हर कला में माहिर, ज़ुबाँ से मुखर, जिसके एक-एक काम से बारीकियां झलक रही थी, रुप गुण की धनी बहू उमा को देखकर त्रिपाठी जी को आश्चर्य हुआ उमा से पूछा बेटी इतनी होनहार हो फिर सिर्फ़ दसवीं तक ही पढ़ाई करके छोड़ क्यूँ दिया? उमा बोली बाबूजी क्या बताऊँ, पितृसत्तात्मक समाज में लड़की की मर्ज़ी कहाँ मायने रखती है। बंदीशों और दायरों की दहलीज़ बड़ी ऊँची थी कैसे लाँघती। हम तो आगे खूब पढ़ना चाहते थे पर पिताजी और ताउजी ने कहा लड़कियों को ज़्यादा क्या पढ़ाना संभालना तो आख़िर चूल्हा चौका ही है। त्रिपाठी जी ने कहा आगे पढ़ना चाहोगी बेटी? हमारे घर की दहलीज़ तुम्हारे पैर लाँघ सके इतनी नीची है, कदम बढ़ाकर देखो दहलीज़ हम पार करवा देंगे। उमा नम आँखों से ससुरजी के पैर छूते बोली बाबूजी आपने आज हमें परवाज़ दे दी, देखना हम कितनी ऊँची उड़ान भरते है। आज उमा ने सरकारी नौकरी का पदभार संभालकर पुरवार कर दिया कि बेटी हो या बहू अगर आज़ादी का आसमान मिले तो बड़ी लंबी फलांग भर सकती है। बस दहलीज़ नीची बनवाईये बेटी लाँघकर परचम लहरा सकती है। त्रिपाठी जी को मीडिया वालों ने पूछा सर अपनी बहू के बारे में चंद शब्द कहिए ज़्यादातर लड़कियां शादी के बाद घर की चार दिवारी में बंद करते खुद को घर परिवार के नाम लिख देती है आपने अपनी बहू को पढ़ाकर इस काबिल बनाया उसके पीछे आपकी विचारधारा?
त्रिपाठी जी ने कहा हर लड़की को उसका हुनर पहचान कर मुक्त गगन देना चाहिए। महिलाएं समाज की नींव है अगर स्वस्थ समाज बनाना है तो लड़कीयों का पढ़ा लिखा होना बहुत जरूरी है। पूरे परिवार का आधार घर की स्त्री होती है आने वाली पीढ़ी तभी संस्कारी और सुगठित होगी जब माँ पढ़ी लिखी होगी। मैंने तो बस उमा को राह दिखाई है जिस पर चलकर आज उसने अपना सही स्थान पाया है। उमा ने ससुरजी का आशीर्वाद लिया और कुर्सी संभालते शुक्रिया अदा किया।
भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगुलूरु