अंतर्राष्ट्रीय दिवस जनता को चिंता के मुद्दों पर शिक्षित करने के लिए, वैश्विक समस्याओं को संबोधित करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए, मानवता की उपलब्धियों को मनाने और सुदृढ़ करने के अवसर हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिनों का अस्तित्व संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से पहले है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें एक शक्तिशाली वकालत उपकरण के रूप में अपनाया है।
19 अगस्त 1982 को फिलिस्तीन के सवाल पर एक विशेष सत्र में सयुंक्त राष्ट्र की महासभा ने प्रत्येक वर्ष के 4 जून को “मासूम बच्चों की पीड़ा का अंतर्राष्ट्रीय दिवस” मनाने का फैसला किया, इस दिन का उद्देश्य दुनिया भर में बच्चों द्वारा पीड़ित दर्द को स्वीकार करना है जो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण का शिकार हैं। यह दिन बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
लेख/विचार
हारी बाजी को जीतना सिखाती है साइकिल -प्रियंका सौरभ
एक जमाना था जब भारत ही नहीं दुनिया भर में साइकिल का बोलबाला था, धीरे-धीरे इनकी जगह स्कूटर-मोटरसाइकिल और अब कारों ने ले ली, मगर जगह तो ले ली पर साथ ही धरती पर इंसानों के बचने की जगह कम हो गई, कसरत के आभाव में इंसान सुविधा भोगी हो गया, परिणामस्वरुप उसे तरह-तरह की बीमारियों ने घेर लिया। ये सुनने में आपको हैरानी होगी कि अब दुनिया के अधिकांश डॉक्टर रोगियों को आधा घंटा साइकिल चलाने की नसीहत पर्ची पर लिखकर देने लगे है ताकि उनकी शारीरिक क्षमता बनी रहे और दवाइयों के कुप्रभाव न आये।
बचपन में तो हर किसी ने साइकिल चलाई है लेकिन आज के इस दौर में साइकिल जैसी चीजें बहुत कम ही देखने को मिलती हैं। लोग आज कल मोटरसाइकिल और कार से जाना ज्यादा पसंद करते हैं। मगर क्या आपको मालूम है कि साइकिल आपके सेहत के लिए कितने फायदेमंद साबित हो सकती है। बचपन में जब हम साइकिल चलाते थे तो हमारी सेहत बनी रहती थी और हमे किसी भी बीमारी लगने का खतरा नहीं होता था। यहां तक कि साईकिल चलाने के बाद भी हम पूरा दिन एक्टिव रहते थे।
टिड्डियों का आतंक

बाइबल में भी इनका जिक्र है और पहले भी इनका झुंड नुकसान पहुंचाता था परन्तु पिछले 20 वर्षों में इनका अटैक सबसे ख़तरनाक साबित हुआ है, इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन, बेमौसम बारिश और नमी को माना जा रहा है। इनकी आबादी को बढ़ावा देता है और हाल ही में बंगाल में आया तूफान भी एक कारण है।
जल संकट एक और खतरे की घंटी -डॉo सत्यवान सौरभ
नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत, इतिहास में अपने ‘सबसे खराब’ जल संकट का सामना कर रहा है। गर्मियों में नल सूख गए हैं, जिससे अभूतपूर्व जल संकट पैदा हो गया है। एशियाई विकास बैंक के एक पूर्वानुमान के अनुसार, भारत में 2030 तक 50% पानी की कमी होगी। हाल ही के अध्ययनों में कम पानी की उपलब्धता के मामले में मुंबई और 27 सबसे कमजोर एशियाई शहरों में शीर्ष पर मुंबई और दिल्ली शामिल हैं। यूएन-वॉटर का कहना है कि “जलवायु परिवर्तन के पानी के प्रभावों को अपनाने से स्वास्थ्य की रक्षा होगी और जीवन की रक्षा होगी”। साथ ही, पानी का अधिक कुशलता से उपयोग करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम होगा। हालांकि, कोविड-19 महामारी के जवाब में, हाथ धोने और स्वच्छता पर अतिरिक्त ध्यान केंद्रित किया गया है।
