Sunday, June 8, 2025
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लेख/विचार

प्रत्येक भारतीय के लिए राष्ट्रधर्म ही होना चाहिए सर्वोच्च धर्म

एक राष्ट्र तब तक परास्त नहीं हो सकता जबतक वह अपनी संस्कृत, सभ्यता और संस्कृतिक मूल्यों की रक्षा कर पाता है, इतिहास गवाह है कि, जब-जब हमने अपनी संस्कृतिक विरासत को छोड़ा है तब-तब हमारा राष्ट्र खंड-खंड में विभाजित हुआ है। और इसी का लाभ उठाकर तमाम आक्रंताओं ने हमारे राष्ट्र में कइयों बार लूट-खसोट मचाई है। हमने अपने इतिहास से भी सीख न लेते हुए वैदिक काल से चली आ रही वर्ण व्यवस्था को आज भी अपने समाज में स्थान दे रखा है। भले ही हम इक्कीसवीं शताब्दी में रह रहे हों और खुद को आधुनिक मान रहे हों लेकिन, जिस प्रकार आज हमारा राष्ट्र जाति और धर्म के नाम पर खंड-खंड में बंटा हुआ है इससे हमारी आधुनिकता का खूब पता चल रहा है। निश्चित रूप से भारतीय समाज ने विश्व के तमाम क्षेत्रों में जाकर इस समाज के मान को बढ़ाया है, किंतु जब हम धरातल पर आकर किसी निष्कर्ष को निकालते हैं तब हमारे हाथ सदियों से चली आ रही रूढ़िवादी विचार धारा का खोखला पन ही हाथ आता है।
यह अलग बात है कि हाल ही में केरल राज्य ने समानता का एक नया उदाहारण पेश किया है, केरल के ट्रावनकोर देवास्वामी मंदिर की नियुक्ति समिति ने अपने पुजारियों के रुप में 36 गैर-ब्राह्मणों का चुनाव किया है, जिसमें छः दलित श्रेणी के हैं, केरल के धार्मिक स्थानों पर जातिगत भेदभाव का एक लंबा इतिहास रहा है, लेकिन जिस प्रकार का यह नया अभूतपू्र्व कदम उठाया गया है इसको देखकर कहा जा सकता है कि देश में समानता की लव जल चुकी है। हालांकि यह देखना होगा कि किस प्रकार गैर-ब्राह्मण पुजारियों को वहां के श्रद्धालु स्वीकार करते हैं।
सदियों से हमारा समाज जातिवाद, असमानता, वह अस्पृश्यता का शिकार रहा है। अगर हम इतिहास पर गौर करें तो वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था को निम्न चार भागों में बांटा गया था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। जिसमें ब्राह्मण वर्ण का कार्य लोगों को शिक्षा देने का, क्षत्रिय का लोगों की रक्षा करने, वैश्य का व्यापार एवं शूद्र का इन सभी की सेवा करने का कार्य हुआ करता था।

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महिलाओं को उन्नति करने के लिए उन्नत माहौल की आवश्यकता

