Monday, April 29, 2024
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समाज में आज भी है सामन्तवाद का दबदबा

हमें समाज में आज भी सामन्तवादी झलक देखने को मिलती है। शादी विवाह या संबध हैसीयत के हिसाब से नहीं होता बल्कि व्यवहार से होता है, पर क्या यह व्यावहारिक है..?
हमारे यहां प्राचीन काल से ही माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री को एक नया संसार बसाने में मदद करने के लिए अपनी ओर से सहायता देते आए हैं। यह एक स्वाभाविक मानव इच्छा होती है जिसके कारण लोग अपने बच्चों के प्रति स्नेह और अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप उन्हें भेंट देते हैं।
कहा जाता है कि आजादी के इन सत्तर सालों में भारत ने बहुत प्रगति की है, लेकिन क्या इस प्रगतिशील देश में महिला की स्थिति में कुछ बदलाव आया है…?
एक ओर तो नारी सेना, प्रशासनिक सेवाओं, राजनीति और न जाने कहां-कहां कदम रख रही है और दूसरी ओर, दहेज के लोभी महिषासुर उसी नारी को जिन्दा जला डालते हैं। उपभोक्तावाद के इस दौर ने क्या विवाह को एक मण्डी नहीं बना दिया है जहां हर कोई अपनी बोली लगवाने के लिए सजा-धजा खड़ा है?
दहेज नामक इस कुरीति की जड़ें हमारे समाज में इस गहराई तक फैली हुई हैं कि इन्हें हटाने के लिए केवल कानून बनाना ही काफी नहीं है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है जहां कानून को लागू करना एक बहुत ही टेढ़ी खीर है। मानव बुद्धि बहुत विलक्षण है। वह हर कानून का तोड़ निकाल लेती है और इसीलिए कानून किसी भी सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए सबसे कमजोर हथियार सिद्ध होता रहा है।
यहां एक प्रश्न यह भी है कि सीमा केवल उपहार खर्च पर लगाई गई है, जबकि ध्यान देने वाली बात यह है कि आज विवाह समारोहों में साज-सज्जा पर ही एक मोटी रकम खर्च कर दी जाती है। क्या कानून बनाने वाले यह मानकर चलते हैं कि जो पिता कुछ घंटों की सजावट पर लाखों रुपए खर्च करता है, वह अपनी बेटी के जीवनभर के लिए मात्र ग्यारह रुपए देगा… ?
दहेज की इस कुरीति का उपचार केवल कानून द्वारा नहीं हो सकता। मुख्य बात है समाज में जागृति उत्पन्न करना। इस सामाजिक बुराई के पीछे कई गहरे कारण होते हैं। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति हमारी सभ्यता और संस्कृति के नितान्त विरुद्ध है। आज इन पवित्र परम्पराओं के प्रति हमारा दृष्टिकोण दूषित होता जा रहा है।
दहेज की प्रथा को बढ़ावा देने के लिए केवल पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी समान रूप से दोषी होती हैं जो अपनी बहू को दहेज लाने के लिए उत्पीड़ित करती हैं तथा बेटियों के लिए गाढी कमाई का हिस्सा सिर्फ इसलिए जमा रखती हैं कि दहेज देकर उसके हाथ पीले करने हैं जबकि उस पैसे का खर्च उसके उच्च शिक्षा तथा तकनीकी क्षेत्र में होना चाहिए ताकि विपरित परिस्थितियों में काम आए।
यह एक सामाजिक समस्या है जिसका उन्मूलन तभी हो सकता है जब हम संकल्पपूर्वक इसके विरुद्ध कदम उठाएं।
दहेज की इस कुप्रथा का सबसे बड़ा शिकार लड़की ही होती है। लेकिन क्या इसमें कुछ दोष उन पिताओं का नहीं है जो अपनी पुत्रियों के विवाह में खर्च इसलिए करते हैं ताकि वे अपनी नाक ऊंची कर सकें…?
