंकि कोर्ट से “बाइज़्ज़त बरी” होकर ये सितारा खिलाड़ी जब अपने महलनुमा घर पहुंचे, तो उनके चौकीदार ने उन्हें घर की चाबियाँ देते हुए कहा कि उनके दर्जन भर सेवक अदालत के फैसले से आहत होकर त्यागपत्र दे चुके हैं और वह खुद भी केवल उन्हें ये चाबियां सौंपने के लिए ही रुका हुआ था। इतना ही नहीं जब उन्होंने अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट में टेबल बुक करनी चाही तो उन्हें मना कर दिया गया। जब वो स्वयं रेस्टोरेंट पहुंच गए जो लगभग खाली था, तो भी उन्हें टेबल नहीं दी गई। वैसे तो यह प्रसंग पुराना है लेकिन वर्तमान चुनावी दौर में प्रासंगिक प्रतीत होता है।

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बुजुर्गों की अनदेखी…

समाज को आईना दिखाता एक सच..
अगर पुराने दौर में एक नजर घुमाई जाए तो बुजुर्गवार लोग इतने लाचार नहीं होते थे जितने कि अब दिखाई देते हैं। तब परिवार में मुखिया के तौर पर उनकी पहचान बनी रहती थी और हर जरूरी कार्य में उनकी सलाह या रजामंदी ली जाती थी। बदलते वक्त ने संबंधों में दूरी तो बढ़ा ही दी है साथ में भावनाओं को भी खत्म कर दिया है। व्यक्ति अपनों के प्रति असंवेदनशील होता जा रहा है। हम भाग दौड़ भरी जिंदगी, व्यस्तता और छोटे होते परिवार को दोष देते हैं लेकिन क्या यह सही नहीं है कि मूल्यों का हनन और संस्कार भी मिटते जा रहे है। अपवाद हर जगह होते हैं और अब भी दिखाई देते हैं कि बहुत व्यस्तता के बावजूद लोग अभी भी जिम्मेदारियां निभाते हैं हालांकि यह अब गांवों में, छोटे परिवार और संयुक्त परिवारों में दिखाई देती है जहां बुजुर्गों देखभाल होती है। उन्हें अपमानित या निरादर नहीं किया जाता है। लेकिन फिर भी आज समाज में इतना बदलाव आ चुका है कि मानव मन संवेदना से दूर होता जा रहा है। आज हम अपने लोगों से ही दूर होना चाहते हैं, जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते हैं। आज लोग अपने बूढ़े माता-पिता को बोझ समझने लगें हैं। आज की औलादें यह महसूस नहीं कर पा रही है कि यह वही माता पिता है जिन्होंने उनके लिए खुद को होम किया है। बचपन से लेकर जवानी तक उनके एक शानदार जीवन के लिए संघर्ष किया है। बाद में वही बच्चे यह तो तुम्हारा फर्ज था कहकर मुंह चुराते हैं, और जब जिम्मेदारी की बात आती है तो व्यस्तता का बहाना बना कर मुंह मोड़ लेते हैं।

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कहिये नेता जी क्या कहना है !

कही कमल को खिलने का मौका तो नही दे गए कमलनाथ ! क्योंकि जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाकर कांग्रेस अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रही थी अब उसी भ्रष्टाचार के जाल मे खुद उलझती प्रतीत हो रही। हाल ही में न्यूज चैनलों के ओपेनियन पोल में जो कांग्रेस 90 सीटे जीतती दिख रही थी अब वो आकड़ा 60 पर सिमट रहा। इस गिरावट का प्रमुख कारण म0 प्र0 में कमलनाथ सरकार का हवाला भ्रष्टाचार मुख्य रूप से राहुल गांधी के लिए मुसीबत बन गयी है। ईडी और सीबीआईं ने बेहतरीन कार्य किया है। भले ही विपक्ष मुख्य सत्ताधारी पार्टी पर ये आरोप प्रत्यारोप लगाये की ईडी और सीबीआईं सरकार के इसारे पर बदले की भावना से कार्य कर रही पर आप आरोप लगा कर खुद को बचा भी नहीं पा रहे। आखिर आप पकड़े जा रहे आपकी चोरी सरे आम उजागर हो तो रही मतलब आपने भ्रष्टाचार किया है तभी आप ई डी के हत्थे चढ़ रहे। सरकार बेशक अपना काम करा रही पर आप के पास से अवैध दस्तावेज और बेनामी सम्पत्ति व बड़ी मात्रा में नगद मिल रहे तो आप बिल्कुल भ्रष्ट साबित हो रहे। ममता बेनर्जी भी खुद के पैर पर कुल्हाड़ी चला चुकी है क्योंकि शारदा चिटफंड मामले में सीबीआईं को रोकने के लिए सत्ता का दुरुपयोग जिस प्रकार दीदी ने किया यदि हिटलर जिंदा होता तो ममता दीदी की तानाशाही देख आत्महत्या कर लेता।

