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नक्सली सिर्फ जंगल में नहीं रहते………!

2017.04.25 01 ravijansaamnaपहली बात सुकमा में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। दूसरी बात सुकमा में जिस तरह से 26 जवानों की हत्या हुई वह दिखाती है कि हमारी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था या तो काफी कमजोर है या फिर उसमें कई छिद्र हैं। इन छिद्रों का भरा जाना बेहद जरूरी है। आखिर यह कब तक चलता रहेगा ? आज देश यह जानना चाहता है। देश ने प्रचंड बहुमत की ‘बीजेपी सरकार’ को यह छूट दी है कि वह जो भी देशहित में करेगी हम उसका साथ देंगे। अवश्य देंगे। हजारों दुःख सह कर भी देंगे। उसे सफल बनाएंगे। जब सरकार को ये ज्ञात है कि आम जनमानस (जो कि देश को विकास की राह में अग्रसर होते देखना चाहता है वह) उसके साथ है तो सरकार लौह निर्णय लेने में घबराहट क्यों महसूस कर रही है ? आखिर क्यों वह ताबड़तोड़ फैसले करते हुए कुछ मामलों में आर-पार की लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध नहीं हो पा रही है ? सब कुछ पता होने के बावजूद क्यों वह महज कुछ लोगों के दबाव में कड़े फैसले लेने से घबरा रही है ?
सरकार की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं। होती भी हैं। लेकिन आज जनता इन मजबूरियों का रोना सुनने को तैयार नहीं है। वह कुछ समस्याओं का तुरंत समाधान चाहती है। ’नक्सलवाद’ उन्हीं समस्याओं में से एक है। पर उसे खत्म करने के साथ-साथ जिन समस्याओं पर गौर किया जाना चाहिए वह इस प्रकार हैं…
पहली समस्या शिक्षण संस्थानों में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी…. यह देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि कौन लोग देश को नुकसान पहुचाने पर आमदा हैं। क्या यह सरकार को नहीं पता है कि कैसे एक प्रोफेसर भारत का झंडा उल्टा टांग कर, देश के खिलाफ अनाप-सनाप बोल कर भी खुलेआम घूमती है। क्या यह सरकार को ज्ञात नहीं है कि वह कौन लोग हैं जो ’जी एन साईं बाबा’ की रिहाई के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय के गेट पर खड़े होकर नारे लगाते हैं ? एक छोटे से बालक को भी आज यह ज्ञात है कि कौन लोग हैं जो यूनिवर्सिटियों में से सबकुछ लेने के बाद भी आने वाली पीढ़ी को सिवाय देशद्रोही शिक्षा के और कुछ नहीं देते हैं। क्या सरकार यह नहीं जानती है कि वामपंथी छात्र राजनीति की प्रमुख विचारधारा क्या है ? क्या वह यह भी नहीं जानती है कि ‘जे एन यू’ और ‘जाधवपुर यूनिवर्सिटी’ में जो आये दिन होता है वह क्या है ?
दूसरी समस्या हैं वह नेतागण जो ऐसे लोगों को प्रश्रय देते हैं…. यह किसी से छुपा नहीं है कि कैसे कुछ राजनेता अपने निजी हितों को के लिए आतंकियों तक को बचाने से परहेज नहीं करते हैं। वह कौन लोग हैं यह पूरा देश जानता है। उनका वश चले तो देश को भी गिरवी रख दें, अपनी राजनीति बचाने के लिए। उन्हें इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितने सैनिक मरे और क्यों मरे। कुछ तो यहां तक कहते हुए पाये गए हैं कि ’सैनिक तो जाता ही है मरने के लिए।’ कुछ कहते हैं ’शहीद तो आतंकी हुए हैं, सैनिक तो मोबाइल पर पोर्न देख रहे थे।’ इनके बयानों से इनकी मंशा एकदम साफ है।
तीसरी समस्या हैं एक खास विचारधारा के पत्रकार, लेखक और फिल्ममेकर….पत्रकार जिनका काम सच को उजागर करना होता है वह क्या कर रहे हैं हम सब देख रहे हैं। खूब सारी नकारात्मक खबरों को फैलाने के अलावा और कुछ भी न दिखाने की जो बेवजह चाह है इनके मन मे, उससे कौन वाकिफ नहीं है। यह सूट-बूट पहन कर जो बैठ जाते हैं। किसे नहीं पता है यह कहाँ से आता है ? क्या यह अपने पेशे के साथ न्याय कर पा रहे हैं ? अभी नोएडा में हुआ किसानों का सो कॉल्ड ‘फोटोसूट’ इसका प्रमाण है।