एक तरफ समाज में वह परिवार है जो बेटी के विवाह के कारण पूरी जिन्दगी कर्ज में डूबा रहता है और दूसरी तरफ वह परिवार है जो चमक-दमक के अंधे खेल में पानी की तरह पैसा बहाता है।
प्रश्न उठता है दिखावे और मजबूरी का। लक्ष्य एक ही है-दहेज। यह प्रश्न कितना गूढ़ और असमंजस पैदा करने वाला है और इसका निदान क्या हो, यह खोजना समाज का काम है।
आज हम एक “लड़का” ढूंढते हैं जो सरकारी मुलाजिम हो इम्प्लाएड हो या अपना खुद का व्यवसाय हो, मेट्रो सिटी में मकान हो। वह कितने भाई बहन का इकलौता कमाने वाला सदस्य है तथा उसके माता पिता एवं अभिभावकों ने किन परिस्थितियों में उसे उस मुकाम तक पहुंचाया है। उसके और भी भाई बहन भी हैं तो वा क्या करते हैं यह मायने नहीं रखता। क्योंकि हमने अपनी बेटियों को पारिवारिक झमेले से दूर रहने का जो पाठ पढाए हैं। इस लाड प्यार से हम उसे एकाकी जीवन जीने तथा तथा परिवार के साथ संबंधों को ना बनाकर एक लड़के को केन्द्रित कर शादी संबध कर रहे हैं जो उनके भविष्य के लिए बहुत ही खतरनाक साबित हो रहा है तथा वह परिवार सिर्फ इसलिए बिखर रहा है क्योंकि बेटी के बाप ने केवल उस लड़के के साथ अपना रिश्ता किया उसके खानदान या परिवार से क्या लेना देना है… ?
आज के दौर में शिक्षा का बहुत महत्व है इसलिए लगभग लोग अपने बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं लेकिन बेटा और बेटी के पढाई में जो भिन्नता है वह भी इस दहेज का द्योतक है, जैसे :- हम बेटे को उच्च शिक्षा देते हैं तथा नौकरी एवं रोजगार के लिए एक मोटी रकम देने को तैयार हैं जबकि बेटियों के लिए जब नौकरी या रोजगार की बात आएगी तो दूसरे घर की वस्तु बताकर दरकिनार कर दिया जाता है, तथा जहां जाएगी वहां पढ़ लेगी और जो वो चाहें कर लेगी।
अच्छा वर , अच्छा घर सबको चाहिए तो ओछी मानसिकता तथा घटिया सोंच सरकारी राशन कार्ड की तरह क्यों …?
–दहेज प्रथा कब खत्म होगी–
इंसान जब लालच की गहरी खाई में गौते लगाता है, तो वह इंसानियत को रौंदते हुए शैतान की भाषा बोलने लगता है। ‘दहेज प्रथा’ इसी का एक अप्रितम उदाहरण है।
दहेज प्रथा का इतिहास तो काफी पुराना है मगर मौजूदा वक्त में यह एक खतरनानक बिमारी का रूप ले चुकी है। अब तक हमारे समाज में ना जाने कितने घरों को इसने बर्बाद कर दिया है।
समाज के तमाम बुद्धिजीवी वर्ग आज दहेज प्रथा को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत के किसी भी वर्ग के परिवार में आपको इसका नज़ारा मिल ही जाएगा। खासतौर पर समृद्ध परिवारों में दहेज लेने की अधिक होड़ लगी रहती है।
–इस कुप्रथा के लिए के लिए समाज दोषी है या सरकार–
सरकारें कानून बनाकर सो गईं मगर आज देखने वाला कोई नहीं है कि मौजूदा वक्त में ज़मीनी स्तर पर क्या हालात हैं। सरकार जितना कुछ कर रही है, वह सब सिर्फ ऊंट के मुंह में जीरा जितना है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इन चीज़ों से दहेज प्रथा जैसी बिमारी को खत्म नहीं किया जा सकता है।