आंकड़े सिर्फ आहट की दस्तक नहीं देते, बल्कि सच्चाई से रूबरू कराते हैं। देश में लिंग-अनुपात के लगातार कम होने के जो आंकड़े हमारे सामने आ रहे हैं, वे न सिर्फ हमारी मानसिकता बताते हैं। यहां तक हमारे समाज के दो- अर्थी व्यहवार को भी व्यक्त करते हैं। साथ- साथ यह भी पता चलता है, कि कन्याभ्रूण हत्या रोकने और अन्य स्तर पर लड़कियों को सुरक्षा देने के सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास निरर्थक ही साबित हो रहें हैं। मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार भले ही प्रदेश के हर घर की लाड़ली को लक्ष्मी बनाने का अथक प्रयास कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत में लड़कियां 28 दिन भी साँसें नहीं ले पाती । मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जहां सूबे में लड़के की मृत्यु दर में 14.6 प्रतिशत की दर से गिरावट आ रही है, वहीं घर की लाड़ली बन रहीं लड़कियों की मृत्युदर में मात्र 1.6 फीसदी की मामूली गिरावट यह दर्शाता है, कि नीति-निर्धारक कितने भी कानून का एलान कर दे, लेकिन लैंगिक भेदभाव समाज से दूर किए बिना लड़कियों की संख्या सूबे क्या पूरे देश में लड़कों के बराबरी पर नहीं आ सकती।
बात चाहें मध्यप्रदेश की हो, या पूरे देश की। पुरुष प्रधान सोच देश से अभी निकल नही पाई है। भले ही देश ने केंद्रीय सत्ता में महिला को प्राश्रय 50 वर्ष पूर्व ही दे चुकी हो, लेकिन महिला सशक्तिकरण के मामले में देश विकसित देशों के मामले में काफी पीछे है, और देश के भीतर मध्यप्रदेश राज्य। एक कहावत है, हाथ कंगन को आरसी क्या, और पढ़े-लिखे को फारसी क्या। ऐसे में सूबे की महिलाओं की स्थिति क्या स्थिति है, वह बताने की शायद आवश्यकता नहीं। फिर भी आंकड़ों के सागर में अगर गोता लगाते हैं, तो पता चलता है, कि देश में महिला सशक्तिकरण की दिशा में मध्यप्रदेश राज्य आज के वक्त भी काफी पिछड़ा हुआ है। तभी तो महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, और सुरक्षा प्रदान करने के मामले में मध्यप्रदेश देश के अन्य राज्यों से काफी दूर मामूल पड़ता है। उससे भी दुःखद बात यह है, कि केंद्र की जो भाजपा सरकार सत्ता में ही बहुत हुआ महिलाओं पर अत्याचार, अबकी बार मोदी सरकार के नारे पर आई । उसी पार्टी के शासित राज्य में महिलाओं की अस्मिता के साथ सबसे ज्यादा खिलवाड़ होता आ रहा है। अभी बीते दिनों की घटना है, जब प्रदेश अपने स्थापना दिवस की रंगीनियों में धूमिल था, तभी राजधानी में एक लड़की दरिंदगी का शिकार हो जाती है। फिर सूबे में महिलाओं की क्या सामाजिक स्थिति है, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

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विश्व बैंक रिपोर्ट एक ठंडी हवा का झोंका बनकर आई है

जब नोटबंदी और जीएसटी को देश की घटती जीडीपी और सुस्त होती अर्थव्यवस्था का कारण बताते हुए सरकार लम्बे अरसे से लगातार अपने विरोधियों के निशाने पर हो, और 8 नवंबर को विपक्ष द्वारा काला दिवस मनाने की घोषणा की गई हो, ऐसे समय में कारोबारी सुगमता पर विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट सरकार के लिए एक ठंडी हवा का झोंका बनकर आई है।
लेकिन जिस प्रकार कांग्रेस इस रिपोर्ट को ही फिक्सड कहते हुए अपनी हताशा जाहिर कर रही है वो निश्चित ही अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। उसकी इस प्रकार की नकारात्मक रणनीति के परिणामस्वरूप आज न सिर्फ कांग्रेस खुद ही अपने पतन का कारण बन रही है बल्कि देशवासियों को पार्टी के रूप में कोई विकल्प और देश के लोकतंत्र को एक मजबूत विपक्ष भी नहीं दे पा रही है।
सरकार के  विरोधियों को उनका जवाब शायद वर्ल्ड बैंक की  “ईज आफ डूइंग बिजनेस”  रैंकिंग की ताजा रिपोर्ट में मिल गया होगा जिसमें इस बार भारत ने अभूतपूर्व 30 अंकों की उछाल दर्ज की है।
यह सरकार की आर्थिक नीतियों का परिणाम ही है कि 190 देशों की इस सूची में भारत 2014 में  142 वें पायदान पर था, 2017 में सुधार करते हुए  130 वें स्थान पर आया और अब पहली बार वह इस सूची में 100 वें रैंक पर है।
अगर अपने पड़ोसी देशों की बात करें तो महज 0.40 अंकों के सुधार के साथ चीन  78 वें पायदान  पर है, पाकिस्तान 147  और  बांग्लादेश  177 पर।
सरकार का लक्ष्य 2019 में  90 और  2020 तक  30 वें पायदान पर आना है।
प्रधानमंत्री का कहना है कि  “सुधार, प्रदर्शन और रूपांतरण के मंत्र की मार्गदर्शिका के अनुसार हम अपनी रैंकिंग में और सुधार के लिए और अधिक आर्थिक वृद्धि को पाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”
रिपोर्ट की सबसे खास बात यह है कि भारत को इस साल सबसे अधिक सुधार करने वाले दुनिया के टाँप टेन देशों में शामिल किया गया है और बुनियादी ढांचे में सुधार करने के मामले में यह शीर्ष पर है।
भारत के लिए निसंदेह यह गर्व की बात है कि इस प्रतिष्ठित सूची में वह  दक्षिण एशिया और ब्रिक्स समूह का एकमात्र देश है।

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गुजरात चुनाव: परीक्षा आखिर किसकी…?

