‘हम लोगों के लिए स्त्री केवल गृहस्थी के यज्ञ की अग्नि की देवी नहीं अपितु हमारी आत्मा की लौ है, रबीन्द्र नाथ टैगोर।’
8 मार्च को जब सम्पूर्ण विश्व के साथ भारत में भी ‘महिला दिवस’ पूरे जोर शोर से मनाया जाता है और खासतौर पर जब 2018 में यह आयोजन अपने 100 वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है तो इसकी प्रासंगिकता पर विशेष तौर पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
जब आधुनिक विश्व के इतिहास में सर्वप्रथम 1908 में 15000 महिलाओं ने न्यूयॉर्क शहर में एक विशाल जुलूस निकाल कर अपने काम करने के घंटों को कम करने, बेहतर तनख्वाह और वोट डालने जैसे अपने अधिकारों के लिए अपनी लड़ाई शुरू की थी तो, इस आंदोलन से तत्कालीन सभ्य समाज में महिलाओं की स्थिति की हकीकत सामने आई थी।
उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि अगर वोट देने के अधिकार को छोड़ दिया जाए तो पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के वेतन और समानता के विषय में भारत समेत सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं की स्थिति आज भी चिंतनीय है।
विश्व में महिलाओं की वर्तमान सामाजिक स्थिती से सम्बन्धित एक रिपोर्ट के अनुसार, अगर भारत की बात की जाए, तो 2017 में लैंगिक असमानता के मामले में भारत दुनिया के 144 देशों की सूची में 108 वें स्थान पर है जबकि पिछले साल यह 87 वें स्थान पर था। किन्तु केवल भारत में ही महिलाएँ असमानता की शिकार हों ऐसा भी नहीं है इसी रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि ब्रिटेन जैसे विकसित देश की कई बड़ी कंपनियों में भी महिलाओं को उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। वेतन से परे अगर उस काम की बात की जाए जिसका कोई वेतन नहीं होता, जैसा कि हाल ही में अपने उत्तर से विश्व सुन्दरी का खिताब जीतने वाली भारत की मानुषी छिल्लर ने कहा था, और जिसे एक मैनेजिंग कंसल्ट कम्पनी की रिपोर्ट ने काफी हद तक सिद्ध भी किया। इसके मुताबिक, यदि भारतीय महिलाओं को उनके अनपेड वर्क अर्थात वो काम जो वो एक गृहणी, एक माँ, एक पत्नी के रूप में करती हैं, उस के पैसे अगर दिए जाएं तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था में 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान होगा। और इस मामले में अगर पूरी दुनिया की महिलाओं की बात की जाए तो यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट के अनुसार उन्हें 10 ट्रिलियन अमेरिकी डालर अर्थात पूरी दुनिया की जीडीपी का 13 प्रतिशत हिस्सा देना होगा।
लेख/विचार
सोशल और डिजिटिल मीडिया यही तय करेंगे ‘बाजार का ट्रेंड’ और ‘राजनीति’ की धारा!
