मनुष्य का जन्म तो सहज होता है लेकिन मनुष्यता उसे कठिन परिश्रम से प्राप्त करनी पड़ती है। सब कुछ हमारे अंदर स्थित मन रूपी तीर्थस्थान में ही है। स्वर्ग-नरक कहीं बाहर या आसमान में नहीं वरन् हमारे मन में ही है। यदि मन में हमने ईश्वरीय विचारों को बसा रखा है तो हमारे अंदर ही स्वर्ग है। यदि हमने अपने मन में स्वार्थ से भरे विचार भर रखे हैं तो जीवन नरक के समान है। हम संसार के किसी भी तीरथ में चले जाये यदि हमारे मन में अशांति है तो किसी भी तीरथ में शांति नहीं मिल पायेगी। क्योंकि हम अशांति की अपनी पूंजी साथ-साथ लेकर जायंेगे। अन्त में हम इस निष्कर्ष में पहंुचते है कि मानव का मन सबसे अच्छा तीर्थस्थान है। मानव प्राणी अपने प्रभु से पूछे किस विधि पाऊँ तोहे, प्रभु कहे तू मन को पा ले, पा जायेगा मोहे। आइये, मन के महत्व को एक सुन्दर भजन की इन पंक्तियों द्वारा समझते हैं – तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये। मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय। मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय। इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये। सुख की कलियाँ, दुख के कांटे, मन सबका आधार। मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हजार। जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाये। तन की दौलत ढलती छाया मन का धन अनमोल। तन के कारण मन के धन को मत माटी मंे रौंद। मन की कदर भुलाने वाला हीरा जनम गवाये। मानव शरीर भगवान् की सबसे बड़ी सौगात है। मनुष्य का जन्म भगवान का हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार है। जीवन को छोटे उद्देश्यों के लिए जीना तो जीवन का अपमान है। अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों को भुलाकर उसे समाज विरोधी कामांे, भोग एवं वासनाओं में लगाना बेहोशी में जीवन बर्बाद करने के समान है। जीवन अनन्त है हमारी शक्तियाँ भी अनन्त हंैं, हमारी प्रतिभाएँ भी अनन्त हैं। ऐसा मानना है कि हम अपनी मानसिक शक्तियों का मात्र 1 प्रतिशत से अधिकतम 8 प्रतिशत तक ही उपयोग कर पाते हैं। अभी तक संसार का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति 8 प्रतिशत तक ही अपनी बुद्धि का उपयोग कर पाया है। यह मानव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि मनुष्य की 92 प्रतिशत बुद्धि सुप्त अवस्था में ही है। कैरियर, नौकरी या व्यवसाय के द्वारा हम अपने अंदर के संगीत को बिना खुलकर तथा खिलकर अभिव्यक्त किये अपनी कब्र में साथ लेकर चले जाते हंै। सिकुड़कर जीना प्रभु प्रदत्त अनमोल हीरे जैसे जीवन को कोयले के मूल्य में आंकना के समान है। मेरा शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा मित्र है। मेरा मन मैं नहीं हूँ, मन मेरा औजार है। हवेली में जब मालिक आता है तो सारे नौकर आलस्य छोड़कर अपने काम में लग जाते हैं। अर्थात जब हमारे शरीर रूपी मंदिर से होने वाले प्रत्येक कार्य-व्यवसाय आत्मा की इच्छा तथा आज्ञा के अनुसार होते हैं तो पांचों इन्द्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श) तथा छठीं इंद्रिय मन रूपी नौकर अपने-अपने कार्यों को अखण्ड आज्ञाकारी सेवक की तरह करते हुए महान उद्देश्य की प्राप्ति कराते हैं। इसलिए जरूरी है कि हमें शरीर रूपी मंदिर में आत्मा के रूप में ईश्वर की स्थापना करनी चाहिए। सारे कार्य ईश्वर की इच्छा तथा आज्ञा के अनुकूल होने चाहिए। संसार में मिट्टी, पत्थर, लोहे