विगत वर्षों इंग्लैंड के राजकुमार चार्ल्स की आत्मकथा को लेकर बड़ा बावेल्ला मचा रहा था। मुद्दा था, चार्ल्स द्वारा अपने बचपन की सहज रूप से न जी पाना। हर बात में उनके मां-बाप की दखलंदाजी से उनके व्यक्तित्व की सहजता, सरलता, स्वाभाविकता, मानवीय गुणों को समझाने की परख ही गयब हो गई। पीछे रह गई, कृत्रिमता, दिखावटीपन और बनावटीपन। जिसने उन्हें एक पढ़ा-लिखा साक्षर व्यक्ति बना दिया, पर मानवीय गुणों को, उसके जज्बे को, संबंधों की ऊष्मा की आंच से सर्वथा वंचित रखा।
यह तो थी, एक राजकुमार की आत्मकथा पर, जरा अपने भारतीय परिवारों के इर्द-गिर्द एक नजर डालें, तो उपरोक्त बातें आज के हर भारतीय बच्चे पर लागू करके हम उनके साथ क्या बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं। बच्चे आज पढ़-लिखकर कैरियर-उन्मुखी तो बन रहे हैं, लेकिन उनके पास न तो मानवीय संबंधों को समझने की गरिमा शेष बची है और न ही नैतिकता की, उसकी शिक्षा की उन्हें कोई जरूरत ही नहीं है।
इसके लिए हम और हमारी सामाजिक शैक्षिक प्रणाली कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। जिसके चलते हमने बच्चों से उनकी सहजता, स्वाभाविकता, भोलापन, उनकी छोटी छोटी खुशियां, छोटी-छोटी परेशानियां छीन ली है। बदले में उन्हें एक चलता-फिरता रोबोट बना कर छोड़ दिया है। वह सिर्फ दिग्भ्रमित, स्वप्निल से मां-बाप के हाथों ही अनजाने में ही सही, पर कठपुतली या यूं कहें चाबी वाले खिलौनों की मानिंद बनकर रहने को विवश हैं।
जिस उम्र में उन्हें खेलना-कूदना चाहिए, मिट्टी के घरौंदे बनाने चाहिए, गुड़िया-गुड्डे की शादी रचानी चाहिए, हमजोलियों के साथ लुका-छिपी खेलनी चाहिए, प्रकृति के हर मौसम का आनंद लेना चाहिए, तितली के पीछे फूदकना चाहिए, पक्षियों की आवाज में सुर मिलाने चाहिए, घर के स्वादिष्ट पकवानों का लुत्फ उठाना चाहिए, दादा-दादी और संयुक्त परिवार की गरिमा, संबंधों की गर्मी को, उत्सव का, तीज त्यौहार का सुख उठाना चाहिए। उस उम्र में हम उन्हें अब क्या देने लगे हैं?
अनगिनत विषयों की किताबें, नाजुक उंगलियों में कड़ी पेंसिलों की पकड़, टिफिन में फास्ट- फूड मसलन मक्खन, ब्रेड, चॉकलेट, नूडल्स आदि, हर वक्त सजा-संवार कर भारी भरकम पोशाकें लादकर उन्हें तैयार रखना, मिट्टी में न खेलने देना, कहानी-किस्सों की कतारों की जगह टी.वी., वीडियो गेम्स, कामिक्स, अष्लील चित्रहार और पिक्चरों के कैसेटों को अपलक दिखाना या उन पर थिरकना, इलेक्ट्रॉनिक खिलौने, अनगिनत बुद्धि बढ़ाने के खेल उपलब्ध कराने आदि ने ले ली है।
ऊपर से तुर्रा यह कि आजकल के बच्चे उजड्ड, अनुशासनहीन, जिद्दी, उद्दंड, उलट-पुलट करने वाले, धमा-चौकड़ी मचाने वाले, अतार्किक, अव्यावहारिक, असेवेदनषील, अलग-थलग रहने वाले होते जा रहे हैं। इन जैसे विशेषणों से उन्हें नवाजने में भी हम कतई पीछे नहीं हैं।