कोई भी व्यक्ति अपने द्वारा किए गए कार्यों से समाज में “नायक” अवश्य बन सकता है लेकिन वह  “नेता” तभी बनता है जब उसकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को राजनैतिक सौदेबाजी का समर्थन मिलता है।”
गुजरात जैसे राज्य के विधानसभा चुनाव इस समय देश भर के लिए सबसे चर्चित औरहाँट मुद्दा” बने हुए  है। कहा तो यहाँ तक जा रहा है कि इस बार के गुजरात चुनाव मोदी की अग्नि परीक्षा हैं।
लेकिन राहुल गाँधी राज्य में जिस प्रकार, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकुर और हार्दिक पटेल के साथ मिलकर  विकास को पागल करार देते हुए जाति आधारित राजनीति करने में लगे हैं उससे  यह कहना गलत नहीं होगा कि असली परीक्षा मोदी की नहीं गुजरात के लोगों की है।
आखिर इन जैसे लोगों को नेता कौन बनाता है, राजनैतिक दल या फिर जनता?
देश पहले भी ऐसे ही जन आन्दोलनों से लालू और केजरीवाल जैसे नेताओं का निर्माण देख चुका है। इसलिए परीक्षा तो  हर एक गुजराती की है कि वो अपना होने वाला नेता किसे चुनता है विकास के सहारे भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए वोट मांगने वाले को या फिर जाति के आधार पर गुजराती समाज को बाँट कर किसी जिग्नेश, हार्दिक या फिर अल्पेश नाम की बैसाखियों के सहारे वोट मांगने वाले को।
परीक्षा गुजरात के उस व्यापारी वर्ग की है कि वो अपना  वोट किसे देता है उसे जो पूरे देश में अन्तर्राज्यीय  व्यापार और टैक्सेशन की प्रक्रिया को सुगम तथा सरल बनाने की कोशिश और सुधार करते हुए अपने काम के आधार पर वोट मांग रहा है या फिर उसे जिसने अभी तक देश में तो क्या अपने संसदीय क्षेत्र तक में इतने सालों तक कोई काम नहीं किया लेकिन अपने राजनैतिक प्रतिद्वन्दी द्वारा किए गए कामों में कमियाँ  निकालते हुए समर्थन मांग रहे हैं।

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शासन की नीतियों, योजनाओं को नजदीक आये और हुए लाभाविंत

पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्म शताब्दी वर्ष में पूरे जनपद कानपुर देहात में ब्लाक, जिलास्तर पर अन्त्योदय प्रदर्शनी व मेले भव्य तरीके से आयोजित हुए जिससे जनता ने पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को दूर दराज की जनता जानी, अन्त्योदय एकात्मक मानववाद सबका साथ सबका विकास जाना, वहीं शासन की नीतियों, योजनाओं को नजदीक आये और उससे लाभांवित हुए। प्रदर्शनी और मेलों से बढ़ चला उत्तर प्रदेश एक नई दिशा की ओर, समृद्धि और खुशहाली और जागरूकता का संदेश देता हुआ जनपद में विगत माह अन्त्योदय मेला व प्रर्दशनी में जनपद में पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी वर्ष के तहत प्रत्येक ब्लाक व जिलास्तरीय में तीन-तीन दिन अन्त्योदय प्रदर्शनी व मेला संगोष्ठी आदि का भव्यता के साथ आयोजन किया गया। जिसका लाभ शहरी और ग्रामीण दोनो ही जनता द्वारा लिया गया। अन्त्योदय प्रदर्शनी व मेले में किसानों के साथ ही युवा व छात्र-छात्राओं की भागीदारी बड़ी संख्या में देखने को मिली। दीनदयाल उपाध्याय जन्म शताब्दी वर्ष के तहत अन्त्योदय मेले पं. दीनदयाल उपाध्याय की जीवन पाठ व सरकार की उपलब्धियों का भी लोकगीतों, नाटक, अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से बखान भी किया गया।

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सरकार की प्रथम जबाबदेही जनता के प्रति है लोकसेवकों के प्रति नहीं