तथा गारे से बने जिन मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों तथा गुरूद्वारों में हम श्रद्धा के साथ जाते हैं। ये मनुष्य ने सामूहिक रूप से किसी पवित्र स्थान में बैठकर पूजा, पाठ, इबादत, नमाज, प्रेयर, सबत आदि करने के लिए बनाये हैं। ये मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा गुरूद्वारा मनुष्य द्वारा निर्मित हंै तथा मानव शरीर रूपी मंदिर, मस्जिद, गिरजा तथा गुरूद्वारा ईश्वर निर्मित हैं। इस ईश्वर निर्मित मानव शरीर को सर्वोच्च महत्व देना चाहिए क्योंकि शरीर के द्वारा ही जीवन के महान उद्देश्य अपनी आत्मा का विकास किया जा सकता है। शरीर के ऊपर इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के ऊपर मन, मन के ऊपर बुद्धि, बुद्धि के ऊपर आत्मा का स्थान होना चाहिए। इसके क्रम के बिगड़ने से जीवन असंतुलित हो जाता है। शरीर से लेकर आत्मा तक के सही क्रम को कायम रखने के लिए हमें स्वयं के सत्य अर्थात मैं कौन हूं? इस संसार में किस महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आया हूं?, पांच इन्द्रियों (आंख, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श) के सत्य तथा मनोशरीर यंत्र के सत्य का ज्ञान होना चाहिए। हमारा जीवन संसार में इन्हीं सत्यों की वास्तविकताओं के चारों तरफ घूमता है। असहज मन जब हमारे जीवन को अपनी मर्जी के अनुसार चलाने लगता है तब जीवन अनेक कठिनाइयों तथा दुखों से घिर जाता है। इसलिए हमें मन को अपना बनाने के लिए कार्य करना चाहिए। मन हमारा अकंप हो, मन हमारा प्रेम से भरा हो, मन हमारा निर्मल हो तथा मन हमारा अखण्ड आज्ञाकारी हो। आत्मा ईश्वरीय गुणों के प्रकाश से प्रकाशवान होती है। प्रकाशित आत्मा संसार से ‘और अधिक की चाह’ को समाप्त कर ‘सब कुछ अंदर है’ के विश्वास को जगाती है। हमें प्रभु की इच्छा को अपनी इच्छा बनाना चाहिए ना कि अपनी इच्छा को प्रभु की इच्छा बनाने की कोशिश करनी चाहिए। गीता हमें सीख देती है कि अब कर्म करते हुए फल की इच्छा नहीं करना चाहिए वरन् अब यज्ञ करना चाहिए। अर्थात सीधे अपने स्रोत से महाफल की चाह के साथ महाकर्म करना चाहिए। एक व्यक्ति एक संत के पास अपनी समस्या लेकर पहुंचा। उस व्यक्ति ने संत से दुःखी होकर निवेदन किया कि उसकी प्रबल इच्छा है कि वह अपने जीवन काल में एक सुन्दर तथा भव्य मंदिर बनाये। लेकिन उस भव्य मंदिर को बनाने के लिए उसके पास पैसा नहीं है। संत ने मुस्कराकर उससे कहा कि तुम्हें दुःखी होने के कोई आवश्यकता नहीं है। बस तुम एक काम करो अपने मन को ही भगवान का मंदिर बनाने का निर्माण कार्य इसी क्षण से शुरू कर दो। यदि उसके बाद भी तुम्हारे अंदर और मंदिरों का निर्माण करने की इच्छा जाग्रत हो तो अपने आसपास के लोगों के जीवन को भी इसी प्रकार अच्छा बनाने के लिए निरन्तर मनोयोगपूर्वक लगे रहना। संत के सुझाव से उस दुःखी व्यक्ति की समस्या का समाधान सहजता से हो गया। मन रूपी मंदिर को बनाने में कोई खर्चा नहीं आता केवल हृदय को पवित्र बनाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए मस्तिष्क से हृदय तक 13 इंची सुंरग खोदकर हृदय से मस्तिष्क तक आध्यात्मिक मार्ग बनाना चाहिए। सबसे पहले कोई विचार हृदय से उठता है, फिर वह मस्तिष्क में जाता है, जहां उस विचार की मस्तिष्क के द्वारा मालिश-पालिश होती है।
Read More »लेख/विचार
पुतला रावण का ही क्यों जलाते हैं हम हर साल, मन के रावण को भी मारें आओ हम इस बार।
