Wednesday, June 26, 2024
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हैरान करती है तिब्बत की स्वतंत्रता पर वैश्विक चुप्पी

ईराक ने 1990 में जब कुवैत को अपना बताकर उस पर अधिकार जमाया था। तब अमेरिका ने आनन-फानन में ईराक पर कार्रवाई करते हुए न केवल कुवैत को मुक्त करा लिया था बल्कि एक समय अन्तराल के बाद परमाणु हथियार रखने का इल्जाम लगाकर ईराक का तख्ता पलट करते हुए उसे नेस्तनाबूद करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वहीँ दूसरी ओर चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार जमाए हुए 70 वर्ष बीत गये हैं। परन्तु अमेरिका सहित विश्व का कोई भी सक्षम देश इस बारे में कुछ भी बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। शायद इसी कारण चीन के हौसले बढ़े हुए हैं और वह खुलेआम परमाणु परीक्षण करके पूरे विश्व को चुनौती दे रहा है। गौरतलब है कि 40 के दशक में तिब्बत पूर्ण स्वतन्त्र राष्ट्र था। अक्टूबर 1950 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में दाखिल हुई और बर्बरतापूर्वक पूरे तिब्बत को अपने अधिकार में ले लिया। उसके बाद एक देश का विश्व से स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया। 10 मार्च 1959 को तिब्बत में चीन के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह हुआ। परन्तु चीन ने उस विद्रोह को सख्ती से कुचल दिया था। तब से लेकर आज तक तिब्बत की स्वतन्त्रता को लेकर किये गये प्रत्येक आन्दोलन को चीन बर्बरतापूर्वक कुचलता चला आ रहा है। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि मानव अधिकारों की बात करने वाले विश्व के बड़े-बड़े देश चीन द्वारा तिब्बती नागरिकों पर किये जा रहे अमानवीय अत्याचार के मूक दर्शक बने हुए हैं। तिब्बत के नाम पर संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी भी समझ से परे है।
भौगोलिक रूप से तिब्बत मध्य एशिया की उच्च पर्वत श्रेणियों के मध्य कुनलुन एवं हिमालय पर्वत के मध्य 16000 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। इसका क्षेत्रफल 47000 वर्गमील है तथा अधिकांश भूभाग पठारी है। पूर्वी क्षेत्र में कुछ वर्षा होती है तथा 1200 फुट की ऊँचाई तक वन पाये जाते हैं। यहाँ की कई घाटियाँ 5000 फुट तक गहरी हैं। जहाँ किसान खेती करते हैं। उत्तर की ओर बढ़ने पर जलवायु की शुष्कता बढ़ती जाती है एवं वनों के स्थान पर घास के मैदान पाये जाते हैं। वहां कृषि के स्थान पर पशुपालन अधिक होता है। तिब्बत को प्रकृति ने भौगोलिक सौन्दर्य का उपहार तो भरपूर दिया है। परन्तु कुवैत की तरह तेल का अकूत भण्डार या ऐसी अन्य कोई महत्वपूर्ण सम्पदा नहीं दी। शायद तभी अमेरिका सहित विश्व के बड़े देशों को कुवैतियों की तरह तिब्बतियों के मानवाधिकार में कोई दिलचस्पी नहीं है।
तिब्बत के इतिहास की यदि बात करें तो इसका विवरण 7वीं शताब्दी से मिलता है। 8वीं शताब्दी में यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार शुरू हुआ था। अंग्रेजों ने कई बार तिब्बत पर अधिकार करने का प्रयास किया परन्तु वह सफल नही हो सके। परिणाम स्वरुप 19वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखी। इस बीच तिब्बत का नेपाल से कई बार युद्ध हुआ। जिसमें नेपाल ही लगभग हर बार विजयी रहा। अन्त में दोनों देशों के बीच हुई सन्धि के मुताबिक तिब्बत की ओर से 5000 नेपाली रुपये प्रतिवर्ष बतौर हर्जाना नेपाल दरबार को देना सुनिश्चित किया गया था। इससे आजिज आकर तिब्बत ने चीन से मदद मांगी। चीनी सहायता से तिब्बत ने नेपाल से तो छुटकारा पा लिया। परन्तु चीन उसके गले की फ़ांस बन गया। मदद के नाम पर तिब्बत में दाखिल हुई चीनी सेना ने 1906-07 में तिब्बत पर अधिकार जमा लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गर्टाेक में अपनी चैकियां स्थापित कर लीं। 