क्या आप जानते है हम सब कितने महान और शक्तिशाली है? जानेंगे उसके बाद कभी हार नहीं मानोगे।
व्यक्ति की सुषुप्त शक्ति को जगाने के लिए पाने की ललक शिद्दत वाली चाहिए। मनुष्य अपनी शक्ति का पूरा उपयोग ही नहीं करता, यह अनुभव-सिद्ध बात है, और यह भी सत्य है कि कोई भी मनुष्य जितना खुद को समझता है, उसमें कहीं अधिक शक्ति और क्षमता होती है। मनुष्य के अंदर शक्ति का अक्षय भंडार है। लेकिन खुद से पूरा काम लेना हमें आता ही नहीं। अब सोचो, ईश्वर हमें बहा देता है बिना खिवैया वाली बावड़ी में बिठाकर। न तैरना आता है, न डूबने का डर होता है। बस सामने एक मकसद होता है कुछ भी करके शून्य में से सर्जन करना है।
सोचिए जब हमारा अस्तित्व बूँद भर होता है तब हमारा अविकसित दिमाग इतना तेज़ और हमें मकसद तक पहुँचाने में सक्षम होता है। जी हाँ जब एक शक्तिशाली पुरुष और स्वस्थ महिला का शारीरिक मिलन होता है, तब मर्द के स्खलित होते ही असंख्य शुक्राणु अंड़ाणु की शोध में महिला के गर्भाशय में दौड़ लगाते है, पर उनमें से महज़ एकल दुकूल ही अपना लक्ष्य हासिल करने में कामयाब होते है। करोडों में से केवल 10 शुक्राणु ही आख़री पड़ाव तक पहुंचने में कामयाब हो पाते हैं लेकिन विजेता केवल एक ही होता है। बाकी के थक हार कर मर जाते है। जो अंडाणु तक पहुँच कर फलित हो जाते है वो हमारे आपके जैसे वीर बहादुर ही होते है। मतलब जन्म से पहले ही हमारा वजूद संघर्ष रत कहानी की शुरुआत होता है। बिंदु भर अस्तित्व था फिर भी पहुँच गए न लक्ष्य तक था कोई सहारा? पहले तो शुक्राणु को लक्ष्य तक पहुँचने में रास्ते में ही बचना होता है, ज्यादातर यहीं खत्म हो जाते है, गर्भाशय तक पहुंचने से पहले उन्हें कई बंद रास्तों की भूलभुलैया से बचना होता है। रास्ते में उनकी जान लेने के लिए सफेद रक्त कोशिकाएं भी होती है, जिनसे बचना चुनौती होती है। और आख़िरकार कुछ बचे हुए शुक्राणु गर्भाशय नली के दरवाजे तक पहुंच पाते है लेकिन विजेता वही होता है जिसके स्वागत के लिए ठीक वक्त पर कोई अंडाणु तैयार होता है। इस संघर्ष यात्रा के बारे में ध्यान से सोचिए, आप महज़ एक बूँद भर होते है, न हाथ, न पैर, न दिमाग, न देख सकते है, न सुन सकते है फिर भी उस रेस में विजय हासिल करके अपना स्थान ग्रहण कर लेते है। कुछ भी न होते हुए एक लक्ष्य पाने का संकल्प हमें जीता देता है। न कोई डिग्री, न प्रशस्ति पत्र, न शिफ़ारिस अपने बलबुते पर अकेले परचम लहरा लिया वो भी लाखों प्रतिस्पर्धीयों को हराकर।पर जन्म लेने के बाद पूर्णतः विकसित शरीर और दिमाग होते हुए भी हम छोटी सी बात पर घबरा कर क्यूँ हार जाते है। ज़िंदगी सबको कसौटी लगने लगती है। अब तो देख सकते है, सुन सकते है, सोच सकते है, घर परिवार और दोस्तों का साथ और अपनापन भी हौसला बढ़ाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर सहकार देते खड़े होते है। फिर भी क्यूँ संघर्ष से और ज़िंदगी की चुनौतियों से घबरा कर हार जाते है। नकारात्मक विचार और भविष्य की कल्पनाओं से डरकर पीछे हठ कर लेते है। ज़िंदगी को पाना ही जंग है, जब उस जंग में बिना कोई हथियार और बिना दिमाग लगाए महारत हासिल कर ली, तो अब तो हमारे पास हर सुविधा मौजूद है। मनुष्य को कार्य में प्रवृत्त करने वाला बल अपने ध्येय से प्राप्त होता है। यह ध्येय जितना दृढ़, श्रेष्ठ और विशाल होता है, उतना ही अधिक काम मनुष्य से करा सकता है। सकारात्मक सोच के साथ खुद पर विश्वास कायम रखकर आगे बढेंगे तो कुछ भी पाना नामुमकिन नहीं। बस लक्ष्य तय कर लो कश्ती पार लगानी ही है।
भावना ठाकर ‘भावु’ (बेंगुलूरु, कर्नाटक)