बुराई पर अच्छाई के विजय प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल की दशमी को मनाये जाने वाले पर्व विजयदशमी की प्रासंगिकता संदेहास्पद प्रतीत होती है। हम इस दिन रावण, मेघनाद और कुंभकरण के प्रतीकात्मक पुतलों को जलाकर दशहरा त्योहार की औपचारिकता पूर्ण कर लेते हैं। वास्तव में यह पर्व दस प्रकार के पापों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी जैसे अवगुणों के त्याग की प्रेरणा देता है। हम अपने अंदर रखतबीज जैसे पनप रहे इन दस रावण में से संभवत किसी एक का भी संहार नहीं कर पाते हैं। यदि ऐसा कर पाते तो संस्कार, संस्कृति और सोने की चिड़िया कहे जाने वाले हमारे देश का वर्तमान स्वरूप ऐसा न होता। यद्यपि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में हमने अपार सफलता प्राप्त की है और विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के ऐसे बहुत से देश हैं जिन्होंने इन क्षेत्रों में अपनी धाक जमाई है फिर भी ऐसा क्या है की विदेश भी हमारे आगे नतमस्तक हैं स्पष्ट है कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर ही है जो लोगों का ध्यान आकृष्ट करती हैं। लेकिन चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार ,छल कपट, जाति धर्म के नाम पर हो रहे बवाल, मासूमों पर होते अत्याचार, मोब लीचिंग की घटनाएं, हमारी धरोहर और पहचान माने जाने वाले नैतिक मूल्यों की विलुप्ति इत्यादि आज भी हमें जग सिरमौर बनने से रोक रहे हैं।
राम का वेश धारण कर आजकल जाने कितने रावण घूम रहे हैं। भ्रष्टाचार,व्यभिचार सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े हैं । सत्य का बोलबाला, झूठे का मुंह काला जैसी कहावतें और लोकोक्तियों का तो जैसे कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। दिलों में नफरतों का सैलाब लिए लोग गले मिल रहे हैं रिश्तो का अवमूल्यन होता जा रहा है जाने कितने रावण और सोने की लंका आज भी सांसे ले रहे हैं। कहा जाता है कि यदि रावण का वध भगवान श्रीराम ने न किया होता तो सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो जाता। यदि समय रहते हमने अपने अंदर फल फूल रहे अवगुण रूपी रावण का संहार नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश की आन बान का सूर्य अस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा । कलयुग में कोई राम या हनुमान नहीं आएगा जो कुछ भी करना है हमें मिलजुलकर करना है।अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है। बस आवश्यकता है तो दृढ़ संकल्पित होने की।
दोष किसका..

केवल जन आन्दोलन से प्लास्टिक मुक्ति अधूरी कोशिश होगी
प्लास्टिक का बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना होगा
वैसे तो विज्ञान के सहारे मनुष्य ने पाषाण युग से लेकर आज तक मानव जीवन सरल और सुगम करने के लिए एक बहुत लंबा सफर तय किया है। इस दौरान उसने एक से एक वो उपलब्धियाँ हासिल कीं जो अस्तित्व में आने से पहले केवल कल्पना लगती थीं फिर चाहे वो बिजली से चलने वाला बल्ब हो या टीवी फोन रेल हवाईजहाज कंप्यूटर इंटरनेट कुछ भी हो ये सभी अविष्कार वर्तमान सभ्यता को एक नई ऊंचाई, एक नया आकाश देकर मानव के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव का कारण बने। 1907 में जब पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम “प्लास्टिक” की खोज हुई तो इसके आविष्कारक बकलैंड ने कहा था, “अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मेरा ये अविष्कार एक नए भविष्य की रचना करेगा।” और ऐसा हुआ भी, उस वक्त प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने अपने मुख्य पृष्ठ पर लियो बकलैंड की तसवीर छापी थी और उनकी फोटो के साथ लिखा था, “ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।”