वैसे तो भारत एक लोकतांत्रिक देश है। अगर परिभाषा की बात की जाए तो यहाँ जनता के द्वारा जनता के लिए और जनता का ही शासन है लेकिन राजस्थान सरकार के एक ताजा अध्यादेश ने लोकतंत्र की इस परिभाषा की धज्जियां उड़ाने की एक असफल कोशिश की। हालांकी जिस प्रकार विधानसभा में बहुमत होने के बावजूद वसुन्धरा सरकार इस अध्यादेश को कानून बनाने में कामयाब नहीं हो सकी, दर्शाता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें वाकई में बहुत गहरी हैं जो कि एक शुभ संकेत है।
लोकतंत्र की इस जीत के लिए न सिर्फ विपक्ष की भूमिका प्रशंसनीय है जिसने सदन में अपेक्षा के अनुरूप काम किया बल्कि हर वो शख्स हर वो संस्था भी बधाई की पात्र है जिसने इसके विरोध में आवाज उठाई और लोकतंत्र के जागरूक प्रहरी का काम किया।
राजस्थान सरकार के इस अध्यादेश के द्रारा यह सुनिश्चित किया गया था कि बिना सरकार की अनुमति के किसी भी लोकसेवक के विरुद्ध मुकदमा दायर नहीं किया जा सकेगा साथ ही मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करने वाले सरकारी कर्मचारियों के नामों का खुलासा करना भी एक दण्डनीय अपराध माना जाएगा।
जहाँ अब तक गजेटेड अफसर को ही लोक सेवक माना गया था अब सरकार की ओर से लोक सेवा के दायरे में पंच सरपंच से लेकर विधायक तक को शामिल कर लिया गया है।

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दिल्ली में मेट्रो किराया वृद्धि से आती है गहरे षडयंत्र की बू

देश की आम जनता को जिस तरह से बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराने की नैतिक जिम्मेदारी केन्द्र एवं राज्य सरकारों की होती है, ठीक उसी तरह से लोगों को सस्ता व सुगम सार्वजनिक लोक परिवहन सुविधा उपलब्ध कराना भी सरकारों का ही फर्ज है। इस देश का आम गरीब अपने गांव- कस्बों और मोहल्लों से निकल कर बड़ी तादात में बड़े शहरों की तरफ रूख करता है। ये वो जमात होती है जो दो वक्त की रोटी के लिए अपने घरों से महरूम होकर पलायन करती है। हमारे भारत में काम की तलाश में दिन प्रतिदिन बड़ी संख्या में मजदूर लोग देश की राजधानी दिल्ली- मुंबई और राज्यों की राजधानियों के अलावा बड़े शहरों की तरफ रूख करते है। अपने घरों से महरूम होकर पलायन करने वाले ये ऐसे लोग होते है जो शहर के बीचों बीच नही बल्कि शहर के आउटर एरिया में निवास करते है। ऐसी स्थिति में सरकारों की ओर भी जिम्मेदारी बनती है कि इन लोगों को सस्ता और अच्छा सार्वजनिक लोक परिवहन उपलब्ध कराएं। हालाकि मुंबई में लोकल टे्रन और दिल्ली में मेट्रो ट्रेन ने कुछ हद तक इस सावर्जनिक लोक परिवहन की सुविधा से लोगों को राहत दी है। लेकिन हाल के दिनों में देखने में ये भी आया है कि इस तरह की सुविधाओं से लोगों को महरूम करने का एक षडयंत्रकारी माहौल भी बनाया जा रहा है। बड़ी-बड़ी नामी गिरामी नीजि टेक्सी संचालक जैसे ओला-उबेर और तमाम दूसरी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के ध्येय से सार्वजनिक लोक परिवहन को आमजन की पहुंच से दूर करने का काम किया जा रहा है। मेट्रो ट्रेन को लेकर दिल्ली में इस तरह का षडयंत्र तेजी से चल रहा है। यहां जब-तब मेट्रो का किराया बढ़ा कर यह दलील दी जाती है कि प्रोजेक्ट को संचालित करने में घाटा हो रहा है इस कारण किराया बढ़ाया जा रहा है। लेकिन यह आधा सच है। इसके साथ ही डीएमआरसी कर्मचारियों के वेतन, रखरखाव और दूसरी सुविधाओं में बढ़ोतरी के लिए खर्च जुटाने की दलीले भी बीते समय दे चुका है। जबकि हाल के दिनों तक दिल्ली मेट्रो लगातार मुनाफे का दावा करती रही है।

