गेम ओवर हो गया। ‘पवार’ गेम के आगे महाराष्ट्र के नंबर गेम में भाजपा की यह हालत होनी ही थी। जिस तरह सत्ता पर काबिज होने के लिए उसने हक़ीकत को नज़रअंदाज कर उतावलापन दिखाया, उससे इस खेल में उसकी हार सुनिश्चित थी। बावजूद इसके उसने हर जरिये से हर हथकंडे अपनाने की कोशिश की। और, जब अंतत: कोई चारा नहीं बचा तो 80 घंटे के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को इस्तीफा देकर शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार का रास्ता साफ करना पड़ा।
अंतत: अब यह तय हो गया है कि महाराष्ट्र में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनने जा रही है। और इस सरकार का नेतृत्व करेंगे शिवसेना के उद्धव ठाकरे। जाहिर है जब सरकार की सूरत साफ लग रही है, तो इस सरकार के भविष्य को लेकर बहस-मुबाहिसों का दौर भी शुरू हो गया है। बहुतों का मानना है कि बेमेल गठबंधन की यह सरकार ज्Þयादा दिनों तक चल नहीं पाएगी। कारण, एक तरफ शिवसेना जैसी हिंदुत्वादी विचारधारा वाली पार्टी है तो दूसरी तरफ एकदम विपरीत विचारधारा वाली एनसीपी, कांग्रेस जैसी पार्टियां। नितिन गडकरी समेत कई नेताओं ने कहा है कि यह अवसरवादी सरकार होगी और बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। वहीं कई तो अब भी इस खेल में भाजपा को ही विजेता बता रहे हैं। यह कहते हुए कि यह सरकार कुछ महीनों में जब गिर जाएगी, तो शिवसेना को अंतत: भाजपा के साथ आना होगा। तब उसकी अकड़ भी खत्म हो जाएगी और भाजपा का मुख्यमंत्री भी उसे स्वीकार करना पड़ेगा। इस प्रकार देर से ही सही भाजपा को अपने नेतृत्व में सरकार बनाने में भी कामयाबी मिल जाएगी और उसकी छवि भी ऐसी बनेगी कि सत्ता के लिए वह शिवसेना के आगे नहीं झुकी। समझौता नहीं किया, जबकि शिवसेना की छवि अवसरवादी की बनेगी कि सत्ता की खातिर इस हिंदुत्ववादी पार्टी ने उस विचारधारा वाली पार्टियों का हाथ थामा जो हिंदुत्व की विरोधी रही हैं।
यहां यह बात उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में नई सरकार ही नहीं बन रही, बल्कि नई परंपरा भी शुरू हो रही है। और यह परंपरा इस सरकार को स्थायित्व देती नजर आ रही है। जिस प्रकार नरेंद्र मोदी और अमित शाह की छत्रछाया में भाजपा का सफर चल रहा है, उससे विपक्ष ही नहीं उसके सहयोगी दलों में भी बेचैनी है। यह अलग बात कि उस बेचैनी को पहले ये न जाहिर कर रहे थे और न उससे बाहर निकलने की कोशिश। लेकिन पहले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान जैसे सूबों में आए नतीजों और फिर हरियाणा, महाराष्ट्र के परिणाम ने उन्हें इस दिशा में बढ़ने की खुराक दी है। झारखंड में आजसू ने यूं ही गर्दन ऊंची कर भाजपा से अलग होने का फैसला नहीं कर लिया। पासवान की पार्टी भी वहां 50 सीटों पर भाजपा से अलग ही चुनाव लड़ रही है, जबकि केंद्र में वह भाजपा के साथ सरकार में शामिल है। यानी सत्ता के साथ रहकर भी एनडीए के सहयोगी दल अब अपने भविष्य को लेकर गंभीर हैं।
इसी गंभीरता ने महाराष्ट्र में शिवसेना को उस मोड़ पर ला खड़ा किया कि उसे भाजपा के मुकाबले एनसीपी और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने से गुरेज न हुआ। यह जरूर है कि उसे इसके लिए कदम बढ़ाने में एनसीपी छत्रप शरद पवार ने उत्प्रेरक की भूमिका निभाई। हौसला देकर और रास्ता सुझाकर। यानी पर्दे के पीछे आज की स्थिति के लिए पवार ही मुख्य सूत्रधार हैं। चिंगारी को हवा देकर उन्होंने महाराष्ट्र की सियासत को उस ओर मोड़ दिया, जहां भाजपा अब बिल्कुल अकेली पड़ गई और शिवसेना, एनसीपी, कांग्रेस विजेता के रूप में खड़ी हैं। और विजेता कभी नहीं चाहेंगे कि आगे उनकी हार हो। वे पूरी कोशिश करेंगे कि उनकी साझा सरकार पूरे पांच साल चले। वैसे भी शिवसेना तो अब नहीं ही चाहेगी कि उसके नेतृत्व वाली सरकार अस्थिर हो जिसकी कमान उद्धव ठाकरे के हाथों में होगी। भाजपा के साथ लाभ का भ्रम तो उसका पहले ही टूट चुका है। गौरतलब है कि 2014 में जब शिवसेना अकेली लड़ी थी तो उसकी 68 सीटें आई थीं, जो इस बार साथ लड़ने पर 56 हो गईं।
