अब समय आ गया है जबकि सभी धर्मों के लोगों को एक ही स्थान पर एकत्रित होकर एक ही परमपिता परमात्मा की प्रार्थना करनी चाहिए। अर्थात एक ही छत के नीचे हो-अब सब धर्मों की प्रार्थना’ हो। अज्ञानता के कारण आज एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये अवतारों को अलग-अलग मानने के कारण ही धर्म के नाम पर चारों ओर जमकर दूरियां बढ़ रही है, जबकि सभी अवतार एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये हैं। इस प्रकार हम सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं। लैटिन भाषा में रिलीजन के मायने जोड़ना होता है। अर्थात जो जोड़े वह धर्म है तथा जो तोड़े वह अधर्म है। रामायण में तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा है कि ‘जब जब होई धर्म की हानि – बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा – हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। अर्थात जब-जब धर्म की हानि होती है और संसार में असुर, अधर्म एवं अन्यायी प्रवृत्तियों के लोगों की संख्या सज्जनों की तुलना में बढ़ जाने के कारण धरती का संतुलन बिगड़ जाता है, तब-तब परम पिता परमात्मा कृपा करके धरती पर अपने प्रतिनिधियों (अवतारों) कृष्ण, बुद्ध, अब्राहीम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह आदि को मानवता का मार्गदर्शन कर समाज को सुव्यवस्थित करने के लिए युग-युग में विविध रूपों में भेजते रहे हैं।
लेख/विचार
निर्दोष कानूनी प्रक्रिया से साबित होते हैं प्रेस कांफ्रेंस से नहीं
“गैरों में कहाँ दम था हमें तो अपनों ने लूटा, हमारी कशती वहाँ डूबी जहाँ पानी कम था।“
आज कांग्रेस के दिग्गज नेता और देश के पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम सीबीआई की हिरासत में कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे। क्योंकि 2007 के एक मामले में जब वे 2019 में गिरफ्तार होते हैं तो उसी के बयान के आधार पर जिसकी मदद करने का उनपर आरोप है। जी हाँ वो “इंद्राणी मुखर्जी” जो आज अपनी ही बेटी की हत्या के आरोप में जेल में हैं अगर इंद्राणी मुखर्जी आज जेल में नहीं होतीं तो भी क्या वो सरकारी गवाह बनतीं? जवाब हम सभी जानते हैं और शायद यह खेल जो खुल तो 2007 में ही गया था बोफ़ोर्स घोटाले, 2जी घोटाले, यूटीआइ घोटाले, ताज कॉरिडोर घोटाले, यूरिया घोटाले एयरबस घोटाले, स्टैम्प पेपर घोटाले जैसे अनेक घोटालों की ही तरह सबूतों और गवाहों के अभाव में कागजों में ही दफन हो जाता। चिदंबरम दोषी हैं या नहीं ये फैसला तो न्यायालय करेगा लेकिन खुद एक वकील होने के बावजूद उनका खुद को बचाने के लिए कानून से भागने की कोशिश करना, सीबीआई के लिए अपने घर का दरवाजा नहीं खोलना, उन्हें गिरफ्तार करने के लिए सीबीआई के अफसरों का उनसे घर की दीवार फांद कर अंदर जानासमझ से परे है।
कश्मीर अभी इम्तिहान आगे और भी है।
कश्मीर में “कुछ बड़ा होने वाला है” के सस्पेंस से आखिर पर्दा उठ ही गया। राष्ट्रपति के एक हस्ताक्षर ने उस ऐतिहासिक भूल को सुधार दिया जिसके बहाने पाक सालों से वहां आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने में सफल होता रहा लेकिन यह समझ से परे है कि कश्मीर के राजनैतिक दलों के महबूबा मुफ्ती फ़ारूख़ अब्दुल्ला सरीखे नेता और कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष जो कल तक यह कहता था कि कश्मीर समस्या का हल सैन्य कार्यवाही नहीं है बल्कि राजनैतिक है, वो मोदी सरकार के इस राजनीतक हल को क्यों पचा पा रहे हैं। शायद इसलिए कि मोदी सरकार के इस कदम से कश्मीर में अब इनकी राजनीति की कोई गुंजाइश नहीं बची है। लेकिन क्या यह सब इतना आसान था ? घरेलू मोर्चे पर भले ही मोदी सरकार ने इसके संवैधानिक कानूनी राजनैतिक आंतरिक सुरक्षा और विपक्ष समेत लागभग हर पक्ष को साधकर अपनी कूटनीतिक सफलता का परिचय दिया है लेकिन अभी इम्तिहान आगे और भी है।
शिक्षा की नीतियाँ शिक्षकों को बनाने दें – डॉ. दीपकुमार शुक्ल
