Monday, November 25, 2024
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ईवीएम पर बार बार सवाल क्यों ?

प्रियंका वरमा माहेशवरी 

पिछले काफी समय से ईवीएम पर छेड़छाड़ की खबरें सामने आ रही है और चुनाव बैलेट पेपर से किए जाने पर जोर दिया जा रहा है। एक तरह से देखा जाए तो यह चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा का सवाल है कि उस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त जिस तरह से ईवीएम मशीनों की सुरक्षा व्यवस्था पर जोर देते हैं और जिस तरह से मशीनों के साथ छेड़छाड़ की खबरें आ रही हैं वह मशीनों के सुचारू रूप से कार्य करने की प्रक्रिया को संदेह के घेरे में खड़ा करती है। चुनाव आयोग का कहना है कि ईवीएम मशीन बनने के बाद इनकी विश्वसनीयता की परख की जाती है और उसके बाद ही काम में ली जाती है। हर चुनाव में 20 से 25 प्रतिशत तक अतिरिक्त मशीनें सेक्टर अधिकारी के निगरानी में रखी जाती हैं जिन्हें वह मशीनों के खराब होने पर बदल देता है। ईवीएम मशीन 1982 में कांग्रेस द्वारा लाई गई थी और तब भाजपा ने इस का पुरजोर विरोध किया था और आज हालात वही है, पर उल्टे हैं। आज कांग्रेस विरोध कर रही है और भाजपा समर्थन। तो क्या ईवीएम का विकल्प बैलेट पेपर है?
ईवीएम विवाद के सिलसिले में जर्मनी की सर्वोच्च अदालत के फैसले पर जरूर गौर करना चाहिए। जर्मनी में 2005 में कुछ राज्यों में वोटिंग मशीन का इस्तेमाल हुआ था जिसे लेकर कुछ लोगों ने कोर्ट में चुनौती दी। वहां की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि बैलेट पेपर में भी धांधली हो सकती है मगर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में छोटे से प्रयास से एक बड़े स्तर पर नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है। कोर्ट ने बैलेट पेपर को प्राथमिकता दी।अदालत का वोटिंग मशीन को रिजेक्ट करने का आधार यह भी था कि जनता मशीन और उसके उपयोग को सही तरीके से समझ नहीं पा रही थी। मशीन किस तरह से काम करती है? वोटों की गिनती कैसे होती है? जिस व्यक्ति ने बटन दबाया वह उस व्यक्ति को गया कि नहीं? इस सब बातों की समझ उसे होनी चाहिए और अगर यह बात जनता की समझ से बाहर है तो मशीन के उपयोग का कोई महत्व नहीं रह जाता है। जर्मनी की अदालत ने आयोग या सरकार से ज्यादा जनता की समझ को महत्व दिया और उसने उसी बात पर फैसला दिया। इलेक्ट्रॉनिक मशीनों को नकार कर बैलेट पेपर पर जोर दिया।
अभी हाल ही में लंदन में सैयद शुजा का विवादास्पद बयान है कि वह ईवीएम हैकिंग में साझीदार था। लेकिन इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने सैयद शुजा की किसी भी तरह की मौजूदगी को नकार दिया है। अब सैयद शुजा को अपनी बात साबित करने के लिए तथ्य देने पड़ेंगे। ईवीएम के ही सिलसिले में आयरलैंड की एक जानकारी है कि वहां की सरकार ने 54 लाख यूरो खर्च करके इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन खरीदी थी मगर जनता ने उसे स्वीकार नहीं किया और विवाद हो गया, फलस्वरुप मशीनों को कौड़ी के भाव बेच दिया गया। ध्यान देने वाली बात है कि अमेरिका से लेकर ब्रिटेन और फ्रांस से लेकर ऑस्ट्रेलिया और जापान तक किसी भी देश में ईवीएम से चुनाव नहीं होता है। कुछ देशों ने प्रयोग के बाद इसका इस्तेमाल बंद कर दिया। जिन देशों से यह टेक्नोलॉजी आई वह भी अब बैलेट पेपर पर भरोसा करते हैं।
अभी हाल ही में विधानसभा चुनाव में भोपाल के स्ट्रांग रूम की वारदात जहाँ मतदान खत्म होने के बाद ईवीएम मशीनें रखी गई। वहां अचानक बिजली चली जाने से सीसीटीवी कैमरे करीब 1 घंटे तक बंद रहे और उसकी वजह से सब कुछ ठप्प हो गया। इस घटना के बाद से ही विपक्षी दल ने ईवीएम के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाना शुरू कर दिया। इसी तरह मध्य प्रदेश के खुरई विधानसभा क्षेत्र में से चुनाव समाप्त होने के 48 घंटे बाद ईवीएम मशीनों के सागर पहुंचने की खबर आई। वहाँ पर भी विपक्षी दल ने खूब हंगामा किया। कैमरे बंद होने की वजह से रिकॉर्डिंग नहीं हो पाई। इस तरह से ईवीएम पर उठे सवाल ईवीएम को संदेह के घेरे में खड़ा करते हैं और बैलेट पेपर की प्राथमिकता को दर्शाते हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि जो मशीन ठीक की जा सकती है तो वह खराब भी तो की जा सकती है।
लेकिन एक सवाल यह भी आ रहा है कि जब 2007 में मायावती, 2009 में अखिलेश यादव, ममता बनर्जी दो बार और जब कांग्रेस चुनाव जीतती है तब मशीनों की खराब होने की खबरें क्यों नहीं आती? क्या 2014 से ही मशीनें हैक होनी शुरू हो गई? सत्ता पक्ष के जीतने पर ही मशीनें  खराब होनी शुरू हो जाती हैं या हैक हो जाती है? बीच में एक विवाद उठा था कि आप किसी भी बटन को दबाएं लेकिन वोट भाजपा को ही जा रहा है। इस तरह की खबरों का खंडन करना बहुत जरूरी है। हालांकि अब ईवीएम के साथ वीवीपैट लगा देने से ईवीएम में छेड़छाड़ की संभावनाएं नहीं के बराबर जैसी बताई जा रही है क्योंकि व्यक्ति वीवीपैट पर देख सकता है कि उसका वोट किसे जा रहा है। और अगर बैलेट पेपर को प्राथमिकता दी जानी है तो हंगामा न करके और लोगों को गुमराह ना करके इसका हल निकाला जाना चाहिए ताकि इस मुद्दे पर विराम लग सके। बैलेट पेपर पर बूथ कैप्चरिंग जैसे सवाल आज के वक्त में बेमानी है।