भारत और इजरायल के मध्य एक स्वाभाविक वैचारिक और आत्मीय समानता का भाव विद्यमान रहा है। यद्यपि दोनों देश इस प्रकार की कूटनीतिक परिस्थितियों में उलझे रहते हैं कि वे चाहकर भी एक-दूसरे के प्रति संबंधों में गर्माहट का इजहार नहीं कर पाते। भारत में कतिपय घरेलू राजनीतिक कारणों से भी भारतीय सरकारें और राजनेता इजरायल को लेकर कुछ कहने से सहमे से रहते हैं। हाल ही में भारतीय राष्ट्रपति ने सनसनीखेज ढंग से अपनी विदेश यात्रा के एक कार्यक्रम को इसलिए बदल दिया, क्योंकि उस कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हें इजरायल की यात्रा करनी थी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने स्पष्ट कहा कि इजरायल वह तभी जाएंगे, जब इसके साथ ही उनका फिलीस्तीन यात्रा का भी कार्यक्रम तय किया जाए। इस घटना से भारतीय कूटनीति की दुविधा खुलकर सामने आ गई है। यह आश्चर्यजनक है कि भारत में विदेश नीति जैसे गंभीर मुद्दे को भी आज तक वोट बैंक पर आधारित घरेलू राजनीति से मुक्त नहीं किया जा सका है। प्रायरू भारत सरकार के प्रतिनिधि इजरायल के साथ अपने संबंधों को छिपाने का प्रयास करते हैं। भारत-इजरायल के मध्य संबंधों पर प्रायः पर्दा इसलिए भी डाला जाता रहा है, क्योंकि भारत को यह लगता है कि इससे अरब देश भारत से नाराज हो जाएंगे। भारत सरकार को यह भी डर सताता रहता है कि भारत और इजरायल के बढ़ते संबंधों से भारत का अल्पसंख्यक समुदाय सरकार से नाराज हो सकता है। वास्तव में भारत जैसे तेजी से उभरते देश को विदेश नीति के स्तर पर इस प्रकार की हल्की सोच और अपरिपक्व मानसिकता के दायरे से बाहर आना चाहिए। घरेलू राजनीति एक भिन्न चीज होती है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय हितों का संरक्षण करना एक सर्वथा भिन्न प्रकार की कूटनीतिक आवश्यकता होती है। दोनों व्यवहारों को परस्पर जोड़कर नहीं देखा जा सकता। इसे इस प्रकार से समझा जा सकता है कि भारत और पाकिस्तान के मध्य कितने भी कड़वे संबंध क्यों न हो, विश्व के अन्य हिस्सों यथा यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका आदि में जब भी एक भारतीय और पाकिस्तानी आपस में मिलते हैं, तो वहां वे स्वयं को एक जैसा ही महसूस करते हैं और स्वयं को परस्पर नजदीक भी पाते हैं। भारत-इजरायल संबंधों में इजरायल, भारत की दुविधा को समझता रहा है। कूटनीति और विदेश नीति के स्तर पर इजरायल की परिपक्वता काबिल-ए-तारीफ है। पिछले तीन दशकों में फिलिस्तीन से जुड़े मुद्दों को लेकर भारत सरकार निरंतर इजरायली नीतियों की आलोचना करती रही है। इसके बावजूद इजरायल ने भारतीय चिंताओं और विरोध को कभी भी नकारात्मक रूप से नहीं लिया है। अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों के बाद भी इजरायल ने भारत के साथ अपने रिश्ते न केवल बनाए रखे हैं, बल्कि उन्हें और अधिक मजबूत करने के लिए भी यथासंभव प्रयास किया है। पिछली भारतीय सरकारों की दुविधा को भलि-भांति पहचानने के कारण इजरायल ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत द्वारा की गई आलोचना से अपना मन मैला नहीं किया है। वास्तव में भारत को भी विदेश नीति के स्तर पर अधिक परिपक्वता और साहस का प्रदर्शन करना चाहिए और अन्य विकसित देशों की भांति ही राष्ट्रीय हितों को ही सर्वाधिक महत्व का विषय मानना चाहिए, न कि उसे हल्की मानसिकता का परिचय देते हुए वोट बैंक की घरेलू राजनीति से प्रभावित होते दिखाई पड़ना चाहिए। विदेश नीति, राष्ट्रीय हितों के स्तर पर एक साफगोई और स्पष्टता की मांग करती है। विदेश नीति कभी भी चापलूसी और वोट बैंक की घरेलू राजनीति के आधार पर निर्धारित नहीं की जा सकती। उल्लेखनीय है कि इजरायल ने भारत को रक्षा क्षेत्र में निरंतर सहयोग दिया है। सोवियत संघ के विघटन के उपरांत भारत की रक्षा तैयारियां जब कमजोर पड़ने लगी थीं, तब इजरायल ने ही भारत का सहयोग किया था। मई 1998 में परमाणु परीक्षणों के उपरांत अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों द्वारा भारत पर अनेक प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध आरोपित कर दिए गए थे। जिसके चलते कोई भी देश भारत के साथ किसी भी प्रकार के द्विपक्षीय संबंध रखने के लिए तैयार नहीं था। ऐसे कठिन तथा चुनौतीपूर्ण प्रतिकूल वातावरण में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए इजरायल ने भारत को उच्च तकनीक वाली रक्षा प्रणालियां तथा अस्त्र-शस्त्र उपलब्ध कराए। यदि भारत आज रक्षा एवं सैन्य क्षेत्र में आज एक मजबूत स्थिति में स्वयं को पा रहा है, तो इसके पीछे इजरायल के सहयोग की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। – पंकज के. सिंह