आज भारत उस मुकाम पर पहुंच चुका है जहां तीन तलाक से मुक्ति मिल चुकी है, कश्मीर में धारा 370 से मुक्ति मिल चुकी है, अयोध्या जैसी समस्या का समाधान किया जा चुका है, समान आचार संहिता लागू करने की बात की जा रही है, हम टेक्नोलॉजी की ऊंचाइयों तक पहुंच चुके हैं पर रेपिस्ट के लिए कठोर कानून, फास्ट ट्रैक अभी तक मुकर्रर नहीं, किसी केस में फांसी की सजा मुकर्रर होती भी है तो भी विलंबित हो जाती है। ऐसे में हमारा चांद पर परचम लहराना भी वृथा है जहां धरती पर ही बेटियां महफूज नहीं। शहरों की तो बात छोडि़ए, यहां देवभूमि हिमाचल में भी वहां के लोगों को आज भी भोले-भाले लोगों की संज्ञा दी जाती है, संस्कृति, भाईचारे की बात की जाती है, सुरक्षित माहौल की बात की जाती है, यहां पर भी गुडि़या रेप केस ने पूरे हिमाचल को झकझोर कर रख दिया है और आरोपी अभी तक नहीं पकड़े गए हैं। ऐसे में बेटियां कैसे महफूज रहें। निर्भया, गुडि़या, आशिफा, ट्विंकल को कैंडल मार्च के अलावा और कौन सा न्याय मिला जो प्रियंका को मिलने वाला है! जीवन में पहली बार कलम की स्याही सूखने का मतलब समझ आया जब प्रियंका के लिए कुछ लिखने में दिलो दिमाग में सन्नाटा सा छा गया। 16 दिसंबर 2012 को निर्भया गैंगरेप के बाद महिला सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा था। भारत की पूरे विश्व में किरकिरी हुई थी। अपराधियों ने जिस विभित्सा के साथ निर्भया की इज्जत को तार-तार किया वह विभित्सा भी हमारे कानून को कठोर नहीं कर पाई। हम उस देश के वासी हैं जहां सीता हरण के आरोपी रावण का पुतला आज तक जला रहे हैं, लेकिन आज यहां बेटियां नुचे जाने के बाद जिंदा जलाई जा रही हैं। यहां बलात्कर के बाद बेटियों के खून से जमीन लाल की जा रही है। जहां वृंदा जैसी नारियों ने अपमान के बदले विष्णु भगवान को भी पत्थर बना दिया मगर आज देश के कर्णधार बेटियों की सुरक्षा के नाम पर स्वयं पाषाण बन बैठे हैं। इक्कीसवीं सदी को नारी की सदी के रूप में देखा जा रहा है। महिला सशक्तिकरण, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे अभियान जोरों पर हैं। महिलाएं आसमान चीरकर अंतरिक्ष में जा रही हैं, क्षीर सागर की गहराइयां पार कर रही हैं, हर क्षेत्र में अग्रणी हैं। अफसोस मगर सुरक्षित नहीं हैं! बलात्कार की घटनाएं रोज पर रोज बढ़ती जा रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन लगभग 50 बलात्कार के मामले थानों में पंजीकृत होते हैं। इस तरह भारत में दो महिलाएं प्रति घंटा अपनी अस्मत गंवा देती हैं। अधिकतर बलात्कार के मामले लोकलाज के डर से पंजीकृत ही नहीं किए जाते हैं। यौन मामलों की दर अलग है। यही नहीं जहां बच्चों के साथ बलात्कर के 8-9 हजार मामले आते हों वहां पर भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक अपराध से मुक्ति कैसे मिले समझ से परे है। इस तरह की घटनाएं कन्या भ्रूण हत्या को और ज्यादा बढ़ावा दे रही हैं। लोग कहने लगे हैं कि उनकी लाड़ली गुडि़या को अगर विभित्सा से ही असुरक्षित माहौल में मरना हो, अगर उसे डर-डर के ही पालना हो तो उससे अच्छा है उसे कोख में ही मार देना। निर्भया केस जिसने संपूर्ण राष्ट्र की सामूहिक चेतना को झकझोर दिया था वृथा ही रही क्योंकि बलात्कार का विभित्स नंगा नाच आज भी जारी है। दुनिया में ऐसे कई देश ऐसे हैं जहां बलात्कर जैसे अपराध के लिए सख्त सजाएं दी जाती हैं। ग्रीस में इस जुर्म के