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बेरोजगारी के वादे पर चुनावी जीत?

चुनावी सरगर्मियां बढ़ गई है। इन दिनों बेरोजगारी खत्म करने का वादा या न्यूनतम आमदनी के वादे पर वोट हासिल करने की जोर आजमाइश जारी है। कांग्रेस का कहना कि जीतने के बाद देश के हर नागरिक को न्यूनतम आमदनी देगी। कुछ इसी तरह दो करोड़ नौकरी देने का वादा वर्तमान सरकार ने बेरोजगारी को लेकर किया था और जो पूरा नहीं हो सकने कारण युवा वर्ग निराश और नाराज है।
राहुल गांधी का न्यूनतम आमदनी देने का वादा महज चुनावी लगता है। हर देशवासी को न्यूनतम आमदनी देने का भार क्या राजस्व सहन कर पाएगा? और क्या इस तरह गरीबी खत्म हो पाएगी? और यह धन कहां से आएगा? इन सवालों का जवाब नहीं है कांग्रेस के पास। इंदिरा गांधी की तरह “गरीबी हटाओ” के नारे की तरह वोट बैंक हासिल करने का मात्र उपाय पर है या फिर क्या यह मनरेगा की तरह ही स्कीम है ? क्या इससे गरीबी और बेरोजगारी की समस्या हल हो जाएगी?
कांग्रेस मेनिफेस्टो “हम निभायेंगे” के अनुसार 72000 गरीबों के खाते में हर साल दिये जायेंगे, 22 लाख नौकरी और 10 लाख रोजगार की बात और किसानों के लिए अलग बजट की वादे क्या कांग्रेस को सत्ता वापस दिला पायेगी? वर्तमान सरकार ने भी इन्हीं वादों पर सरकार बनाई थी और वादा न पूरा होने पर आज युवा वर्ग में नाराजगी व्याप्त है। महज चुनावी वादों पर राजनीति तो हो सकती है लेकिन सरकार नहीं बनाई जा सकती है।

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चुनाव 2019: तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा

इस बार का आम चुनाव तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूंगा की उक्ति को चरितार्थ करता हुआ दिखायी दे रहा है। राजग सरकार ने अपने अन्तरिम बजट में देश के करीब 12.56 करोड़ किसानो को प्रति वर्ष छै हजार रुपये तथा असंगठित क्षेत्र के 42 करोड़ मजदूरों को प्रति माह तीन हजार रुपये तक पेंशन देने की घोषणा करके सत्ता में वापसी का गणित लगाया था। परन्तु राहुल गाँधी ने देश के 5 करोड़ सर्वाधिक गरीब परिवारों को 72 हजार रुपये प्रति वर्ष देने की घोषणा करके सबको चैका दिया है। आगे यदि कोई अन्य दल इससे भी बड़ी घोषणा कर दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। इस तरह की घोषणाएँ सुनने में भले ही अच्छी लगती हों। परन्तु इनका दूरगामी परिणाम मीठे जहर की तरह ही सिद्ध होता है।
किसी भी देश के नागरिकों को रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, सुरक्षा, बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना उस देश की सरकार का प्रमुख दायित्व है। जो भी देश अपने प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के उपरोक्त सेवायेँ मुहैया कराने में सफल हो जाय। उसे ही सही अर्थों में विकसित देश की संज्ञा दी जानी चाहिए।

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