बदलते समय के साथ विज्ञापन, मार्केटिंग और ब्रांडिंग को लेकर कई नए ट्रेंड सामने आए हैं जो आने वाले दिनों में नई उम्मीद जगाते हैं। खास बात ये कि इसकी नीव रखी है डिजिटिल मीडिया, सोशल मीडिया और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग (एआर) ने! विज्ञापन बाजार पर नए ट्रेंड का बढता महत्व और टेक्नोलॉजी का विज्ञापन पर बढ़ता प्रभाव सबसे महत्वपूर्ण है।अब सिर्फ अखबारों में या टीवी पर विज्ञापन देना काफी नहीं है। नया ट्रेंड सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया पर अपने प्रोडक्ट को विज्ञापित करना है। आंकड़े बताते हैं कि प्रिंट मीडिया का बाजार 8 प्रतिशत, टीवी 12 प्रतिशत और डिजिटल / सोशल मीडिया का 24 प्रतिशत प्रति साल की दर से बढ़ रहा है। आने वाले सालों में डिजिटल और सोशल मीडिया का बाजार और ज्यादा तेजी से बढ़ेगा! इसका सीधा सा कारण है कि विज्ञापन एजेंसियों को जहाँ उपभोक्ता दिखेगा, वहीं वे उसे प्रभावित करने की कोशिश करेंगी। ऐसे में तय है कि 2018 में सबसे ज्यादा प्रभावशाली क्षेत्र यही होगा।
2018 में विज्ञापन जगत के हॉट ट्रेंड के ब्रांड का फोकस डिजिटिल और सोशल मीडिया होगा। सबसे ज्यादा विस्तार होने वाला क्षेत्र डिजिटल मीडिया ही होगा। जो माहौल 2017 में दिखाई दिया, उसके मुताबिक डिजिटल, सोशल और इंफ्लुएंसर मार्केटिंग हर मामले में हावी रहेगा। 2018 में ‘एआरटी’ यानी ‘ऑगमेंटेड रियलिटी टेक्नोलॉजी‘ का ही विज्ञापन बाजार पर असर बढ़ता दिखेगा। आने वाले सालों में विज्ञापन जगत में वीडियो का भी दखल बढ़ेगा, जिसका चलन सोशल मीडिया में शुरू भी हो गया है। इससे ब्रांड और उपभोक्ता के बीच की दूरी घट रही है। इसके अलावा अब रीजनल प्लेयर्स भी इस मैदान में दिखाई देंगे। लेकिन, हर ब्रांड का फोकस डिजिटल मीडिया पर ही होगा। स्मार्टफोन ने ब्रांड-कंज्यूमर की दूरी को कम कर दिया है। अनुमान कि 2018 में डिजिटल मार्केटिंग 25-30 फीसदी बढ़ेगी। इसलिए कि ब्रांड की उपभोक्ता तक पहुंच आसान हुई है।
देश में अनुमानतरू तकरीबन 12 से 15 करोड़ से अधिक ऐसे लोग हैं जो इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तीन करोड़ से ज्यादा लोग रोज ऑनलाइन होते हैं। इसके अलावा देश में सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल करने वाले करीब 5 से 6 करोड़ लोग हैं। इनमें ज्यादातर लोग फेसबुक और लिंक्डइन पर हैं। इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले सभी लोगों में करीब 70 फीसदी लोग वहां रियलिटी शो, फिल्म के ट्रेलर, विज्ञापन आदि से जुड़े वीडियो भी देखते हैं। देश में 10 हजार से ज्यादा इंटरनेट कैफे हैं। इसके अलावा देश में करीब 20 करोड़ मोबाइल फोन कनेक्शन हैं, जिनमें से करीबन 15 प्रतिशत स्मार्ट फोन हैं, जिनपर इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। ये आंकड़े अपने आप में बहुत व्यापक नजर आते हैं। लेकिन, जब 1.2 अरब की आबादी के नजरिए से देखा जाए तो ये उतने व्यापक नजर नहीं आते। इसलिए जब डिजिटल मीडिया को एक सहायक माध्यम के तौर पर देखा जाता है, तो आश्चर्य नहीं होता है। हालांकि, यह बात सोचने की है कि क्या हमारे पास इस विस्तार को मापने का सही पैमाना है और क्या पहुंच के मामले में डिजिटल मीडिया बहुत जल्द बड़ा स्वरूप ग्रहण कर लेगा?
सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने
सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने, कृषि विविधिकरण की जनपद में असीम सम्भावनायें
सफेद गाजर में पाया जाने वाला अल्फा और बीटा केटोरीन शरीर को रोगों से राहत दिलाने में बहुत मदद करता है
कानपुर देहात, जन सामना ब्यूरो। सफेद गाजर की कृषि को भी कृषक जाने तथा जनपद में कृषि विविधिकरण की असीम सम्भावनायें है। जनपद में सफेद गाजर सहित कई कृषि विविधिकरण से संबंधित कृषि को किया जाना है जिसकी जनपद में असीम संभावनायें है। सफेद गाजर में पाया जाने वाला अल्फा और बीटा केटोरीन शरीर को रोगों से राहत दिलाने में बहुत मदद करता है, मुबारकपुर आजमगढ़ जाकर प्रगतिशील कृषि सफेद गाजर की ले जानकारी, मुबारकपुर सफेद गाजर का हलुवा विश्व प्रसिद्ध, जो मांग व रिश्तेदारों भेटस्वरूप दुबई अन्य खाड़ी देशों में भी जाता है।
केवल वयस्कों के लिएः होली आ रही है
एक महोदय ने कहा होली आ रही है कुछ लिखिए। चलो भाई निराश नहीं करता लिखे देता हूं । लेख लिखने से पहले एक खुलासा करना जरूरी है। मेरे सिर के लम्बे बाल, लम्बी दाढ़ी-मूंछ देखकर कहीं आप इस भ्रम में न पड़ जायें कि मैं सन्त हूॅं , महन्थ हूॅं। मैं सोलहों आने या यों कहें कि सौ टन्च (शुद्ध) गृहस्थ हूॅं-वशिष्ठ की तरह, अत्रि जी की तरह, गौतम ऋषि की तरह। मैं यकीन भी इसी में करता हूॅं -सन्त, महन्थ का जीवन जिया जाये किन्तु जीवन संगिनी को साथ रखकर। मैं महन्थ की गद्दी सम्हाल और चिकनी-चिकनी शिष्याओं को परदे के पीछे बुलाऊं यह मेरे वश में नहीं। मैं गृहस्थ सन्त हूॅं ,महन्थ हूॅं। नाती-पोतों-परपोतों से हरे भरे परिवार वाला सन्त-महन्थ हूॅं। मेरा यह लेख इसी टाइप के गृहस्थ द्वारा लिखा गया लेख है।
मेरे इस लेख पर लेखक संघ का यह निर्णय कि यह लेख केवल वयस्कों के लिए है, कोई मायने नहीं रखता। फिल्म में अवयस्क ताक-झांक करते हैं इस लेख में भी ताक-झांक करेंगे, तो फिर ‘‘केवल वयस्कों के लिए’’ प्रमाणपत्र जारी करने की फार्मेलिटी वृथा है। अब तो इन्टरनेट का जमाना है, सबके लिए सब उपलब्ध है। यहां तक कि पे्रक्टिकल भी। बढ़ती आयु के साथ जो मीठा-मीठा दर्द आटोमेटिक बढ़ता था, सब कुछ आटोमेटिक होता था। कुछ पढ़ने पढ़ाने की आवश्यकता नहीं थी, उस स्व-उत्पन्न सेक्स को अब पाठ्यक्रमी कर दिया गया है। अब स्कूलों में सेक्स शिक्षा के बिना शिक्षा अधूरी है, ऐसा उन्नतिशील चिन्तक मानते हैं। ये उन्नतिशील चिन्तक, चिन्तक कम राजनेता अधिक हैं ,उस पर भी पाश्चात्य संस्कृति से सराबोर। मतलब करेला उस पर भी नीम चढ़ा। भला हो हमारे पूर्वजों का जिन्होंने बिना सेक्स शिक्षा के आटोमेटिक उत्पन्न मीठे मीठे दर्द के साथ स्वस्थ रहे-सण्ड मुसण्ड रहे और स्वस्थ सण्ड मुसण्ड सन्तानें पैदा की। अब शायद सरकार-सरकारें ऐसा नहीं मानती। उन्हें लगता है कि बिना पढ़ाई लिखाई के आटोमेटिक उपजने वाला मीठा दर्द बिना प्रेक्टिकल शिक्षा के किसी काम का नहीं। अब तो सरकार-सरकारें सभी प्रकार के सेक्स जायज करने पर तुली हैं जिसमें समलैंगिकता को मान्यता देना भी एक है।
2019 का ‘संग-राम’ इसी साल!
लखनऊ मुल्क के वजीर-ए-खजाना जिस समय संसद में 2018-19 का बजट भाषण पढ़ रहे थे ठीक उसी समय राजस्थान और पश्चिम बंगाल में उपचुनाव की 5 सीटों के नतीजों की गिनती हो रही थी। इधर वित्त मंत्री ने गांव, गरीब, किसान पर सरकारी खजाना लुटाकर अपना भाषण खत्म किया, उधर पाँचों सीटों के नतीजों का एलान हुआ। पूरी पांचों सीटें भाजपा बुरी तरह से हार गई। कांग्रेस के प्रवक्ता ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि आज राजस्थान कल पूरा हिंदुस्तान। कुछ ऐसा ही आमार बंगाल में भी सुनने को मिला। यहां यह बताना जरूरी है कि इन उपचुनावों में भाजपा के ‘पोस्टर ब्वाय/स्टार प्रचारक’ नरेंद्र मोदी प्रचार करने नहीं गये थे।
Read More »बंधुता, समता, स्वतंत्रता, न्याय से बनता है ‘एक राष्ट्र’, न कि भूलने सेः सत्येन्द्र मुरली
संविधान लागू होने के दिन अर्थात गणतंत्र दिवस के मौके पर यह कह देना कि ‘देश से प्यार करते हैं तो भूलना सीखें’, यह एक छलावे से कम नहीं है।
जहां तक मैं समझता हूं, यह कहना सरासर नासमझी होगी कि भूल जाने की वजह से ही इटली एक राष्ट्र बना है या फ्रांस भी भूलने की वजह से ही एक राष्ट्र बना है। भूलने से कभी कोई ‘एक राष्ट्र (One Nation) नहीं बनता है।
एक राष्ट्र व उसकी एकता के लिए तो चाहिए बंधुता, समता, स्वतंत्रता, न्याय। सवाल है कि राष्ट्र की एकता व अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए क्या किया जाए?