1912 में चीन से मांछु शासन का अन्त होने के साथ ही तिब्बत ने स्वयं को पुनः स्वतन्त्र घोषित कर दिया। 1913 से 1933 तक 13वें दलाई लामा ने यहाँ स्वतन्त्र रूप से शासन किया। 1933 में 13वें दलाई लामा की मृत्यु के बाद तिब्बत एक बार पुनः चीनी घेरे में आ गया। 6 जुलाई 1935 को 14वें दलाई लामा का जन्म हुआ और सन 1940 में उन्हें चीनी संरक्षण में तिब्बत की सत्ता प्राप्त हो गयी। सन 1950 में जब दलाई लामा सार्वभौम रूप से सत्ता में आये तब पंछेण लामा के चुनाव में दोनों देशों के बीच शक्ति प्रदर्शन की नौबत आ गयी। जिससे चीन को आक्रमण करने का बहाना मिल गयाद्य मई 1951 में तिब्बत के प्रतिनिधियों ने दबाव में आकर चीन के साथ 17 सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। जिसके अनुसार साम्यवादी चीन के प्रशासन में तिब्बत को एक स्वतन्त्र राज्य घोषित कर दिया गया। उसके बाद सितम्बर में चीनी सेना ल्हासा में दाखिल हो गयी। इसी समय भूमि सुधार कानून और दलाई लामा के अधिकारों में हस्तक्षेप एवं कटौती के कारण असन्तोष की आग भड़कने लगी। जो क्रमशः 1956 तथा 1959 में जोरों से भड़की। परन्तु चीन द्वारा न केवल उसे बल पूर्वक दबा दिया गया बल्कि तिब्बतियों पर अमानवीय अत्याचार भी किये गये। इस सबसे बचते हुए दलाई लामा किसी तरह नेपाल और फिर भारत पहुंचे। भारत ने उन्हें शरण देकर हिमांचल प्रदेश के धर्मशाला में बसा दिया। यह बात चीन को नागवार गुजरी और वह भारत को अपना शत्रु मानने लगा। 14वें दलाई लामा धर्मशाला में बैठकर तिब्बत की स्वतन्त्रता के लिए आज तक प्रयास कर रहे हैं। परन्तु उनके सारे प्रयास अब तक विफल ही सिद्ध हुए हैं।
सन 2002 में चीन सरकार ने दलाई लामा के साथ बातचीत प्रारम्भ की लेकिन इस वार्ता का कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। 14 मार्च 2008 को तिब्बत में हुए विरोध प्रदर्शन को चीन द्वारा बलपूर्वक दबा दिये जाने के साथ ही तिब्बत में विदेशी पत्रकारों के प्रवेश को भी प्रतिबन्धित कर दिया गया। सन 2011 में 14वें दलाई लामा ने तिब्बत के राष्ट्रप्रमुख के अपने राजनीतिक अधिकार का परित्याग करते हुए लोकतान्त्रिक विधि से चुने गये डॉ.लोबसांग सांगेय को सारे अधिकार प्रदान कर दिये। इस तरह से अब तिब्बत में चीन के अधीनस्थ कथित लोकतान्त्रिक सरकार सत्ता का सञ्चालन कर रही है। परन्तु स्वतन्त्र देश के रूप में तिब्बत के अस्तित्व की उम्मीद अब पूरी तरह से टूटी हुई दिखायी दे रही है। पिछले कुछ वर्षों में तिब्बत की स्वतन्त्रता और दलाई लामा की वापसी की मांग करते हुए डेढ़ सौ से भी अधिक तिब्बती नागरिक आत्मदाह कर चुके हैं। इससे तिब्बतियों की स्वतन्त्रता के प्रति अकुलाहट का पता चलता है। जानकारी प्राप्त हुई है कि 20 मई को अमेरिकी संसद में तिब्बत को स्वतन्त्र देश घोषित करने की मांग की गयी थी। तब फिर इस मांग पर अमल करते हुए अमेरिका को चाहिए कि वह तिब्बत को स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में न केवल मान्यता प्रदान करे बल्कि संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से तिब्बत को चीन से मुक्ति भी दिलाये। चीन द्वारा प्रदत्त कोरोना संक्रमण से जूझते भारत सहित विश्व के सभी देश तिब्बत की स्वतन्त्रता के मुद्दे पर निश्चित ही अमेरिका के साथ एक जुटता से खड़े दिखायी देंगे। भारत को भी इस हेतु विशेष प्रयास करने की महती आवश्यकता है।
-डॉ.दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र टिप्पणीकार)