व्यापक अर्थ में शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित क्षमता तथा उसके व्यक्तित्व को विकसित करने वाली एक सतत एवं सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया के तहत व्यक्ति समाज में वयस्क की भूमिका निभाने के योग्य बन पाता है। शिक्षा शब्द शिक्ष धातु से बना है। जिसका अर्थ होता है सीखना और सिखाना। सीखने सिखाने की प्रक्रिया व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनवरत चलती रहती है। अनेक विद्वानों का यह भी मत है कि गर्भस्थ शिशु भी माँ के माध्यम से ज्ञान को आत्मसात करने का प्रयास करता है। इसकी प्रामाणिकता के लिए प्रायः लोग अभिमन्यु का उदाहरण देते हैं। गर्भवती स्त्रियों को महापुरुषों की कथाएँ तथा सदविचार सुनाने की परम्परा भारतवर्ष में प्राचीन काल से रही है। जिसका उद्देश्य गर्भस्थ शिशु में सदविचारों का प्रत्यारोपण करना होता था। जन्म के पूर्व से मृत्यपर्यन्त चलने वाली शिक्षा प्रक्रिया के इस व्यापक स्वरूप को किसी भी मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के विकास, उसके ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। इससे पृथक शिक्षा प्रक्रिया का एक संकुचित स्वरूप भी है। जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को एक निश्चित समय व स्थान (विद्यालय आदि) पर सुनियोजित ढंग से एक निश्चित पाठ्यक्रम तथा निश्चित प्रक्रिया के तहत शिक्षित किया जाता है। परीक्षा उत्तीर्ण करके प्रमाण-पत्र प्राप्त करना इस प्रक्रिया का प्रमुख उद्देश्य होता है।
ट्रिपल तलक आस्था नही, अधिकारों की लड़ाई है
ट्रिपल तलाक पर रोक लगाने का बिल लोकसभा से तीसरी बार पारित होने के बाद एक बार फिर चर्चा में है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में ही इसे असंवैधानिक करार दे दिया था लेकिन इसे एक कानून का रूप लेने के लिए अभी और कितना इंतज़ार करना होगा यह तो समय ही बताएगा। क्योंकि बीजेपी सरकार भले ही अकेले अपने दम पर इस बिल को लोकसभा में 82 के मुकाबले 303 वोटों से पास कराने में आसानी से सफल हो गई हो लेकिन इस बिल के प्रति विपक्षी दलों के रवैये को देखते हुए इसे राज्यसभा से पास कराना ही उसके लिए असली चुनौती है। यह वाकई में समझ से परे है कि कांग्रेस समेत समूचा विपक्ष अपनी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार क्यों नहीं है। अपनी वोटबैंक की राजनीति की एकतरफा सोच में विपक्षी दल इतने अंधे हो गए हैं कि यह भी नहीं देख पा रहे कि उनके इस रवैये से उनका दोहरा आचरण ही देश के सामने आ रहा है। क्योंकि जो विपक्षी दल राम मंदिर और सबरीमाला जैसे मुद्दों पर यह कहते हैं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है और उसके फैसले को स्वीकार करने की बातें करते हैं वो ट्रिपल तलाक पर उसी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध खड़े हो कर उसे चुनौती दे रहे हैं।
निजीकरण की ओर बढ़ते सरकारी संस्थान…
सरकारी विभागों के निजीकरण की बात आते ही हम भड़क जाते हैं फिर चाहे वह एयर इंडिया की हो या आजकल रेलवे के निजीकरण को लेकर जो विवाद चल रहा है। निजीकरण क्यों हो रहा है कोई इस बात पर विचार करना ही नहीं चाहता। सरकार व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं ला पा रही है और जिसका आसान विकल्प निजीकरण के रूप में अपना रही है। पहली वजह तो यही है कि अधिकारी वर्ग भ्रष्ट है। वो काम करना ही नहीं चाहते। सुबह 9 से शाम 6 बजे तक की हाजिरी वाली ड्यूटी पूरी कर अपना दिन पूरा कर अपनी तन्ख्वाह जमा करते हैं। ये काम के प्रति जिम्मेदारी निभाना ही नहीं चाहते। आम आदमी इनकी अकर्मण्यता से त्रसित हो रहा है, हालांकि निजीकरण के बारे में ऐसा तर्क दिया जा रहा है कि यह सिर्फ विशुद्ध मुनाफाखोरी वाली नीति है क्योंकि सुविधाएं तो बढ़ती नहीं लेकिन हर चीज पर अलग से भुगतान का भार बढ़ जाता है।