इसका जवाब है कि राष्ट्र के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराई जाए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा को बढ़ाया जाए।
स्वतंत्रता, समता व बंधुता मिलकर एक संघ का निर्माण करते हैं। इस संघ में स्वतंत्रता व समता को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता व समता को बंधुता से अलग नहीं किया जा सकता है। बंधुता अथवा समता के बिना, स्वतंत्रता से बहुसंख्यक लोगों पर कुछ लोगों का वर्चस्व कायम हो जाएगा। स्वतंत्रता के बिना, समता से व्यक्तिगत पहल (individual initiative) खत्म हो जाएगी। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक समता पूर्ण रूप से अनुपस्थित है।
भारतीय समाज विभिन्न धर्म, जाति इत्यादि में बंटा हुआ समाज है और वर्गीकृत असमानता के सिद्धांत पर आधारित है, जहां अत्यधिक गरीब बहुसंख्यक लोगों की तुलना में, कुछ मुट्ठीभर लोगों के पास अथाह धन-संपदा है। संविधान लागू होने के बाद राजनीति में ‘एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य’ को अपनाया गया है। लेकिन सामाजिक व आर्थिक जीवन में ‘एक व्यक्ति, एक मूल्य’ को आज भी नकारा जाता है। यदि सामाजिक व आर्थिक समता को आगे भी नकारा जाता रहा तो हम अपनी इस राजनीतिक समता को भी खतरे में डाल देंगे और असमानता से पीड़ित लोग ही इस व्यवस्था को उखाड़ फेकेंगे।
यदि शोषक व शोषित अपने-अपने इतिहास को याद नहीं रखते हैं, तो शोषित किस आधार पर अपना हक मांगेगा और शोषक किस आधार पर शोषितों का हक छोड़ेगा?
भारत में अभी भी पकौड़े और चाय में बहुत स्कोप है साहेब
‘साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहै थोथा दे उड़ाय।।’
कबीर दास जी भले ही यह कह गए हों, लेकिन आज सोशल मीडिया का जमाना है जहाँ किसी भी बात पर ट्रेन्डिंग और ट्रोलिंग का चलन है। कहने का आशय तो आप समझ ही चुके होंगे। जी हाँ, विषय है मोदी जी का वह बयान जिसमें वो ‘पकौड़े बेचने’ को रोजगार की संज्ञा दे रहे हैं। हालांकि इस पर देश भर में विभिन्न प्रतिक्रियाएँ आईं लेकिन सबसे अधिक ध्यान आकर्षित किया देश के पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम के बयान ने जिसमें वो इस क्रम में भीख माँगने को भी रोजगार कह रहे हैं। विपक्ष में होने के नाते उनसे अपनी विरोधी पार्टी के प्रधानमंत्री के बयानों का विरोध अपेक्षित भी है और स्वीकार्य भी किन्तु देश के भूतपूर्व वित्त मंत्री होने के नाते उनका विरोध तर्कयुक्त एवं युक्तिसंगत हो, इसकी भी अपेक्षा है। यह तो असंभव है कि वे रोजगार और भीख माँगने के अन्तर को न समझते हों लेकिन फिर भी इस प्रकार के स्तरहीन तर्कों से विरोध केवल राजनीति के गिरते स्तर को ही दर्शाता है।
सिर्फ चिदंबरम ही नहीं देश के अनेक नौजवानों ने पकौड़ों के ठेले लगाकर प्रधानमंत्री के इस बयान का विरोध किया। हार्दिक पटेल ने तो सभी हदें पार करते हुए यहां तक कहा कि इस प्रकार की सलाह तो एक चाय वाला ही दे सकता है। वैसे ‘आरक्षण की भीख’ के अधिकार के लिए लड़ने वाले एक 24 साल के नौजवान से भी शायद इससे बेहतर प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं थी।
रेप स्टेट बन गया है हरियाणा