लेखक….. कमोबेश पूरा लेखक समुदाय वामपंथियों से भरा पड़ा है। देश भर में उस व्यक्ति को लेखक माना ही नही जाता है, जो देश के बारे में कुछ अच्छा लिखे। साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी में जो लोग हैं वह किस तरह से वहां पुरस्कार बाँटते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। किन लोगों को पुरस्कार के योग्य समझा जाता है यह भी किसी से छुपा नहीं है। पूरे देश ने पिछले साल हुए ’अवार्ड वापसी अभियान’ को टीवी पर देखा था। देश यह भी जानता है कि कई लेखकों को तो सिर्फ स्तुतिगान करने के लिए ही पुरस्कार दिए गए हैं और वह अपना काम बखूबी कर भी रहे हैं। पिछले कई सालों से ऐसी किसी कृति को सम्मान नहीं दिया गया, जो इस देश को थोड़ा भी अच्छा बताती हो। आखिर कब तक होता रहेगा ये ? क्यों नहीं सरकार ये घोषणा कर देती कि जो व्यक्ति देश हित मंे काम नहीं करेगा उसे सजा के लिए तैयार रहना ही होगा। क्यों नहीं इस क्षेत्र के लोगों की भी जिम्मेदारी तय की जाती ? सिर्फ लिख के निकल लो, जवाब कौन देगा तुम्हारे अच्छे-बुरे का ? क्या अब वह समय नही आ गया है जब सरकार को ऐसी संस्थाओं में आमूल-चूल परिवर्तन करना चाहिए। नियम बदलने पडे तो बदले, जनता सरकार के साथ है।
फिल्मकार…. यह एक ऐसा समुदाय है जिसे देखकर यह लगता है कि जैसे इसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सिर्फ अपनी नग्नता परोसने की जिम्मेदारी दी गई है। जब इनसे इस संदर्भ में पूछा जाता है तो यह ’दांत फाड़ के’ बस यही कहते हैं कि यह तो मनोरंजन है जी, कहानी की मांग है, कहानी का पार्ट है आदि। मनोरंजन के माध्यम से समसामयिक विकृतियों को सच में जो फिल्में उठाती हैं उन्हें टैक्स फ्री कब किया जाएगा ? उन्हें आगे कब आने दिया जाएगा। वहां एक खास समुदाय के कुछ लोगों का वर्चस्व है जो उस पूरी इंडस्ट्री को अपनी बपौती बनाकर बैठे हुए हैं। क्या सरकार को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए ?
आप चाहें तो सोच सकते हैं कि ये सब तो लिखने-पढ़ने और नाटक-नौटंकी वाले लोग हैं जिनसे क्या फर्क पड़ता है तो मैं आपको बता दूं कि आप गलत हैं। देश के बच्चे कैसी किताब पढ़ें ये हमे ‘तीस्ता जावेद शीतलवाड़’ बताती हैं। देश के लोग कैसी फिल्म देखेंगे ये हमे कुछ ‘डायरेक्टर्स’ बतातें हैं। देश के लोग कैसा साहित्य पढ़ेंगे ये हमें ’मार्क्स के मतवाले’ बताते हैं। आखिर किस तरह के देश का निर्माण चाहती है सरकार ?
सरकार को चाहिए कि वह उपरोक्त समस्याओं पर विचार करे और उसके अलावा यह भी …..ये आतंकी प्रेमी गैंग कौन है ?.. कौन नहीं जानता है कि यह सब क्या है ? रातों रात कौन अदालत खुलवाता है ? कौन जेएनयू में क्लास बंद करवा के राष्ट्रवाद की पाठशाला में खड़े होकर लेक्चर देता है ? कौन देशद्रोहियों को दिल्ली विश्वविद्यालय में बोलने के लिए बुलाता है ? कौन कन्हैया के लिए इतना महंगा वकील करता है ? कौन नाटक कंपनी के वामपंथियों को किसान बताकर आंदोलन करवाता है ? कौन ‘जी एन साईं बाबा’ का संदेश लेकर जाता है ? कौन है जिसकी तारीफ पड़ोसी देश का सबसे खूंखार आतंकी करता है ? कौन है जो सब साक्ष्य होने के बावजूद राममंदिर के निर्माण टांग अड़ाता है?
इन सभी सवालों का सीधा संबंध इस तरह के हमलों से है। यह देश जब तक अपने घर के अंदर बैठे गद्दारों से नहीं निपटेगा यह महाशक्ति तो क्या शक्ति भी नहीं बन पाएगा, और इसके लिए यह जरूरी है कि सरकार अपने निर्णय लेने की क्षमता का प्रदर्शन करे, (जो कि उसमें है, हम सबने सर्जिकल स्ट्राइक के समय देखा है।) जनता से सहयोग की अपील करे और ऐसी ताकतों को नेस्तनाबूद करे जो देश की तरक्की में न सिर्फ बाधा हैं बल्कि विदेशियों के टुकड़ों में पलने वाली एक ‘विचारधारा’ को हमारे देश पर थोपने के लिए दिन-रात प्रयासरत है। जब तक महानगरों के शानदार पदों में बैठे ये तथाकथित बुद्धिजीवी और वास्तव में ‘नक्सली’ खत्म नहीं होंगे तब तक जंगल में नक्सलियों को खत्म करना, एक ‘ख्वाब’ सा ही होगा। अतः सरकार पहले इनसे निपटे, जंगली अपने आप निपट जायेंगे। -सतेन्द्र कुमार शुक्ल