दूसरी बात रोजगार पर आती है। निजीकरण द्वारा नौकरियां सीमित कर दी जाती है और अनावश्यक लोगों और खर्चों पर नियंत्रण कर लिया जाता है लेकिन निजीकरण के जरिए एक बात देखी जाती है कि जिस काम को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं वह तयशुदा समय सीमा में पूरी हो जाती है। सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार बहुत फैला हुआ है। मुफ्तखोरी, घूसखोरी, सामानों की चोरी लाइलाज बीमारी बन कर रह गयी है। अकर्मण्यता इस हद तक बढ़ गई है कि लोगों को सुविधाएं नहीं मिल पाती है और उनकी तकलीफों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। टैक्स भरने के बाद भी आमजन की जेब पर बोझ तो पड़ता ही है। निजीकरण द्वारा इन बातों पर लगाम लग जाती है।
इन बातों पर गौर करने के बाद एक बात सवाल उठता है कि सरकार द्वारा दी गई सेवाओं का लाभ अगर जनता सही ढंग से इस्तेमाल करें तो किसी भी विभाग के निजीकरण की समस्या नहीं आएगी। हम खुद जिम्मेदार हैं निजीकरण व्यवस्था को प्रोत्साहित करने में। आज सरकारी बसें चल रही है जो काफी अच्छी सुविधाएं देती है लेकिन जनता प्राइवेट बस में दुगना भुगतान करके उसमें जाना पसंद करती है। जनता द्वारा सरकारी सुविधाओं के इस्तेमाल से सरकार का राजस्व तो बढ़ेगा ही साथ में जनता की सुविधाओं पर भी ध्यान दिया जाएगा। सरकार को भुगतान करके हम देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत बना सकते हैं। कुछ सरकारी विभागों की बात छोड़ दें तो कई जगहों पर सुधार भी हुआ है लेकिन इसमें जनता का सहयोग अपेक्षित है। भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के चलते निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा हैं। हम विदेशों में जनता को मिल रही सुविधाओं की बात तो करते हैं लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं देते कि वहाँ के लोग भी नियमों का पालन करते हैं। यहाँ जनता ऐसी है ट्रेन में चेन से बंधा मग्गा चुरा कर ले जाते हैं। टू टायर में मिलने वाली नैपकिन, चादर तक चुरा लेते हैं और कोच में ही गंदगी फैलाते हैं।
जरूरत एक मजबूत विपक्ष की…
कांग्रेस अब भी लोकसभा की चुनावी हार के बाद राहुल के इस्तीफे पर ही बहस-मंथन में जुटी है। देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी को अब इससे उबरना चाहिए। कांग्रेस जिस दौर से गुजर रही है, उसमें पार्टी को स्वयं के आंकलन की जरूरत है। आज देश में एक मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है। चुनावी दौर में जो सियासी हथकंडे अपनाए गए वो बड़े अजब-गजब थे। यह जो ढकोसले वाली राजनीति का चलन शुरू हुआ है, उससे आप जनता का दिल नहीं जीत सकते, फिर चाहे वह मंदिर जाने से लेकर यज्ञोपवीत पहनना हो या फिर टोपी पहनना। चाहे वह कोई भी दल हो। आज जनता मुद्दे पर ही बात करना चाहती है।
कर्नाटक में इन दिनों नेताओं के इस्तीफे का दौर शुरू है और गठबंधन टूट रहे हैं, इससे साफ जाहिर होता है कि देश में सत्ता का केंद्रीकरण हो रहा है। ऐसे में कांग्रेस को सियासी रणनीति बदलने की जरूरत है। यह लोकतंत्र के प्रति उसकी जिम्मेदारी है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी की सत्ता पक्ष की आलोचना के लिये एक मजबूत विपक्ष हो। कांग्रेस के लिये जरूरी है कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए वह यह जगह भरे। विलाप नहीं, संघर्ष के जरिये। दिखावे की राजनीति से दूर होकर आप काम करिए… लोगों से जमीन पर जुड़िये… एसी कमरे में बैठकर राजनीति नहीं होती… जनता की तकलीफ, दर्द और परेशानियों को समझे। सिर्फ दिखावे की राजनीति के जरिये नहीं। जनता का दिल जीतिए… दूसरे पर कीचड़ उछालने से कुछ नहीं होगा.. अभी सिर्फ जमीं पर पैर जमाइए..खड़े होइए… हमारे भारत को जानिये पहचानिए।
स्वर्णिम भविष्य के स्वप्न दिखाती नयी शिक्षा नीति
