Sunday, June 8, 2025
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लेख/विचार

पुतला रावण का ही क्यों जलाते हैं हम हर साल, मन के रावण को भी मारें आओ हम इस बार।

बुराई पर अच्छाई के विजय प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल की दशमी को मनाये जाने वाले पर्व विजयदशमी की प्रासंगिकता संदेहास्पद प्रतीत होती है। हम इस दिन रावण, मेघनाद और कुंभकरण के प्रतीकात्मक पुतलों को जलाकर दशहरा त्योहार की औपचारिकता पूर्ण कर लेते हैं। वास्तव में यह पर्व दस प्रकार के पापों काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी जैसे अवगुणों के त्याग की प्रेरणा देता है। हम अपने अंदर रखतबीज जैसे पनप रहे इन दस रावण में से संभवत किसी एक का भी संहार नहीं कर पाते हैं। यदि ऐसा कर पाते तो संस्कार, संस्कृति और सोने की चिड़िया कहे जाने वाले हमारे देश का वर्तमान स्वरूप ऐसा न होता। यद्यपि विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में हमने अपार सफलता प्राप्त की है और विश्व में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि विश्व के ऐसे बहुत से देश हैं जिन्होंने इन क्षेत्रों में अपनी धाक जमाई है फिर भी ऐसा क्या है की विदेश भी हमारे आगे नतमस्तक हैं स्पष्ट है कि यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर ही है जो लोगों का ध्यान आकृष्ट करती हैं। लेकिन चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार ,छल कपट, जाति धर्म के नाम पर हो रहे बवाल, मासूमों पर होते अत्याचार, मोब लीचिंग की घटनाएं, हमारी धरोहर और पहचान माने जाने वाले नैतिक मूल्यों की विलुप्ति इत्यादि आज भी हमें जग सिरमौर बनने से रोक रहे हैं।
राम का वेश धारण कर आजकल जाने कितने रावण घूम रहे हैं। भ्रष्टाचार,व्यभिचार सुरसा की तरह मुंह बाए खड़े हैं । सत्य का बोलबाला, झूठे का मुंह काला जैसी कहावतें और लोकोक्तियों का तो जैसे कोई अर्थ ही नहीं रह गया है। दिलों में नफरतों का सैलाब लिए लोग गले मिल रहे हैं रिश्तो का अवमूल्यन होता जा रहा है जाने कितने रावण और सोने की लंका आज भी सांसे ले रहे हैं। कहा जाता है कि यदि रावण का वध भगवान श्रीराम ने न किया होता तो सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो जाता। यदि समय रहते हमने अपने अंदर फल फूल रहे अवगुण रूपी रावण का संहार नहीं किया तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे देश की आन बान का सूर्य अस्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा । कलयुग में कोई राम या हनुमान नहीं आएगा जो कुछ भी करना है हमें मिलजुलकर करना है।अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है। बस आवश्यकता है तो दृढ़ संकल्पित होने की।

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दोष किसका..

हममें से ऐसे कितने लोग हैं जो रामायण पढ़ते हैं या चौपाइयां जानते हैं?
हंसी मजाक तक तो बात ठीक है लेकिन सोनाक्षी सिन्हा का ट्रोल होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है… सेलिब्रिटी है… मीडिया पर हैं इसलिए लोगों के सामने आ गई लेकिन ये सच बात है कि आज हमारे बच्चे कितना रामायण महाभारत गीता यह सब पढ़ते हैं? और कितनी जानकारी है उन्हें? बच्चों की छोड़िए हममें से ऐसे कितने लोग हैं जो रामायण पढ़ते हैं या चौपाइयां जानते हैं? या उनका अर्थ जानते हैं? और चलिए मान भी लिया कि हम पढ़ते हैं.. हमें जानकारी है तो हम अपने बच्चों को कितना प्रेरित करते हैं कि वो रामायण, गीता पढ़ें। अब तो वो वक्त रहा नहीं जब बच्चों को दादी नानी रात में अपने पास में लेकर भगवान की कहानियां सुनाती थीं। तब बच्चों को बहुत सी जानकारियां कहानियों से ही मिल जाती थी बिना पढ़े। मुझे याद है मेरी ताई जी जो बहुत ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थी लेकिन रामायण पढ़ती थी और बाद में हिंदी में उसका मतलब भी हमें समझाती थी। यह बचपन की बात है बाद में हम धीरे-धीरे व्यस्त होते गए… इतना वक्त नहीं रहा कि ये सब पढ़ें। बच्चे सीरियल और किताबों के जरिए जो जानकारी हासिल कर ले वह बहुत है और आजकल टीवी पर भी धार्मिक सीरियलों में पूरा सच नहीं दिखाते हैं।

