Wednesday, November 27, 2024
Breaking News
Home » मुख्य समाचार » गजग्राह

गजग्राह

कथा के अनुसार जय और विजय नामक दो विष्णु भगवान के दरवान थे ।दोनों ही सुंदर और सुशील थे, और विष्णु भक्त भी थे। दोनों की अनुमति बिना कोई देव भी वैकुंठ में प्रवेश नहीं पा सकते थे।आपस में दोनों ही प्रेम और आदर से रहते थे।दोनों ही ज्ञानी थे तो पंडित भी थे।वे यज्ञ और पूजा करवाने में माहिर थे,लोग उन्हे बुलाने के लिए बहुत ज्यादा दक्षिणा देने के लिए तैयार रहते थे।
एक बार राजा मारूत को बड़ा यज्ञ करवाना था तो उन दोनों को हवन के कार्य में अगुआई करने के लिए बिनती की और वे दोनों मान भी गए।यज्ञ का अन्य ब्राह्मणों के सहयोग से अच्छी तरह,बिना विघ्न के समापन हो गया,अग्निदेव भी प्रसन्न हुए।सभी ब्राह्मणों को राजा मारुत ने दक्षिणा दी और सभी ब्राह्मण उन्हे आशीष दे विदा हो गए।यज्ञ विधि में मुखिया होने की वजह से जय की दक्षिणा में  विजय से ज्यादा सोनामोहर दी थी क्योंकि वह  ज्यादा विद्वान था।जब विजय  ने अपनी नाराजगी जाहिर की तो जय ने उसे उसका अपना हिस्सा भी दे देने की बात कही ,जिससे विजय और गुस्से हो उसे जलीकटियां सुनाने लगा।और उसकी दिलदारी को अपना अपने स्वाभिमान का हनन समझ बैठा और बहस करने लगा।जब दोनों की शिक्षा एक साथ ,एक ही गुरु के पास एक से ही समय में हुई थी तो जय कैसे बड़ा पंडित हुआ और वह कमतर क्यों गिना जाएं।ऐसे ही  विवाद बहुत बढ़ गया और जय ने भी बता दिया कि चाहे उम्र दोनों की एक सी  थी किंतु शिक्षा दीक्षा में वह उससे आगे था।उसे वेदों और पुराणों का ज्ञान ज्यादा था।ये सब सुन विजय अति क्रोधित हो गया और जय को बोला कि उसे अपने ज्ञान का अभिमान हो गया था और वह खुद ही अपने आप को महा पंडित मान बैठा था, उसे  श्राप दे दिया कि वह मद से पीड़ित हाथी जैसा बन गया हैं जो जंगल में अपनी साख बनाने के लिए जानवरों को परेशान करता रहता हैं तो वह भी हाथी ही बन जाएं।गुस्से में जय भी अपने ज्ञान और विद्या को भूल गया और विजय को भी उत्तर में श्राप दे दिया कि वह भी मगर बन जाएं।और राजा और दरबारी जो सब कुछ सुन रहे थे व्यथित हो दोनों की मनुहार कर उनके श्राप को वापिस लेने की बात कही लेकिन दोनों में से किसी ने भी उनकी बात नहीं मानी और दोनों के श्राप सत्य हो गए।
त्रिकुट पर्वत की घाटी में एक घना जंगल था उसमे एक बहुत शक्तिवान हाथी रहता था उसके पैर मोटे से खंभे जैसे थे,बड़े बड़े दंतशूल और महाकाय था वह।जंगल में एक तालाब भी था जिसके चारों ओर किनारों पर बहुत सारे पेड़ थे,सुंदर फूलों के पौधे भी थे। उन पेड़ों पर सुंदर पक्षी आते थे और तालाब में भी रंगबिरंगी मछलियां तैरती रहती थी।  एक दिन अपनी हथनियों के साथ वह हाथी पानी पीने के लिए तालाब में आया और पानी देख हाथी और हथनियां जलक्रीड़ा का आनंद ले रहे थे।उसी तालाब में वही विशालकाय मगर भी रहता था। गजराज कुछ समझे उससे पहले ही पैरों में कुछ खींचाव सा लगा तो अपने पैर को छुड़ाने के लिए खूब जोर लगाया किंतु व्यर्थ,पैर को छुड़ा नहीं पाने की वजह से परेशान हो पानी में देखा तो मगर के मुंह में अपना पैर फसां हुआ दिखा। दोनों बहुत ही बलशाली थे गजराज जितनी जोर से पैर छुड़वाने की कोशिश करते थे उससे भी ज्यादा जोर से मगर अपने जबड़ों में पैर दबोच ने लगता था।अब गजराज जोर लगा कर किनारे की और जाने की कोशिश की और काफी दूर निकल गये,पैर तो अभी भी मगर के जबड़ों में ही था लेकिन पानी के बाहर मगर की ताकत कम हो जायेगी तो उसने दूसरा दांव खेला ,हाथी के मर्म स्थान पर अपनी पूंछड़ी से प्रहार किया जिससे हाथी का बल कम हो गया।और मगर था कि हाथी को पानी में खींचे जा रहा था क्योंकि उसकी पूंछ के प्रहार से हाथी अर्ध बेहोश सा हो गया था।और मगर था की उसे खींचे जा रहा था। दुःख देख कर हाथी को अब अपने कर्म याद आने लगे अपने बल के नशे में वह कई छोटे प्राणियों को कुचलता चलता था,खाने के लिए टहनियों की जगह पूरे के पूरे पेड़ उखाड़ देता था और मदमस्त रहता था ।आज उसका भी अंत होने जा रहा था।जब पानी में खींचा जा रहा था तो उसने सहारे के लिए कुछ पकड़ा तो वह एक कमल का फूल था,उसे शंख ,चक्र , गदा और कमल पुष्प लिए भगवान विष्णु का ध्यान आया और उसने उन्हें सहाय के लिए प्रार्थना की और देखा तो आसमान में स्वयं भगवान गरुड़ पर सवार हो सहाय के लिए आए।एक ही वार में मगर को मार के गजराज का पैर छुड़वाया।भगवान तो भगवान ही थे,उन्होंने दोनों को शापमुक्त किया और मगर की जगह पर विजय खड़ा था और हाथी की जगह जय खड़ा था।दोनों अभिशाप से मुक्त हो गए और प्रभु के चरण में लेट गए और अपने पापों की माफी मांगी।दोनों भाई फिर से वैकुंठ गए और विष्णुजी के द्वार पर द्वारपाल बन रक्षा करने लगे।दोनों को पछतावा था कि एक छोटी सी बात को बढ़ा कर दोनों ने कितनी बड़ी गलती की थी।कितने दुःख सहे। हमें भी इस प्रसंग से सीखना चाहिए की छोटी सी बात को तूल दे इतना नहीं बढ़ाना चाहिए। तिल का पहाड़ नहीं बनाना चाहिए।
जयश्री बिरमी
अहमदाबाद