तन्हाई
पंसद है मुझे यूँ तन्हा रहना,
यूँ अकेले अपने आप से बात करना,
सोचकर कभी किसी बात को,
आ जाती है चेहरे पर मुस्कान कभी,
तो बहने लग जाती हैं अचानक ही आंसुओं की धारा कभी,
उठाती हूँ सुबह चाय की प्याली को हाथ से जब,
तो काँपने लग जाते हैं ये दो लब मेरे तब,
उठ जाती हूँ रात के किसी भी पहर अब,
और करती हूँ शुरू गिनती तारों की आसमां में तब
कभी ये तन्हाई नासूर बन जाती है,
तो कभी जीने का मकसद दे जाती है
मोनिका जैन द्वारका (दिल्ली)
गले की फांस बनता चालान…
नियम कानून बनाए ही इसलिए जाते हैं कि जनजीवन सुचारु रुप से चलें लेकिन अपने निजी फायदे के चलते लोग बाग इसका सही इस्तेमाल नहीं करते। सीधे-सीधे कह सकते हैं कि दुरुपयोग करते हैं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। इन दिनों गाड़ियों पर चालन का मुद्दा गरमाया हुआ है। नियमों के पालन के लिए सख्ती जरूरी है लेकिन सख्ती के नाम पर जो गुंडागर्दी हो रही है वो कहां तक जायज है? हालांकि सोशल मीडिया पर इस बात का मजाक भी बहुत उड़ रहा है लेकिन कुछ जगहों पर ऐसी घटनाएं देखी सुनी जा रही है जहां गुंडागर्दी सरेआम घट रही है। यह कैसी बाध्यता है नियमों के पालन की? एक दायरे में रहकर नियमों का पालन करवाया जाए तो लोग भी नियमों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे। नियमों को मनवाने के नाम पर मनचाहा चालान काट कर जनता को जिस तरह से परेशान किया जा रहा है वह गलत है। एक ओवरलोड ट्रक का चालान 2 लाख 500 रुपए काटा गया, दिल्ली में एक ट्रक का चालान 1 लाख 41 हजार 760 रूपये काटा गया, एक बाइक वाले का चालान 23000 काटा गया, एक ऑटो वाले का 59000 रुपए का चालान कटा। अभी हाल ही में 3 लाख का चालान कटा। इतनी बड़ी रकम पेनल्टी के तौर पर भरना आसान नहीं है और मिडिल क्लास के लोगों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।
Read More »लालच बुरी बला है
बहुत समय पहले की बात है किसी गांव में एक बुढ़िया अपने बेटे और बहू के साथ रहा करती थी। बहू का उसके प्रति व्यवहार बहुत अच्छा नहीं था। उसे उसकी मौजूदगी खटकती रहती थी। वह दिन भर बड़बड़ाती रहती,”न जाने इस बुढ़िया को कब मौत आएगी मेरी छाती का पीपल बन गई है मर जाए तो 101 नारियल चढ़ाऊंगी।” बुढ़िया यह सब सुनकर बहुत दुखी होती। अपमान का घूंट पीकर जी रही थी। आखिर इस उम्र में जाती भी तो कहां? वह मन बहलाने के लिए चरखे पर सूत काटने का काम करती और रात में जब थक जाती तो अपने चरखे को रखते हुए गुनगुनाती,” उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर।”बहू को लगातार उसका साथ रहना खटक रहा था और वह इस उधेड़बुन में थी कि ऐसा क्या उपाय किया जाए जिससे हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने पति के कान भरने शुरू कर दिए कि न जाने तुम्हारी मां रोज रात में किसे बुलाती है बेटे ने ऐसी किसी बात से इनकर किया तो उसने कहा यदि आपको यकीन नहीं है तो आप खुद अपने कानों से सुन लीजिएगा। रात में बुढ़िया रोजाना की तरह गुनगुना रही थी ,”उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर…..।”
कहीं आने वाली मंदी का कारण हम तो नहीं बनने वाले ?