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केवल जन आन्दोलन से प्लास्टिक मुक्ति अधूरी कोशिश होगी

प्लास्टिक का बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना होगा
वैसे तो विज्ञान के सहारे मनुष्य ने पाषाण युग से लेकर आज तक मानव जीवन सरल और सुगम करने के लिए एक बहुत लंबा सफर तय किया है। इस दौरान उसने एक से एक वो उपलब्धियाँ हासिल कीं जो अस्तित्व में आने से पहले केवल कल्पना लगती थीं फिर चाहे वो बिजली से चलने वाला बल्ब हो या टीवी फोन रेल हवाईजहाज कंप्यूटर इंटरनेट कुछ भी हो ये सभी अविष्कार वर्तमान सभ्यता को एक नई ऊंचाई, एक नया आकाश देकर मानव के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव का कारण बने। 1907 में जब पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम “प्लास्टिक” की खोज हुई तो इसके आविष्कारक बकलैंड ने कहा था, “अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मेरा ये अविष्कार एक नए भविष्य की रचना करेगा।” और ऐसा हुआ भी, उस वक्त प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने अपने मुख्य पृष्ठ पर लियो बकलैंड की तसवीर छापी थी और उनकी फोटो के साथ लिखा था, “ये ना जलेगा और ना पिघलेगा।”

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तन्हाई

पंसद है मुझे यूँ तन्हा रहना,
यूँ अकेले अपने आप से बात करना,
सोचकर कभी किसी बात को,
आ जाती है चेहरे पर मुस्कान कभी,
तो बहने लग जाती हैं अचानक ही आंसुओं की धारा कभी,
उठाती हूँ सुबह चाय की प्याली को हाथ से जब,
तो काँपने लग जाते हैं ये दो लब मेरे तब,
उठ जाती हूँ रात के किसी भी पहर अब,
और करती हूँ शुरू गिनती तारों की आसमां में तब
कभी ये तन्हाई नासूर बन जाती है,
तो कभी जीने का मकसद दे जाती है
मोनिका जैन द्वारका (दिल्ली)

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गले की फांस बनता चालान…

नियम कानून बनाए ही इसलिए जाते हैं कि जनजीवन सुचारु रुप से चलें लेकिन अपने निजी फायदे के चलते लोग बाग इसका सही इस्तेमाल नहीं करते। सीधे-सीधे कह सकते हैं कि दुरुपयोग करते हैं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। इन दिनों गाड़ियों पर चालन का मुद्दा गरमाया हुआ है। नियमों के पालन के लिए सख्ती जरूरी है लेकिन सख्ती के नाम पर जो गुंडागर्दी हो रही है वो कहां तक जायज है? हालांकि सोशल मीडिया पर इस बात का मजाक भी बहुत उड़ रहा है लेकिन कुछ जगहों पर ऐसी घटनाएं देखी सुनी जा रही है जहां गुंडागर्दी सरेआम घट रही है। यह कैसी बाध्यता है नियमों के पालन की? एक दायरे में रहकर नियमों का पालन करवाया जाए तो लोग भी नियमों का पालन करने के लिए बाध्य होंगे। नियमों को मनवाने के नाम पर मनचाहा चालान काट कर जनता को जिस तरह से परेशान किया जा रहा है वह गलत है। एक ओवरलोड ट्रक का चालान 2 लाख 500 रुपए काटा गया, दिल्ली में एक ट्रक का चालान 1 लाख 41 हजार 760 रूपये काटा गया, एक बाइक वाले का चालान 23000 काटा गया, एक ऑटो वाले का 59000 रुपए का चालान कटा। अभी हाल ही में 3 लाख का चालान कटा। इतनी बड़ी रकम पेनल्टी के तौर पर भरना आसान नहीं है और मिडिल क्लास के लोगों के लिए तो बिल्कुल भी नहीं।