बताया जाता है कि चुनाव से पहले भी शरद पावर ने भाजपा से परेशान शिवसेना को उसके पाले से बाहर रखने की प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कोशिशें की थी, लेकिन यह परवान नहीं चढ़ पाया तब। हालांकि पवार अपने प्रयास में लगे रहे। प्रयास ही थे कि नतीजों के बाद अचानक ही शिवसेना के सुर बदल गए। प्रयास ही थे कि अब तक बाहर बैठकर ठकुराई करने वाले ठाकरे परिवार का सदस्य पहली बार चुनाव मैदान में उतरा। भविष्य के किन्तु-परन्तु के दृष्टिगत ही आदित्य ठाकरे को चुनाव मैदान में उतारा गया। दरअसल पवार ने उद्धव के दिमाग में यह बात डाल दी थी कि भाजपा के साथ रहने के कारण ही शिवसेना 68 से 56 पर आ गई और अगर साथ बना रहा तो अगले चुनाव में 26 पर आ जाए, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। पहले से किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में चल रहे उद्धव की आंखें पूरी तरह खुल गईं और उन्होंने खुल कर खेलना शुरू कर दिया। मोदी शाह की भाजपा को लगा कि ऐसी घुड़की तो शिवसेना पहले भी देती रही है, झुकना क्या। हार कर उसे भाजपा के आगे झुकना ही होगा। वैसे भी मोदी शाह की जोड़ी अपने सामने वालों के आगे झुकना नहीं, उसे झुकाना पसंद करती है। लेकिन इस बार यह जोड़ी अपने खेल में मात खा गई और पवार अपने खेल में कामयाब हो गए।
वैसे भी पवार राजनीति के घाघ खिलाड़ी हैं। सरकार गठन को लंबा खींचना भी उनकी चाल थी ताकि शिवसेना और भाजपा के बीच तल्खियां इतनी बढ़ जाए कि फिर वापस कदम खींचना दोनों के वश में न रह पाए। इस बीच उन्होंने कांग्रेस को भी यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली कि महाराष्ट्र जैसे कॉरपोरेट बहुल राज्य में अगर वे सत्ता से दूर रही, तो इसका राजनीतिक नुकसान होगा। यह सच है कि कांग्रेस कदापि इस दिशा में विचार नहीं कर रही थी, लेकिन पवार ने सोनिया को अंतत: इसके लिए मना लिया। उद्धव ठाकरे को मनाने में उन्हें इस लिहाज से भी कामयाबी मिली कि दोनों के परिवार में रिश्तेदारी है। शरद पवार की सुपुत्री सुप्रिया सुले का उद्धव ठाकरे की मां के घर से रिश्ता है। यानी ईडी भेज कर पवार के पावर को काबू करने की कोशिश करने वाली भाजपा आखिरकार पवार के चक्रव्यूह में फंस गई।
इस पूरे प्रकरण में पवार योद्धा बनकर उभरे हैं। शिवसेना की तरफ से किसी अन्य को मुख्यमंत्री बनाने की जगह उद्धव ठाकरे को सरकार का नेतृत्व करने को राजी कर भी पवार ने सरकार के स्थायित्व को सुनिश्चित करने का प्रयास किया है। कांग्रेस को भी सरकार में शामिल कराकर उन्होंने कोई कसर न छोड़ने का ही इंतजाम किया है ताकि सरकार भी चले और हर पक्ष लाभान्वित हो। यह अलग बात कि सबसे ज्यादा लाभ में पवार ही होंगे। सरकार पर उनकी पकड़ इस लिहाज से भी ज्यादा होगी कि उद्धव के पास सरकार चलाने का तजुर्बा नहीं है। जाहिर है उन्हें दिशा-निर्देश पवार से ही मिलेगा। और जब सरकार पर पकड़ पवार की होगी तो आर्थिक राजधानी मुंबई से मजबूत होने वाली उनकी सियासत भी और मजबूत ही होती जाएगी।
यानी मराठा छत्रप ने सरकार का इंतजाम भी कर दिया और मराठा राजनीति का खुद को सिरमौर भी साबित कर दिया। भूलें नहीं कि ब्राह्मण मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस को लेकर कहा गया था कि अपने शासनकाल में उन्होंने मराठा नेताओं को पार्टी के भीतर किनारे लगाने का काम किया। और यह जाहिर भी हो चुका है अब। तो क्या भाजपा के लिए नई परिस्थितियों में चुनौती बढ़ेगी? आसार ऐसे हैं। बहरहाल, महाराष्ट्र में नई सरकार का इंतजार खत्म हो चुका है। हनीमून कब खत्म होगा, दावे के साथ इस वक्Þत कोई कुछ नहीं कह सकता। जहांपनाह, सियासत के मंच पर हम तो सिर्फ दर्शक हैं, पट के पीछे हमेशा कुछ न कुछ तो चलता ही रहेगा।