आरोग्य सेतु, निजता पर केतु – डॉo सत्यवान सौरभ
अगर वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय में यह भुला दिया जाता है कि मानवाधिकारों का आदर या सम्मान नहीं होगा तो, किसी भी तरह का विकास टिकाऊ साबित नहीं होगा। इन्हीं मानवाधिकारों में ‘निजता का अधिकार’ भी शामिल है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुसार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत ‘निजता का अधिकार’ मूल अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है।
भारत सरकार ने भी ‘आरोग्य सेतु’ के माध्यम से कोविद-19 से संक्रमित व्यक्तियों एवं उपायों से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास किया है। परंतु इसके साथ ही विभिन्न देशों की सरकारों पर नागरिकों की निजता के उल्लंघन का आरोप भी लग रहा है। फ्रांस के सिक्योरिटी एक्सपर्ट और एथिकल हैकर इलियट एंडरसन ने पिछले महीने ट्वीट करके आरोग्य सेतु ऐप की प्राइवेसी को लेकर सवाल खड़ा किया था। उन्होंने दावा किया था कि आरोग्य सेतु ऐप इस्तेमाल करने वालों का डेटा खतरे में है। ऐसे में अब सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप में बग ढूंढने वाले और इसकी प्रोग्रामिंग को बेहतर बनाने का सुझाव देने वाले को एक लाख का पुरस्कार देने की घोषणा की है।
सहस्त्रों साल की विरासत पर गर्व करने का क्षण
दक्षिण पूर्व एशिया के देश वियतनाम में खुदाई के दौरान बलुआ पत्थर काएक शिवलिंग मिलना ना सिर्फ पुरातात्विक शोध की दृष्टि से एक अद्भुत घटना हैअपितु भारत के सनातन धर्म की सनातनता और उसकी व्यापकता का एक अहम प्रमाणभी है। यह शिवलिंग 9 वीं शताब्दी का बताया जा रहा है। जिस परिसर में यह शिवलिंग मिला है, इससे पहले भी यहाँ पर भगवान राम और सीता की अनेकमूर्तियाँ और शिवलिंग मिल चुके हैं। आधुनिक इतिहासकार भारत की सनातनसंस्कृति को लेकर जो भी दावे करें किंतु इसकी सनातनता और लगभग सम्पूर्णविश्व में इसके फैले होने के प्रमाण अनेक अवसरों पर ऐसे ही सामने आते रहतेहैं। और जब इस प्रकार के प्रमाण प्रत्यक्ष होते हैं तो स्वतः ही यह प्रश्नउठता है कि “प्रत्यक्षम किम प्रमाणम ?” अर्थात प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता? आज हम ऐसे ही प्रमाणों की बात करेंगे जो हमें जितने आश्चर्यचकित करते हैं उतने ही गौरवान्वित भी करते हैं।
समस्याओं से दूर हो रियलिटी शो बनी पत्रकारिता -प्रियंका सौरभ
पूरी दुनिया ने पत्रकारिता को अपना एक अभिन्न और खास अंग माना है और साथ ही लोकतंत्र में इसको चौथा स्तंभ के रूप में माना गया है। वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार ‘उदंत मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 193 वर्ष हो गए हैं।
30 मई 2019 यानि आज पूरे देश में पत्रकारों का सबसे खास दिन पत्रकारिता दिवस 2019 ( मनाया जा रहा है। सन 1826 में सबसे पहले हिंदी भाषा में समाचार पत्र उदंत मार्तंड जारी हुआ था। जिससे भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। इस दिन को ही हर साल पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है,इस अवधि में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है।
जीवन चलाने के लिए जीवन को ही दांव पर लगा दिया गया