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लालच बुरी बला है

बहुत समय पहले की बात है किसी गांव में एक बुढ़िया अपने बेटे और बहू के साथ रहा करती थी। बहू का उसके प्रति व्यवहार बहुत अच्छा नहीं था। उसे उसकी मौजूदगी खटकती रहती थी। वह दिन भर बड़बड़ाती रहती,”न जाने इस बुढ़िया को कब मौत आएगी मेरी छाती का पीपल बन गई है मर जाए तो 101 नारियल चढ़ाऊंगी।” बुढ़िया यह सब सुनकर बहुत दुखी होती। अपमान का घूंट पीकर जी रही थी। आखिर इस उम्र में जाती भी तो कहां? वह मन बहलाने के लिए चरखे पर सूत काटने का काम करती और रात में जब थक जाती तो अपने चरखे को रखते हुए गुनगुनाती,” उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर।”बहू को लगातार उसका साथ रहना खटक रहा था और वह इस उधेड़बुन में थी कि ऐसा क्या उपाय किया जाए जिससे हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए। उसे एक तरकीब सूझी। उसने अपने पति के कान भरने शुरू कर दिए कि न जाने तुम्हारी मां रोज रात में किसे बुलाती है बेटे ने ऐसी किसी बात से इनकर किया तो उसने कहा यदि आपको यकीन नहीं है तो आप खुद अपने कानों से सुन लीजिएगा। रात में बुढ़िया रोजाना की तरह गुनगुना रही थी ,”उठो चरख कुठिल पर बैठो, आते होंगे झामरइया सूते पलंग पर…..।”

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कहीं आने वाली मंदी का कारण हम तो नहीं बनने वाले ?

इस समय भारत ही नहीं पूरे विश्व में आर्थिक मंदी की आहट की चर्चा है। भारत के विषय में अगर बात करें तो हाल ही में जारी कुछ आंकड़ों के हवाले से यह कहा जा रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुज़र रही है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार अप्रैल- जून तिमाही की आर्थिक विकास दर 5% रह गई है जो कि पिछले 6 सालों में सबसे निचले स्तर पर है। एक अर्थशास्त्री के लिए ये आंकड़े मायने रखते होंगे लेकिन एक आम आदमी तो साधरण मनोविज्ञान के नियमों पर चलता है। सरकार कह रही है कि आने वाली वैश्विक मंदी का भारत में कोई खास असर नहीं होने वाला है अपितु इसके साथ ही इस वैश्विक मंदी का असर भारत पर नहीं हो इस के लिए अनेक उपाय भी कर रही है।, लेकिन टीवी और अखबार “आने वाली” मंदी की खबरों और विभिन्न अर्थशास्त्रियों के “शस्त्रार्थ” से भरे हैं। तो सोशल मीडिया के मंच पर इस विषय में परोसे जाने वाली जानकारी से आज आम आदमी आश्वस्त होने के बजाए चिंतित एवं भ्रमित अधिक हो रहा है। जो आम आदमी कुछ सालों पहले तक देश की आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ अपने घर की मंदी दूर कर अपनी खुद की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में लगा रहता था आज देश की अर्थव्यवस्था पर विचार विमर्श कर रहा है।

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शिक्षक का भटकता उत्तरदायित्व

