राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों का भारत तो उसी समय मिट गया था जिस समय अहिंसा के पुजारी को हिंसा के आगे अपने प्राण न्यौछावर करने पड़़े थे। इतिहास का वह काला दिन था 3० जनवरी सन 1948, महात्मा गांधी की 125 वर्ष तक जीने की इच्छा सदैव के लिए उन्हें उस लोक में ले गई, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। स्वयं तो चले गये और अपने पीछे छोड़़ गये असंख्य नेत्रों में अश्रु। पिछली शताब्दी के महान पुरूष के कितने ही अधूरे कार्र्याे को पूरा करने वाला आज कोई नहीं। आज एक कुर्सी खाली होते ही उसे भरने वालों की कतारें लग जाती हैं, परन्तु जो पद बापू के जाने के बाद रिक्त हुआ उसे आज तक कोई न भर सका।
वह बापू जिनकी हर बात एक कानून का काम किया करती थी, संकेत मात्र पर हजारों लोग मर-मिटने को तैयार हो जाया करते थे आज उन्हीं की सेवाओं को नकारने वालों की भी कमी नहीं है। महात्मा गांधी 125 वर्ष तक जीकर इस देश में राम-राज्य लाना चाहते थे। लेकिन जैसे-जैसे देश स्वराज प्राप्ति की ओर बढ़़ रहा था, विभाजन की मांग और साम्प्रदायिक दंगे भी बढ़ते जा रहे थे। यही कुछ ऐसे कारण रहे होंगे जिनसे उनमें जीने का उत्साह भी समाप्त हो चला था। वह अपने आपको बोझ मानने लगे थे। 15 अगस्त सन् 1947 को जहां एक ओर भारत स्वतंत्र हुआ वहीं हुए भारत मां के दो टुकड़़े उससे तो गांधी जी भी टूट कर रह गये। फिर भी वह अपने अंतिम समय तक भारत और पाकिस्तान को पुनरू एक करने के प्रयास करते रहे। इसी कड़़ी में ही गांधी जी ने सरोजिनी नायडू को पाकिस्तान भेजा बातचीत करने को अभी वह वहीं थी कि गांधी जी चलते बने और बात फिर खटाई में पड़़ गई।
बापू सच में महात्मा थे। उन्होंने कई बार कहा था कि मुझे महात्मा तभी समझना जब खूनी की गोली खाकर भी मेरे मुंह से राम का ही नाम निकले। मैं सच्चा रामभक्त तभी कहलाऊंगा जब खूनी की गोलियों की बौछार के बीच भी मेरे होंठों पर राम नाम ही हो। और ऐसा हुआ भी उनके होठों से जो अंतिम शब्द निकले वह राम नाम ही था। महात्मा गांधी ने वैष्णव धर्म की कितनी सुंदर व्याख्या की-
वैष्णव जन ते ही कहिये जो पीर पराई जाने रे,
पर दुखे उपकार करे पर मन अभिमान न आने रे।
बात सत्य की कसौटी पर खरी उतरती है। मानव उसी को कहा जा सकता है जो दूसरों के कष्टों को समझे और उन्हें दूर करने के उपाय भी करे। वास्तव में गांधी जी का जीवन ही परोपकार में बीता। वह जहां गये, जहां भी रहे कुछ-न-कुछ करते ही रहे। चाहे दक्षिण अफ्रीका हो, चाहे भारत। इस बात में कोई संदेह नहीं कि उनका सत्य और अहिंसा के महामंत्र का प्रयोग पूरी तरह सफल रहा। गांधी जी स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कई बार अनशन पर बैठे, कितने ही आंदोलन चलाये, सत्याग्रह छेड़़े एवं जेल यात्राएं कीं। आज का भारत और उसके महान कहलाने वाले लोग नेता आदि गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर गांधी जी के बतलाये मार्ग पर चलने की बातें तो करते हैं लेकिन चलता कोई नहीं। सच तो यह भी है कि यदि यह लोग गांधी जी के मार्ग पर चलना शुरू कर दें तो फिर ये भूखे ही मरेंगे। दूसरी ओर यह भी सच ही है कि यदि बापू के बताये मार्ग पर चला जाता तो क्या आज जो समस्याएं हमारे सामने खड़़ी हैं, होतीं? आज देश जिस आग में जल रहा है कम से कम उस पर कुछ तो मरहम लगता। गांधी जी ने कहा था कि असली भारत गांवों में बसता है यानि कि गांवों की दुर्दशा से देश की स्थिति का आकलन किया जा सकता है। उन्होंने दलितों को हरिजन कहा। आज इसी शब्द पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले कितने ही लोग मिल जाते हैं। आज प्रत्येक क्षेत्र में पृथकतावाद अपनी चरम सीमा पर है। हर कोई अपनी अलग पहचान करवाने की होड़़ में हैं। भ्रष्टाचारियों की एक बड़़ी भीड़़ देश को दीमक की तरह खा रही है। बापू की पुण्यतिथि पर एक ही प्रश्न बार बार दस्तक दे रहा है, क्या ऐसे ही भारत का सपना देखा था रार्ष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी ने?
-जोगिन्दर पाल जिंदर (स्रोतः विनायक फीचर्स)