इस समय भारत ही नहीं पूरे विश्व में आर्थिक मंदी की आहट की चर्चा है। भारत के विषय में अगर बात करें तो हाल ही में जारी कुछ आंकड़ों के हवाले से यह कहा जा रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुज़र रही है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार अप्रैल- जून तिमाही की आर्थिक विकास दर 5% रह गई है जो कि पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर है। एक अर्थशास्त्री के लिए ये आंकड़े मायने रखते होंगे लेकिन एक आम आदमी तो साधरण मनोविज्ञान के नियमों पर चलता है। सरकार कह रही है कि आने वाली वैश्विक मंदी का भारत में कोई खास असर नहीं होने वाला है अपितु इसके साथ ही इस वैश्विक मंदी का असर भारत पर नहीं हो इस के लिए अनेक उपाय भी कर रही है।, लेकिन टीवी और अखबार “आने वाली” मंदी की खबरों और विभिन्न अर्थशास्त्रियों के “शस्त्रार्थ” से भरे हैं। तो सोशल मीडिया के मंच पर इस विषय में परोसे जाने वाली जानकारी से आज आम आदमी आश्वस्त होने के बजाए चिंतित एवं भ्रमित अधिक हो रहा है। जो आम आदमी कुछ सालों पहले तक देश की आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ अपने घर की मंदी दूर कर अपनी खुद की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में लगा रहता था आज देश की अर्थव्यवस्था पर विचार विमर्श कर रहा है।
Read More »शिक्षक का भटकता उत्तरदायित्व
प्रत्येक वर्ष के सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह मे 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप मे मनाते है। जिस महान शख्शियत के जन्मदिन को हम इस विशेष दिवस का दर्जा दिए है वो थे हमारे स्वतन्त्र भारत के उपराष्ट्रपति ड़ॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन। भारत मे गरीबी और शिक्षा जैसे विषयो पर बहुत काम हुए किन्तु उक्त विषय पर जो काम राधाकृष्णन जी ने किया वो खुद मे अद्वितीय है। आज के वर्तमान समय मे शिक्षा की जो व्यवस्था लागू है वो बेहद निराशाजनक और खेदपूर्ण है। आजकल अयोग्य को योग्य बनाकर उच्च वेतनमान पर धड़ल्ले से नियुक्त किया जा रहा जबकि योग्य संसाधन विहीन होकर दुर्गम जीवन व्यतीत कर रहा।
शिक्षा विभाग पूरी तरह जर्जर और शिक्षक पूरी तरह मानसिक अपंग हो चुके है। मैं ऐसे कई उदाहरण प्रत्यक्ष प्रमाण और किदवन्ति दे सकता हूँ जिसमे योग्य और मेहनती शिक्षक कम वेतनमान पर जीतोड़ मेहनत कर रहे और अयोग्य और लाख पचास हजार वेतन लेने वाले शिक्षक शिक्षा व्यवस्था को धाराशायी कर रहे। प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था इन दिनों तेजी से चरमराई है कारण शिक्षको की दबंगता और शिक्षण कार्य के पीछे नीरसता है। कई विद्यालयो मे तो शिक्षक विद्यालय खुलने के कई घण्टे बाद पहुचते है ऐसे मे अभिवाहक कैसे उस विद्यालय के प्रति आश्वस्त होकर अपने पाल्य को वहाँ पढ़ने भेजे।
आखिर गणपति विसर्जन क्यों करते हैं….
गणेशोत्सव करीब ही है। बड़े मनोयोग और श्रद्धा से लोग गणपति को घर लाते हैं। दस दिन तक विराजने वाले गणपति की पूजा आराधना करते हैं। वैसे इस उत्सव को बाल गंगाधर तिलक ने भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए और भारतीयों को एकता के सूत्र में बांधने के लिए शुरू किया था जोकि अब उत्सव के रूप में देश में कई जगहों पर बड़े उत्साह के साथ मनाया जाने लगा है। वैसे तो गणपति के विषय में बहुत सी कथाएं प्रचलित है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि गणपति का विसर्जन क्यों किया जाता है? पुराणों में एक कथा प्रचलित है कि वेद व्यास जी ने गणेश चतुर्थी से महाभारत की कथा दस दिन तक लगातार सुनाई थी और इस कथा को गणेश जी ने अक्षरशः लिखा था। दस दिन बाद जब वेदव्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि दस दिन की अथक मेहनत से गणेश जी का तापमान बहुत अधिक बढ़ गया है तो वेदव्यास जी ने तुरंत गणेश जी को एक कुंड में ले जाकर ठंडा किया। इसीलिए गणेश जी की स्थापना करके चतुर्दशी को उन्हें शीतल किया जाता है।