प्रत्येक वर्ष के सितम्बर माह के प्रथम सप्ताह मे 5 सितम्बर को हम शिक्षक दिवस के रूप मे मनाते है। जिस महान शख्शियत के जन्मदिन को हम इस विशेष दिवस का दर्जा दिए है वो थे हमारे स्वतन्त्र भारत के उपराष्ट्रपति ड़ॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन। भारत मे गरीबी और शिक्षा जैसे विषयो पर बहुत काम हुए किन्तु उक्त विषय पर जो काम राधाकृष्णन जी ने किया वो खुद मे अद्वितीय है। आज के वर्तमान समय मे शिक्षा की जो व्यवस्था लागू है वो बेहद निराशाजनक और खेदपूर्ण है। आजकल अयोग्य को योग्य बनाकर उच्च वेतनमान पर धड़ल्ले से नियुक्त किया जा रहा जबकि योग्य संसाधन विहीन होकर दुर्गम जीवन व्यतीत कर रहा।
शिक्षा विभाग पूरी तरह जर्जर और शिक्षक पूरी तरह मानसिक अपंग हो चुके है। मैं ऐसे कई उदाहरण प्रत्यक्ष प्रमाण और किदवन्ति दे सकता हूँ जिसमे योग्य और मेहनती शिक्षक कम वेतनमान पर जीतोड़ मेहनत कर रहे और अयोग्य और लाख पचास हजार वेतन लेने वाले शिक्षक शिक्षा व्यवस्था को धाराशायी कर रहे। प्राथमिक विद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था इन दिनों तेजी से चरमराई है कारण शिक्षको की दबंगता और शिक्षण कार्य के पीछे नीरसता है। कई विद्यालयो मे तो शिक्षक विद्यालय खुलने के कई घण्टे बाद पहुचते है ऐसे मे अभिवाहक कैसे उस विद्यालय के प्रति आश्वस्त होकर अपने पाल्य को वहाँ पढ़ने भेजे।

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आखिर गणपति विसर्जन क्यों करते हैं….

गणेशोत्सव करीब ही है। बड़े मनोयोग और श्रद्धा से लोग गणपति को घर लाते हैं। दस दिन तक विराजने वाले गणपति की पूजा आराधना करते हैं। वैसे इस उत्सव को बाल गंगाधर तिलक ने भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए और भारतीयों को एकता के सूत्र में बांधने के लिए शुरू किया था जोकि अब उत्सव के रूप में देश में कई जगहों पर बड़े उत्साह के साथ मनाया जाने लगा है। वैसे तो गणपति के विषय में बहुत सी कथाएं प्रचलित है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि गणपति का विसर्जन क्यों किया जाता है? पुराणों में एक कथा प्रचलित है कि वेद व्यास जी ने गणेश चतुर्थी से महाभारत की कथा दस दिन तक लगातार सुनाई थी और इस कथा को गणेश जी ने अक्षरशः लिखा था। दस दिन बाद जब वेदव्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि दस दिन की अथक मेहनत से गणेश जी का तापमान बहुत अधिक बढ़ गया है तो वेदव्यास जी ने तुरंत गणेश जी को एक कुंड में ले जाकर ठंडा किया। इसीलिए गणेश जी की स्थापना करके चतुर्दशी को उन्हें शीतल किया जाता है।

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‘एक ही छत के नीचे हो, अब सब धर्मों की प्रार्थना’‘

अब समय आ गया है जबकि सभी धर्मों के लोगों को एक ही स्थान पर एकत्रित होकर एक ही परमपिता परमात्मा की प्रार्थना करनी चाहिए। अर्थात एक ही छत के नीचे हो-अब सब धर्मों की प्रार्थना’ हो। अज्ञानता के कारण आज एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये अवतारों को अलग-अलग मानने के कारण ही धर्म के नाम पर चारों ओर जमकर दूरियां बढ़ रही है, जबकि सभी अवतार एक ही परमपिता परमात्मा की ओर से युग-युग में आये हैं। इस प्रकार हम सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं। लैटिन भाषा में रिलीजन के मायने जोड़ना होता है। अर्थात जो जोड़े वह धर्म है तथा जो तोड़े वह अधर्म है। रामायण में तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा है कि ‘जब जब होई धर्म की हानि – बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा – हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। अर्थात जब-जब धर्म की हानि होती है और संसार में असुर, अधर्म एवं अन्यायी प्रवृत्तियों के लोगों की संख्या सज्जनों की तुलना में बढ़ जाने के कारण धरती का संतुलन बिगड़ जाता है, तब-तब परम पिता परमात्मा कृपा करके धरती पर अपने प्रतिनिधियों (अवतारों) कृष्ण, बुद्ध, अब्राहीम, मुसा, महावीर, जरस्थु, ईसा, मोहम्मद, नानक, बहाउल्लाह आदि को मानवता का मार्गदर्शन कर समाज को सुव्यवस्थित करने के लिए युग-युग में विविध रूपों में भेजते रहे हैं।

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