हम कभी नहीं सुधरेंगे। चाहे देश 69 वां गणतंत्र दिवस मनाए, चाहे भारतीय चाँद पर पहुंच जाएं, चाहे भारत विश्व गुरु हो जाए, चाहे प्रधानमंत्री महोदय रोज बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ नारे का जाप ही क्यों न करते रहें पर हमारे अंदर की हैवानियत कभी जाने वाली नहीं है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी देश की आधी आबादी के खिलाफ शोषण की घटनाओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है। निर्भया कांड के बाद से राजधानी दिल्ली पर रेप कैपिटल का दाग लग गया था। पर अब इस मामले में दिल्ली का कान उसके पड़ोसी हरियाणा ने काट लिया है। वहां 10 दिन में बलात्कार की 10 वारदातों ने पूरे देशभर को झकझोर कर रख दिया है। यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि देशभर में रेप की सबसे ज्यादा घटनाएं मध्यप्रदेश के बाद हरियाणा में हो रही हैं।
अनिल गुप्त की एक गजल है। ये जाल आखिर कब तना, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। बच पाएगी कैसे भला, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। आकाश में हैं बिजलियाँ, सारी धरा पर आग है, कैसे बचेगा घोंसला, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। मिलता नहीं दाना कहीं, कब तक उड़े कैसे उड़े, अब सामने की है हवा, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है। कुछ कैंचियां बेताब हैं, पर काटने को अब अनिल, धूमिल है हर संभावना, चिड़िया बड़ी मुश्किल में है।
हरियाणा में इसी प्रकार के हालात हैं। वहां लड़कियां हो महिलाएं बड़ी मुश्किल में जी रही हैं। वे न तो घर में सुरक्षित हैं, न बाहर। वे आजादी का सुख नहीं भोग सकती। क्योंकि बलात्कार और गैंग रेप के मामले में हरियाणा अब काफी बदनाम हो गया है। कुछ लोग तो अब हरियाणा को रेप स्टेट कहने लगे हैं।
हरियाणा में पिछले 10 दिनों में हुई रेप की 10 बर्बर घटनाओं ने राज्य के साथ पूरे देश को शर्मसार कर दिया है। हद तो यह हो गई कि राज्य के एडीजी आरसी मिश्रा ने बेहद शर्मनाक बयान तक दे डाला। एडीजी आरसी मिश्रा ने शर्मनाक तरीके से रेप को ‘समाज का हिस्सा’ बताते हुए कहा था कि इस तरह की घटनाएं अनंतकाल से होती चली आ रही हैं।
भ्रष्टाचार एक बीमारी
भ्रष्टाचार का सामान्य अर्थ किसी व्यक्ति के द्वारा किसी प्रतिष्ठित पद पर रहते हुए अपनी ताकत का अनुचित रूप से प्रयोग है। वैसे, भ्रष्टाचार शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि यह शब्द एक चोरी, अनैतिक या गलत व्यवहार का आशय है। शाब्दिक रूप में भ्रष्टाचार अर्थात भ्रष्ट-आचार। भ्रष्ट यानी बुरा या बिगड़ा हुआ तथा आचार का मतलब है आचरण। अर्थात भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ है वह आचरण जो किसी भी प्रकार से अनैतिक और अनुचित हो।
जब कोई व्यक्ति न्याय व्यवस्था के मान्य नियमों के विरू( जाकर अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए गलत आचरण करने लगता है तो वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है। आज भारत जैसे सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश में भ्रष्टाचार अपनी जड़ें बहुत तेजी से फैला चुका है। जीवन के हर क्षेत्र में यह बुराई यानी बीमारी मौजूद है। यह एक ऐसी बीमारी है जिससे सभी भली भांति परिचित है। यह किसी भी व्यक्ति की मनोदशा पर हावी होकर उसे दुष्प्रभावित कर सकता है।
भ्रष्टाचार के कई प्रकार होते है। यह प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से संमाज पर दुष्प्रभाव डालता हैं। खेल जगत, शिक्षा जगत, राजनीति एवं विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं में भ्रष्टाचार ने अपनी बुरी छाप को छोड़कर हित में बाधा पहुंचाई है। जैसे रिश्वत, काला- बाजारी, जान-बूझकर दाम बढ़ाना, पैसा लेकर काम करना, सस्ता सामान लाकर महंगा बेचना आदि।