बच्चे देश का भविष्य ही नहीं नींव भी होते हैं और नींव जितनी मजबूत होगी इमारत उतनी ही बुलंद होगी। इसी सोच के आधार पर नई शिक्षा नीति की रूप रेखा तैयार की गई है। अपनी इस नई शिक्षा नीति को लेकर मोदी सरकार एक बार फिर चर्चा में है। चूंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है जाहिर है इसके विरोध में स्वर उठना भी स्वाभाविक था, तो अपेक्षा के अनुरूप स्वर उठे भी। लेकिन मोदी सरकार इस शिक्षा नीति को लागू करने के लिए कितनी दृढ़ संकल्प है यह उसने अपनी कथनी ही नहीं करनी से भी स्प्ष्ट कर दिया है। दरअसल उसने इन विरोध के स्वरों को विवाद बनने से पहले ही हिन्दी को लेकर अपने विरोधियों की संकीर्ण सोच को अपनी सरकार के उदारवादी दृष्टिकोण से शांत कर दिया। लेकिन बावजूद इसके नई शिक्षा नीति की राह आसान नहीं है। इसके लक्ष्य असंभव भले ही ना हों लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में मुश्किल तो अवश्य ही लग रही हैं। वैसे अब तक की अपनी राजनैतिक यात्रा में मोदी जी ने कई असंभव चीजों को संभव करके दिखाया भी है। और अब यह नई शिक्षा नीति जो कई बुनियादी बदलावों पर आधारित है मोदी सरकार की नई परीक्षा है।
भारतीय राजनीति की दिशा और दशा
बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दलों को जैसा प्रचण्ड बहुमत प्राप्त हुआ उसकी कल्पना शायद किसी को भी नहीं थी। राजनीतिक विश्लेषक इस जीत का श्रेय नरेन्द्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता तथा अमित शाह की रणनीतिक कुशलता को दे रहे हैं। 2014 में भाजपा को जहां 282 सीटें मिली थीं वहीं 2019 में यह आंकड़ा बढ़कर 303 तक पहुंच गया। इस चुनाव में भाजपा की सीटों में ही मात्र वृद्धि नहीं हुई बल्कि 2014 के मुकाबले उसे 33 प्रतिशत अधिक मत भी प्राप्त हुए। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को कुल 17.16 करोड़ वोट मिले थे। जबकि इस बार यह आंकड़ा 33.45 प्रतिशत बढ़कर 22.90 करोड़ को पार कर गया। राजग के बीते कार्यकाल में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के अन्दर घुसकर आतंकियों के विरुद्ध की गई कार्रवाई को यदि छोड़ दें तो सरकार के शेष सभी निर्णयों पर आम जनता की ओर से प्रश्न-चिन्ह ही लगते रहे हैं। चाहे नोट बन्दी का मुद्दा हो या जीएसटी का| राफेल विमान डील हो या फिर सवर्णों को दस प्रतिशत आरक्षण देने की बात हो। बेरोजगारी की समस्या पर तो सरकार अन्त तक कोई ठोस कदम ही नहीं उठा पायी।
रोबोटिक समाज की ओर बढ़ रहे हैं हम
हाल ही में जर्नल ऑफ फैमिली मेडिसिन एंड प्राइमरी केअर की एक रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2011 से 2017 तक दुनिया भर में सेल्फी लेते समय 259 लोगों की मौत हुई। इनमें सबसे अधिक 159 मौतें अकेले भारत में हुईं। जब 1876 में पहली बार फोन का आविष्कार हुआ था तब किसने सोचा था कि यह अविष्कार जो आज विज्ञान जगत में सूचना के क्षेत्र में क्रांति लेकर आया है कल मानव समाज की सभ्यता और संस्कारों में क्रांतिकारी बदलाव का कारण भी बनेगा। किसने कल्पना की थी जिस फोन से हम दूर बैठे अपने अपनों की आवाज़ सुनकर एक सुकून महसूस किया करते थे उनके प्रति अपनी फिक्र के जज्बातों पर काबू पाया करते थे एक समय ऐसा भी आएगा जब उनसे बात किए बिना ही बात हो जाएगी। जी हाँ आज का दौर फोन नहीं स्मार्ट फोन का है जिसने एक नई सभ्यता को जन्म दिया है। इसमें फेसबुक व्हाट्सएप इंस्टाग्राम ट्विटर जैसे अनेक ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हैं जहाँ बिन बात किए ही बात हो जाती है। आज के इस डिजिटल दौर में हम एक ऐसे रोबोटिक समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ लाइक और कमेंट्स से जज्बात बयां होते हैं। दोस्ती और नाराज़गी ऑनलाइन निभाई जाती हैं। यह क्रांति नहीं तो क्या है कि आज ईंटरनेट से चलने वाला स्मार्टफोन बहुत से लोगों के लिए उनका पहला कंप्यूटर बन गया तो किसी के लिए उसकी प्राइवेट टीवी स्क्रीन, किसी के लिए पहला पोर्टेबल म्यूजिक प्लेयर तो किसी के लिए पहला कैमरा। वो लोग जो एक छोटे से कमरे में अनेक लोगों के साथ जीने के लिए विवश हैं उनके लिए उनके स्मार्टफोन की छोटी सी स्क्रीन ही उनकी पर्सनल दुनिया बन गई।