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क्यों न दिवाली कुछ ऐसे मनायें

दिवाली यानी रोशनी, मिठाईयाँ, खरीददारी, खुशियाँ और वो सबकुछ जो एक बच्चे से लेकर बड़ों तक के चेहरे पर मुस्कान लेकर आती है।
प्यार और त्याग की मिट्टी से गूंथे अपने अपने घरौंदों को सजाना भाँति भाँति के पकवान बनाना नए कपड़े और पटाखों की खरीददारी !
दीपकों की रोशनी और पटाखों का शोर
बस यही दिखाई देता है चारों ओर।
हमारे देश और हमारी संस्कृति की यही खूबी है।
त्यौहार के रूप में मनाए जाने वाले जीवन के ये दिन न सिर्फ उन पलों को खूबसूरत बनाते हैं बल्कि हमारे जीवन को अपनी खुशबू से महका जाते हैं।
हमारे सारे त्यौहार न केवल एक दूसरे को खुशियाँ बाँटने का जरिया हैं बल्कि वे अपने भीतर बहुत से सामाजिक संदेश देने का भी जरिया हैं।
भारत में हर धर्म के लोगों के दीवाली मानने के अपने अपने कारण हैं
जैन लोग दीवाली मनाते हैं क्योंकि इस दिन उनके गुरु श्री महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ था।
सिक्ख दीवाली अपने गुरु हर गोबिंद जी के बाकी हिंदू गुरुओं के साथ जहाँगीर की जेल से वापस आने की खुशी में मनाते हैं।
बौद्ध दीवाली मनाते हैं क्योंकि इस दिन सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था।
और हिन्दू दीवाली मनाते हैं अपने 14 वर्षों का बनवास काटकर प्रभु श्रीराम के अयोध्या वापस आने की खुशी में।
हम सभी हर्षोल्लास के साथ हर साल दीवाली मनाते हैं लेकिन इस बार इस त्यौहार के पीछे छिपे संदेशों को अपने जीवन में उतारकर कुछ नई सी दीवाली मनाएँ। एक ऐसी दीवाली जो खुशियाँ ही नहीं खुशहाली लाए। आज हमारा समाज जिस मोड़ पर खड़ा है दीवाली के संदेशों को अपने जीवन में उतारना बेहद प्रासंगिक होगा।
तो इस बार दीवाली पर हम किसी रूठे हुए अपने को मनाकर या फिर किसी अपने से अपनी नाराजगी खुद ही भुलाकर खुशियाँ के साथ मनाएँ।

दीवाली हम मनाते हैं राम भगवान की रावण पर विजय की खुशी में यानी बुराई पर अच्छाई की जीत, तो इस बार हम भी अपने भीतर की किसी भी एक बुराई पर विजय पाएँ, चाहे वो क्रोध हो या आलस्य या फिर कुछ भी।
दीवाली हम मनाते हैं गणेश और लक्ष्मी पूजन करके तो हर बार की तरह इस बार भी इनके प्रतीकों की पूजा अवश्य करें लेकिन साथ ही किसी जरूरतमंद ऐसे नर की मदद करें जिसे स्वयं नारायण ने बनाया है शायद इसीलिए कहा भी जाता है कि ‘नर में ही नारायण हैं’।

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वायु सेना की ताकत बढ़ाने की तैयारी