अपराधी को उम्र कैद की सजा दी जाती है जबकि कैद में अपराधी को जानवरों की भांति बेडि़यों में बांध कर रखा जाता है। चीन में रेप की सजा में कई अपराधियों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। अफगानिस्तान में रेपिस्ट को सीधे तौर पर मौत की सजा दी जाती है। उत्तर कोरिया में रेपिस्ट के सिर पर कई-कई गोलियां दाग दी जाती हैं। यूएई के कानून के तहत यदि कोई सेक्स से जुड़ा अपराध हो तो सात दिन के अंदर उसकी मौत निश्चित है। सऊदी अरब में बलात्कार के अपराधी पर तब तक पत्थर मारे जाते हैं जब तक वह मर न जाए। एक हमारा ही देश है जहां बेटियों को पूजा भी जाता है, कन्या भ्रूण मारा भी जाता है, यौन शोषण, बलात्कार भी होता है, दहेज के लिए भी जलाया जाता है, बेटा न जनने पर प्रताडि़त किया जाता है । स्त्री जाति के प्रति ऐसी दोहरी मानसिकता का उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं। त्रासदी यह है कि बलात्कारियों को वकील भी मिल जाते हैं और संरक्षण भी। सख्त कानून हैं भी तो तारीख दर तारीख बलात्कार की पीडि़ता व पीडि़त परिवार रोज बलात्कारित होता है कभी कानून के सवालों से कभी समाज की नजरों में। दुख तो इस बात का है कि बलात्कार की वेदना का सामाजिक दंश भी महिला के ही हिस्से आता है। शर्म, लाज, इज्जत सब महिला की ही लुटती है। जान केवल महिला की ही जाती है चाहे वह भ्रूण में जाए, चाहे जन्म लेने के तुरंत बाद जाए, यौन हिंसा में जाए, दहेज की आग में जाए या बलात्कार के बाद जिंदा जलाया जाए। सर उसी का झुकता है। आखिर समाज उसे सम्मान से जीने का हक क्यों नहीं दे रहा! हमारा चांद पर पहुंचना, विश्व विजयी मूर्तियां बनाना, विश्व शक्ति का डंका बजाना सब वृथा है अगर एक कन्या, एक युवती, एक स्त्री इस देश में सुरक्षित नहीं। धिक्कार है ऐसे विकास पर। गऊओं को ठंड से बचाने के इंतजाम किए जा रहे हैं पर ये संवेदनशीलता महिलाओं के नाम पर शून्य हो जाती है। हम लोग मानवता से इतना नीचे गिर चुके हैं कि बलात्कार की पीड़ा को भी पहले धर्म की आंखों से देखते हैं और इस पर बवाल मचाते हैं। सरकार में मनोनीत महिलाएं केवल पार्टियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं महिलाओं के मामलों में वे भी चेतना शून्य हैं। उच्च घरानों, धनाड्य परिवारों, सत्ताधारियों की बहू-बेटियां यूं भी सुरक्षा दायरे में होती हैं, समाज उन्हें हाथ लगाने से भी डरता है शायद इसीलिए ऊपर का समाज इस वेदना से चेतना शून्य है और आम आदमी की बेटियों पर उनके कपड़ों, उनके पुरुष मित्रों या फिर देर रात घर से बाहर निकलने को जिम्मेदार ठहराकर मामले से इतिश्री कर ली जाती है। कुछ साल पहले एक मिर्च स्प्रे भी बनाया गया था। मगर ये केवल समाचार बन कर ही रह गए। महिलाओं के हाथ कुछ भी नहीं आया उल्टा बलात्कार, यौन हिंसा बदस्तूर जारी है। अपनी आशंका से घर, स्कूल या कार्यालय में अवगत जरूर कराएं। जहां तक हो सके देर रात घर से अकेले न निकलें। किसी गलत आशंका की हल्की सी भी भनक लगे तो 100 नंबर घुमाकर अपनी लोकेशन बताकर सहायता मांगें। ऐसे संवेदनहीन समाज में अपनी सुरक्षा का बीड़ा महिलाओं को खुद ही उठाना होगा। चौकस रहें, सजग रहें, आत्म रक्षा के लिए सदैव तैयार रहें। मुझे याद है एक समय सोशल मीडिया में बाढ़ सी आई थी यह लिखने की कि ‘हां, मैं भी चौकीदार’। पता नहीं यह किसकी चौकीदारी की बात हो रही थी! सुरक्षा की चौकीदार स्वयं बने स्त्री।