आप बच्चों को सहज शैतानियां तक नहीं करने देना चाहते है। और तो और हर बात के लिए बाल-मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक की सलाह लेने भागने लगते हैं कि यह झूठ क्यों बोल रहा है, आज्ञा का पालन नहीं कर रहा है। स्कूल जाने से मुंह चुराता है। पढ़ने में मन नहीं लगता है। अपने कमरे में दिनभर क्यों बैठा रहता है, आदि आदि।
शायद यह कहना अतिषयोक्तिपूर्ण न होगा, कि समस्याकारक बच्चे नहीं है। बल्कि मां-बाप हैं। उनकी अति सजगता, उनकी सावधानी, अति विश्वास और अति महत्वाकांक्षा ने बच्चों के चेहरों की मुस्कान छीन ली है। उन्हें ‘आधुनिक वयस्क’ बनाकर रख दिया है। कक्षा की शैक्षिक गतिविधियों और परिणाम तक ही उनका प्यार-दुलार सिमट कर रह गया है। आज के माता-पिता स्वयं इतने अधिक षंकालु, संषयी, दिग्भ्रमित, दिवास्वप्न देखने वाले, अनिश्चित भविष्य के लिए अघा कर सांस भरने वाले हो गए हैं कि पूछिए मत।
बचपन में दखलंदाजी ही सब समस्याओं की जड़ है। कठोर अनुशासन के तहत एक तयषुदा आकार और व्यक्तित्व में उन्हें डाल दिया जाने लगा है, जिससे बच्चा ‘बोनसाई संस्कृति’ का पालक तो बन गया है। लेकिन जंगली पौधे सरीखी जो सहजता, मस्ती, मनवालापन, बांकपन, चंचलता, सरलता, चपलता, कोमलता और सरसता होनी चाहिए। वह उनमें गायब है। नतीजतन न वे मां-बाप की फिक्र कर रहे हैं और न ही गुरुजनों की।
संयुक्त परिवार का चलन ही खत्म हो गया है। जहां बड़ों की डांट, छोटों की सताई जाने वाली खीझ भरी शैतानियां, हर व्यक्ति की बच्चे की गलतियों पर कड़ी नजर तो गुणों पर बढ़ावा और दुलार, मिल बांट कर खाने की प्रवृत्ति उन्हें एक छोटा सा सामाजिक दायरा स्वतः मुहैय्या करा देती थी। पर आज इसी के गायब हो जाने से समस्याएं विकराल और विकृत रूप में दिखाई पड़ रही है। यहां तक कि, संयुक्त राष्ट्र संघ तक को अंतर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष मनाकर इस छोटी सी पर अत्यंत महत्वपूर्ण बात की महत्ता विष्व स्तर पर समझानी पड़ी है।
अभी भी वक्त है, कि कम से कम जो गलती विकसित देशों ने की है और आज उसका खामियाजा भुगतकर पश्चाताप की आग में झुलस रहे हैं। उससे हम कुछ सबक सीख कर अपने बने बनाए पारिवारिक ढांचे को तितर-बितर न होने दें। भले ही हम कामकाजी बनें। अंधे युग की अंधी दौड़ में शामिल हों। पर बच्चे तो संयुक्त परिवार के वटवृक्ष तले कम से कम सुरक्षित रहें।
अपने ‘ऑवर सपोर्ट’ यानी अति समर्थकता की विषैली और काली आंधी से उन्हें बचाकर रखें। प्रकृति का लुत्फ उठाने दें। घरेलू पौष्टिक व्यंजन मुहैय्या कराएं। उनके लिए वक्त निकाले। उनके स्वभाव को समझें। कृत्रिम वातावरण से दूर रखें। टी.वी., वीडियो संस्कृति को उन पर हावी न होने दें। उनके इंटरएक्शन’ अर्थात बात करें। उनकी आंखों से उन्हें दुनिया देखने दें। कॉमिक्स की दुनिया में धकेलने की बजाय कहानियां सुनाएं, हर मौसम का मजा सहजता से लेने दें, बजाय किताब की दृष्टि से देखने के। उन्हें व्यावहारिक, मानवीयता से परिपूर्ण बनाएं। मशीन न बनने दें। तभी उनमें करुणा, त्याग, ममता, संवेदना, सुख-दुख के प्रति अहसास जगेगा। जो बेहद जरूरी है।
डॉ. हनुमान प्रसाद उत्तम