भारतीय वायु सेना 8 अक्टूबर 1932 से धीरे-धीरे प्रगति करती हुई आज दुनिया की 4वें नंबर की सबसे बडी़ वायु सेना मानी जाती है क्योंकि इसकी मारक क्षमता में लगातार गुणात्मक वृद्धि हुई है। अब यह अपने 85 वर्ष पूरे कर 86वें वर्ष में प्रवेश कर गई है। इन 85 वर्षों के इतिहास में ऐसे कई अवसर आए जब भारतीय वायु सेना के जांबाजो ने शत्रु के दांत खट्टे करके अपनी ताकत का एहसास करवाया। प्रत्येक चुनौती के समय भारतीय वायु सेना ने अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया है। भारतीय वायु सेना के विमान हमेशा ही दुश्मन पर आफत बनकर टूटे हैं। हर बार उन्होंने दुश्मनों को तबाह किया है। हर लड़ाई को जीतने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई है। आजादी हासिल करने के बाद सन् 1947 की भारत पाक लड़ाई में कश्मीर में छाताधारी सैनिकों को उतारकर इस सेना ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को खदेडा़ था। सन् 1961 में कांगो आपरेशन में भी बेहतरीन भूमिका निभाई। भारतीय वायु सेना ने सन् 1965 व 1971 की लड़ाई एवं 1999 के कारगिल संघर्ष में एक बड़ी भूमिका निभाई। यह वायु सेना की ही ताकत थी कि 1971 की जंग में पाकिस्तान के 93 हजार जवानों के साथ आत्म समर्पण करने वाले पाकिस्तान के लेफ्टिनेंट जनरल ए.के.नियाजी ने कहा था कि इसकी वजह केवल और केवल भारतीय वायु सेना ही है।
अभी हाल ही में बेंगलुरु में 25 अगस्त 2017 को इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एयरोस्पेस मेडिसिन द्वारा आयोजित 56वें वार्षिक सम्मेलन का उद्घाटन करने आए एयर चीफ मार्शल बिरेन्दर सिंह धनोवा ने कहा था कि भारतीय वायु सेना किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए तैयार है। यह बात उन्होंने भारत-चीन की सेना के बीच जारी गतिरोध पर पूछे गए सवालों के जवाब में कही थी। इससे कुछ दिन पहले उन्होंने कारगिल संघर्ष की सालगिरह पर कहा था कि तब से अब तक के 18 वर्षों में वायु सेना की क्षमता में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि अब भारतीय वायु सेना के पास हर मौसमी परिस्थिति में दिन और रात में काम करने की क्षमता है। इन बातों से यह पता चल जाता है कि भारतीय वायु सेना अत्याधुनिक हथियारों व उपकरणों से लैस है। हमारे वायु योद्धा निरन्तर आसमान से नजर बनाए रखते हैं। आज उनकी नजरों से बचकर शत्रु की कोई चाल कामयाब नहीं हो सकती क्योंकि वे हर चुनौती से निपटने के लिए तैयार हैं।

भारतीय वायु सेना को अत्याधुनिक लड़ाकू विमान शीघ्र दिए जाने की प्रक्रिया गत वर्ष ही तेज कर दी गई थी जिससे उसके विमान बेड़े की संख्या बढ़ाई जा सके। इसके लिए फ्रंसीसी एविएशन कम्पनी दसाल्ट के साथ अनिल अम्बानी का एडीए समूह महत्वपूर्ण किरदार निभाएगा और राफेल लड़ाकू विमानों के निर्माण में सक्रिय सहयोग करेगा।

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इस बार की राह इतनी आसान नहीं होगी शिवराज के लिये

भारतीय जनता पार्टी पहली बार 5 मार्च 1990 में भोजपुर विधायक सुन्दर लाल पटवा ने मध्यप्रदेश का कमान 15 मई 1992 तक संभाली लेकिन 16 दिसम्बर से 6 दिसम्बर तक राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा।
8 दिसम्बर 2003 से 23 अगस्त 2004 तक मलहारा के विधायक उमा भारती की नेतृत्व में सरकार चली।
23 अगस्त 2004 से 29 नवम्बर 2005 गोविंदपुरा विधायक बाबुलाल गौर ने मध्यप्रदेश का दिशा निर्देशन किया। विदिशा के विधायक श्री शिव राज सिंह चौहान के नेतृत्व में 3 दिसम्बर 2008 को मध्यप्रदेश का दिशा निर्देशन शुरु हुआ जो 2018 तक चलेगी.
आसान नहीं शिव राज की राह : 2018 में मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों का समय जैसे जैसे नजदीक आता जा रहा है वैसे वैसे प्रदेश में राजनैतिक हलचल भी तेज होती जा रही है।
वैसे तो प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी बीते 14 सालों से सत्ता में है लेकिन शिवराज शासन की अगर बात की जाए तो विगत 12 वर्षों से प्रदेश की बागडोर उनके हाथों में है। इन बारह सालों में शिवराज सिंह सरकार के नाम कई उपलब्धियाँ रहीं तो कुछ दाग भी उसके दामन पर लगे।
अगर उपलब्धियों की बात की जाए तो उनकी सबसे बड़ी सफलता मप्र के माथे से बीमारू राज्य का तमगा हटाना रहा।


बिजली उत्पादन के क्षेत्र में आज मप्र सरप्लस स्टेट में शामिल है,यहाँ 15500 मेगावाट बिजली की उपलब्धता है जबकि मांग सामान्यतः 6000 मेगावाट और रबी सीजन में अधिकतम 10000 मेगावाट रहती है।

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