आज के आधुनिक परिवेश में हर पाचँ में से कम से कम चार व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त हैं।जिससे सार्वजनिक संपत्ति की बर्बादी, व्यक्ति बिशेष का शोषण, अनैतिक आचरण अपने पांव दिन रात फैलाए जा रहा है। आज व्यक्ति पैसों के लालच में आकर अपने साथ साथ देश का भी पतन कर रहा है।
भ्रष्टाचार के कई कारण होते हैं। जैसे जब किसी को अभाव के कारण कष्ट होता है तो वह भ्रष्ट आचरण करने के लिए विवश हो जाता है। असमानता, आर्थिक, सामाजिक या सम्मान, पद -प्रतिष्ठा के कारण भी व्यक्ति अपने आपको भ्रष्ट बना लेता है। हीनता और ईर्ष्या की भावना से शिकार हुआ व्यक्ति भ्रष्टाचार को अपनाने के लिए विवश हो जाता है। साथ ही रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद आदि भी भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं।
बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता परीक्षा बोर्ड
इस बार यू.पी. बोर्ड की लिखित परीक्षाएं 6 फरवरी से शुरू होने जा रही हैं। जबकि प्रायोगिक परीक्षाएं जनवरी माह में ही सम्पन्न हो जाएँगी। जिसके कारण कड़ाके की ठण्ड में भी हाईस्कूल तथा इण्टर के छात्र-छात्राओं को विद्यालय बुलाया जा रहा है। ऐसी भीषण सर्दी में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करके परीक्षा बोर्ड घनघोर संवेदनहीनता का ही परिचय दे रहा है। जुलाई की जगह एक अप्रैल से नया सत्र चालू करने की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के चक्कर में ही यह सारी कवायद की जा रही है। इसी कारण वर्ष 2016 में 18 फरवरी से 21 मार्च के बीच परीक्षाओं को सम्पन्न कराया गया था। जबकि वर्ष 2017 में विधान सभा चुनाव के कारण 16 मार्च से 18 अप्रैल के बीच परीक्षाएं करायी गयी थीं। इस वर्ष 2018 में 6 फरवरी से 10 मार्च के बीच परीक्षाएं सम्पन्न कराके बोर्ड एक अप्रैल तक परीक्षा परिणाम देना चाहता है। ताकि नया सत्र अप्रैल माह से सुचारू रूप से चलाया जा सके।
आजादी के बाद सबसे अधिक खिलवाड़ अगर किसी के साथ हुआ है तो वह शिक्षा ही है। उत्कृष्ट शिक्षा के नाम पर हो रहे नित नये प्रयोगों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को अन्ततोगत्वा चैपट ही किया है। शिक्षा का नया सत्र कभी जुलाई से शुरू किया गया था। जो बीते कुछ वर्षों पूर्व तक बना रहा। प्रश्न उठता है कि शिक्षा के नये सत्र की शुरुआत के लिए तब जुलाई माह को ही क्यों चुना गया था? निश्चित रूप से ऐसा मौसम की अनुकूलता के कारण ही किया गया होगा। एक जुलाई से नया सत्र शुरू होता था। उस समय प्रायः बरसात का मौसम होता है। बच्चे नयी कक्षाओं में प्रवेश लेते थे। जुलाई माह में प्रवेश प्रक्रिया सम्पन्न होती थी और अगस्त आते-आते पढ़ाई शुरू हो जाती थी। दिसम्बर माह में छमाही परीक्षाएं होती थीं। उसके बाद शीतकालीन अवकाश हो जाता था। जनवरी माह में सर्दी की न्यूनता और अधिकता के हिसाब से विद्यालय खुलते थे। जबकि फरवरी भर जम कर पढ़ाई होती थी और मार्च के प्रथम सप्ताह में प्रायोगिक परीक्षायें शुरू हो जाती थीं। 15 मार्च के आसपास वार्षिक परीक्षाएं होने लगती थीं। जो कि अप्रैल माह तक चलती थीं। उसके बाद गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाती थीं।