अभी हाल ही में भारत में कोर्ट द्वारा जिस प्रकार से फैसले दिए जा रहे हैं वो देश में निश्चित ही एक सकारात्मक बदलाव का संकेत दे रहे हैं। 24 साल पुराने मुम्बई बम धमाकों के लिए अबु सलेम को आजीवन कारावास का फैसला हो या 16 महीने के भीतर ही बिहार के हाई प्रोफाइल गया रोडरेज केस में आरोपियों को दिया गया उम्र कैद का फैसला हो , देश भर में लाखों अनुनाईयों और राजनैतिक संरक्षण प्राप्त डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम का केस हो या फिर देश के अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े तीन तलाक का मुकदमा हो। इन सभी में कोर्ट द्वारा दिए गए फैसलों ने देश के लोगों के मन में न्याय की धुंधली होती तस्वीर के ऊपर चढ़ती धुंध को कुछ कम करने का काम किया है। देश के जिस आम आदमी के मन में अबतक यह धारणा बनती जा रही थी कि कोर्ट कचहरी से न्याय की आस में जूते चप्पल घिसते हुए पूरी जिंदगी निकाल कर अपनी भावी पीढ़ी को भी इसी गर्त में डालने से अच्छा है कि कोर्ट के बाहर ही कुछ ले दे कर समझौता कर लिया जाए। वो आम आदमी जो लड़ने से पहले ही अपनी हार स्वीकार करने के लिए मजबूर था आज एक बार फिर से अपने हक और न्याय की आस लगाने लगा है। जिस प्रकार आज उसके पास उम्मीद रखने के लिए कोर्ट के हाल के फैसले हैं इसी प्रकार कल उसके पास उम्मीद खोने के भी ठोस कारण थे। उसने न्याय को बिकते और पैसे वालों को कानून का मजाक उड़ाते देखा था। उसने एक अभिनेता को अपनी गाड़ी से कई लोगों को कुचलने के बाद और हिरण का शिकार करने के बावजूद उसे कोर्ट से बाइज्जत बरी होते देखा था। उसने दिल्ली के उपहार सिनेमा कांड में 18 साल बाद आए फैसले में आरोपियों को सज़ा देने के बजाए दिल्ली सरकार को मुआवजा देकर छोड़ने का फैसला देखा था। उसने भोपाल गैस त्रासदी में लाखों लोगों के प्रभावित होने और 3787 लोगों के मारे जाने के बावजूद ( हालांकि अनाधिकृत संख्या 16000 के ऊपर है) उस पर आने वाला बेमतलब का फैसला देखा था। उसने जेसिका लाल की हत्या के हाई प्रोफाइल आरोपीयों को पहले कोर्ट से बरी होते लेकन फिर मीडिया और जनता के दबाव के बाद उन्हें दोषी मानते हुए अपना ही फैसला पलट कर दोषियों को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाते देखा था। उसने न्यायालयों में मुकदमों के फैसले आते तो बहुत देखे थे लेकिन न्याय होता अब देख रहा है। उसने इस देश में एक आम आदमी को न्याय के लिए संघर्ष करते देखा है। उसने इस देश की न्यायिक प्रणाली की दुर्दशा पर खुद चीफ जस्टिस को रोते हुए देखा है।
जिस कानून से वह न्याय की उम्मीद लगाता है उसी कानून के सहारे उसने अपराधियों को बच के निकलते हुए देखा है। दरअसल हमारे देश में कानूनों की कमी नहीं है लेकिन उनका पालन करने और करवाने वालों की कमी जरूर है।
कल तक हम कानून से खेलने वाला एक ऐसा समाज बनते जा रहे थे जहाँ पीड़ित का संघर्ष पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के साथ ही शुरू हो जाता था।
राम रहीम से पीड़ित साधवी का उदाहरण हमारे सामने है। उन्हें अपनी पहचान छिपाते हुए देश के सर्वोच्च व्यक्ति माननीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बयान करनी पड़ी थी फिर भी न्याय मिलने में 15 साल और भाई का जीवन लग गया। यह वो देश है जहाँ बलात्कार की पीड़ित एक अबोध बच्ची को कानूनी दाँवपेंचों का शिकार हो कर 10 वर्ष की आयु में एक बालिका को जन्म देना पड़ता है। जहाँ साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को सुबूतों के अभाव के बावजूद सालों जेल में रहना पड़ता है। जान मार्शल जो कि अमेरिका के चौथे चीफ जस्टिस थे,उनका कहना था कि ‘ न्याय व्यवस्था की शक्ति प्रकरणों का निपटारा करने,फैसला देने या किसी दोषी को सजा सुनाने में नहीं है,यह तो आम आदमी का भरोसा और विश्वास जीतने में निहित है।’ जबकि भारत में इसके विपरीत मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधिपति किरुबकरन को एक अवमानना मामले की सुनवाई के दौरान भारतीय न्याय व्यवस्था के विषय में कहना पड़ा कि देश की जनता पहले ही न्यायपालिका से कुण्ठित है अतः पीड़ित लोगों में से मात्र 10% अर्थात अतिपीड़ित ही न्यायालय तक पहुँचते हैं।
बात केवल अदालतों से न्याय नहीं मिल पाने तक सीमित नहीं थी, बात न्यायिक प्रक्रिया में लगने वाले समय की भी है लेकिन यह एक अलग विषय है जिस पर चर्चा फिर कभी। जब कोर्ट में न्याय के बजाय तारीखें मिलती हैं तो सिर्फ उम्मीद नहीं टूटती हिम्मत टूटती है, सिर्फ पीड़ित व्यक्ति नहीं हारता उसका परिवार नहीं हारता लेकिन यह हार होती है उस न्याय व्यवस्था की जो अपने देश के हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की भी रक्षा नहीं कर पाती। कहते हैं कानून अँधा होता है लेकिन हमारे देश में तो पिछले कुछ समय से वो अंधा ही नहीं बहरा भी होता जा रहा था। उसे न्याय से महरूम हुए लोगों की चीखें भी सुनाई नहीं दे रही थीं। किन्तु आज फिर से इस देश के जनमानस को इस देश की कानून व्यवस्था पर भरोसा होने लगा है कि न्याय की देवी की आँखों पर जो पट्टी अबतक इसलिए बंधी थी कि वह सबकुछ देख कर अनदेखा कर देती थी लेकिन अब इसलिए बंधी होगी कि उसके सामने कौन खड़ा है इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होगा और उनकी नज़र में सब बराबर हैं यह केवल एक जुमला नहीं यथार्थ होगा। डॉ नीलम महेंद्र