विज्ञान के दम पर विकास की कीमत वैसे तो मानव वायु और जल जैसे जीवनदायिनी एवं अमृतमयी प्राकृतिक संसाधनों के दूषित होने के रूप में चुका ही रहा था किंतु यही विज्ञान उसे कोरोना नामक महामारी भी भेंट स्वरूप देगा इसकी तो उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी। अब जब मानव प्रयोगशाला का यह जानलेवा उपहार उस पर थोपा जा ही चुका है तो निसंदेह उसे प्रकृति के सरंक्षण और उसके करीब रहने का महत्व समझ आ गया होगा। लेकिन वर्तमान में इससे अधिक महत्वपूर्ण विषय है कोरोना महामारी पर मानव जाति की विजय। आज की वस्तुस्थिति तो यह है कि लगभग सम्पूर्ण विश्व ही कोविड 19 के समक्ष घुटने टेके खड़ा है। ना इसका कोई सफल इलाज मिल पाया है और ना ही कोई वैक्सीन। दावे तो कई देशों की ओर से आए लेकिन ठोस नतीजों का अभी भी इंतजार है, उम्मीद अभी भी बरकरार है। अपेक्षा है कि विश्व के किसी न किसी देश के वैज्ञानिकों शीघ्र ही दुनिया को इस महामारी पर अपनी विजय की सूचना देंगे।
राजनीति बनाम सांप्रदायिकता
आज राजनीति की भाषा और परिभाषा नहीं रह गई है। समय, और परिस्थिति के हिसाब से जो बातें उसके हित में हों वही विचारधारा बन जाती है। अब राजनीति और राजनेताओं के लिए दलित, गाय, हिंदू, अल्पसंख्यक शब्द राजनीति करने के लिए काफी मायने रखते हैं और वो समय-समय पर यह इसे भुनाते भी रहते हैं। इन्हीं पर सियासत करते हुए वो अपने वोटों की हांडी भरते हैं। सियासी गलियारे में जाति, धर्म और भाषा की राजनीति दिन ब दिन बढ़ती जा रही है ताकि चुनावी मौसम में इस्तेमाल किया जा सके। अवसरवादी राजनीति में मुद्दा कोई भी हो, सत्ता में बने रहने के लिए और निजी हितों की पूर्ति तक ही राजनीति सिमट कर रह गयी हैं।
दलितों की चिंता, गौ सेवक, गरीबी हटाना (जो काफी सालों से चलता आ रहा है), स्त्री सुरक्षा, बेटी बचाओ – पढ़ाओ (यह भी काफी समय से चल रहा है) यह सिर्फ खोखली बातें ही लगती हैं। भीड़तंत्र, गाय सेक्युलर धर्म, हिंदुत्व यह बातें सिर्फ सांप्रदायिकता ही फैलाती हैं। लोगों के दिलों में खाई ज्यादा गहरी होती जा रही है।
कहानी सबक
यही कोई पचास के आस पास उम्र होगी करुणेश की। सेना में सूबेदार के पद से सेवानिवृत्त। वर्तमान में समाज सेवा से जुड़े हैं। और अपना अधिक से अधिक वक़्त समाजसेवा को ही देते हैं। ग्रेटर कैलाश इलाके में एक वृद्धाश्रम भी चलता है उनका। खूब समर्पित रहते हैं और पूरे मनोयोग से वृद्धों की सेवा करते हैं। कभी कीर्ति यश के लिए काम नहीं किया। जो हृदय को सुकून दे बस वही काम किया। अपनी पेंशन का ज्यादा हिस्सा वह इस आश्रम में ही व्यय किया करते हैं।
उस इलाके में कई और भी अनाथालय, वृद्धाश्रम और एनजीओ संचालित हैं। खूब बड़े बड़े बैनर लगे हुए। पर केवल आर्थिक सहायता (अनुदान) लेने के लिए। सरकार को ठगने के लिए। अपना उल्लू सीधा करने के लिए। सब कुछ रजिस्टर में ही होता है वहां, अनुदान बराबर मिलता रहे बस इसी प्रत्याशा में चल रही हैं ये संस्थाएं। सारी गलती उन्हीं संस्थाओं की हो है यह भी नहीं कह सकते, सरकारी मशीनरी ही कुछ ऐसी है कि बिना ” रिटर्न गिफ्ट” वाली संस्थाएं उन्हें फूटी आंखों भी नहीं सुहाती। बिना उसके वह किसी की कोई फाइल नहीं बढ़ने देते। थक हार कर व्यक्ति नाउम्मीद हो जाता है। ऐसा नहीं है कि इन छद्म संस्थाओं ने करुणेश की संस्था के लिए कठिनाई नहीं पैदा की, पर सांच को आंच कहां आती है। करुणेश जी के समर्पण, सेवाभाव और त्याग के आगे वह लोग अपने मंसूबों के कामयाब न हो सके।