लगभग सभी सरकारी नुमाइंदे भी इस दहेज के सागर में डुबकी मार ही लेते हैं। मेरे गाँव का उदाहरण दूं तो अधिकतर लोग इसलिए सरकारी नौकरी चाहते हैं, ताकि उन्हें शानदार दहेज मिले।
अब इसका प्रभाव गाँवों, शहरों और महानगरों में भी दिखने लगा है। लोग यह समझना ही नहीं चाह रहे हैं कि दहेज लेना और देना दोनों ही गुनाह है। भारतीय दंड संहिता भी अपराधी का सहयोग करने वाले को अपराधी मानती है।
जब पाश्चत्य संस्कृति की बात आती है, तो हम अंग्रेज़ों को कोसते हुए कहते हैं कि उन्होंने हमारी सभ्यताओं को बिगाड़ दिया है लेकिन हम उनकी अच्छाईयों का ज़िक्र करना ही नहीं चाहते हैं। हम यह तो नहीं कहते हैं कि अंग्रेज़ क्यों नहीं दहेज लेते थे।
एक पिता बहुत लाड़-प्यार से अपनी बेटी को पढ़ाता है, फिर उसके लिए अच्छे वर की तलाश करता है। सब सेट हो जाता है लेकिन बात अटकती है दहेज पर, वर पक्ष इसके लिए अनेकों रिश्तेदारों और पड़ोसियों के उदाहरण देते हुए कहता है कि फलां घर से इतने पैसे दिए जा रहे हैं, हम तो कुछ नहीं मांग रहे हैं।
वास्तव में यह सब अप्रत्यक्ष रूप से मांग ही होती है और अगर निश्चित राशि नहीं मिलती है, तो बारात के वक्त पता नहीं क्या-क्या नाटक खेले जाते हैं। अगर वहां भी छुटकारा मिल जाए तो आगे ससुराल में लड़की को सताया जाता है, ताने दिए जाते हैं और कभी-कभी तो जान तक ले ली जाती है।
क्या सचमुच यही हमारे मूल्य हैं, जिस संस्कृति का ढोल हम सारे संसार में पिटते हैं, वो क्या यह सिखाती है कि किसी अन्य परिवार की बेटी को हद की सारी बंदिशें तोड़ते हुए सिर्फ सताओ।
हम क्यों भूल जाते हैं कि हमारी बेटियां भी शादी के बाद किसी और के घर जाएंगी। क्या उस वक्त हमारा खून नहीं खौलेगा जब कोई उसे भी उसी लालच में यातनाएं देगा।
हर कोई अपनी बेटी की बेहतरीन शादी करना चाहता है मगर मजबूरी ही तो होती होगी जो वह आपकी सारी मांगे पूरी नहीं कर पाता, पता नहीं दहेज़ लेने वालों पर उस वक्त कौन सा भूत सवार हो जाता है।
–और अब उपहार को दहेज बना दिया गया–
अब जब इसे खत्म करने की बात आती है, तो मैं अपनी लेखनी के ज़रिये बताना चाहती हूं कि यह लोभी समाज दहेज प्रथा को कभी भी समाप्त नहीं करना चाहेगा। लोग तो बस यह सोचते हैं कि अपनी बेटी की शादी में दहेज दिया था तो अब बेटे की शादी में लेने की बारी है।
आज का युवा जो यह पढ़ने की काबिलियत रखता है, जो त्याग की भावना को समझता है, जिसको हमारे देश का भविष्य माना जाता है और जो सारे दिन इंटरनेट पर पोस्ट ठोकता रहता है, शायद वो यह बात समझ सकता है।
सुनो, इससे पहले कि यह और निर्दोषों की जान का दुश्मन बने, सिर्फ यह सोचो कि क्या आप अपनी बहनों और बेटियों के साथ यह सब होने देना चाहते हैं…? अगर आपका जवाब ना है, तो वह भी किसी की बहन और किसी की बेटी ही होती है, इस चीज को जल्द समझ जाने से भलाई है।
रीमा मिश्रा नव्या आसनसोल(पश्चिम बंगाल)