Tuesday, July 2, 2024
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क्या कैग की संवैधानिकता बनी रहेगी?

भारत के चौदहवें कॉम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (कैग) के रूप में गिरीश चंद्र मूर्मु की नियुक्ति के कारण ‘कैग’ की कार्यप्रणाली पर एक बार फिर चर्चा हो रही है। 1985 के बैच के गुजरात कैडर के आईएएस अधिकारी (अब सेवानिवृत्त) मूर्मु प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के पसंद के अधिकारी होने की वजह से उनकी ‘कैग’ के रूप में नियुक्ति से इस संवैधानिक संस्था की तटस्थता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। मूर्मु की नियुक्ति वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर होने के बारे में दलीलें दी जा रही हैं। इंडियन ऑडिट एंड एकाउंट सर्विस के सात अधिकारियों की वरिष्ठता को किनारे कर के इन्हें इस पद के लिए लाया गया है। दिल्ली में गांधीजी और डा0 बाबासाहेब अंबेडकर की प्रतिमा की वंदना कर के यह नई जिम्मेदारी संभालने वाले मूर्मु उड़ीसा के संथाल आदिवासी परिवार से आते हैं। 21 नवंबर, 1959 में जन्मे मूम्रु उड़ीसा की प्रतिष्ठित उत्कल यूनीर्सिटी से राजनीति शास्त्र से एमए हैं। उसके बाद यूके की बर्मिघंम यूनिवार्सिटी से एमबीए किया है। 1985 से गुजरात में आईएएस अधिकारी के रूप में कार्यरत मूर्मु कैग बनने के पूर्व गुजरात के मुख्यमंत्री कार्यालय में सचिव, भारत सरकार के वित्त मंत्रलय में सचिव और जम्मू-कश्मीर के प्रथम उपराज्यपाल के रूप में कार्य कर चुके हैं। उच्च शिक्षा और लंबे प्रशासनिक कार्य का अनुभव रखने वाले मूर्मु की सत्ता पक्ष से निकटता ‘कैग’ के कामकाज के दौरान उन्हें विवाद में ला सकती है।
सरकारी धन का हिसाब-किताब (ऑडिट) करने वाली संवैधानिक संस्था ‘कैग’ सरकारी पैसे का पाई-पाई का हिसाब रखती है। केंद्र और राज्य सरकारों, सार्वजनिक संस्थाओं और अन्य सरकारी संस्थाओं के आर्थिक मामलों की देखरेख, निरीक्षण और जांच की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाती है। पूरे देश में 133 प्रादेशिक कार्यालयों में इससे 58000 अधिकरी-कर्मचारीं जुड़े हैं। ‘कैग’ की स्स्थापना अंग्रेजों के समय हुई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रमा संग्राम के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से अंग्रेज सरकार ने हिसाब-किताब संभाला तब से आज तक ‘कैग’ हीी सरकारी पैसों का आडिट यानी खर्च का हिसाब-किताब कर रही है। 1919 में कानून द्वारा ऑडिटर के इस पद को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर के वैधानिक दर्जा दिया गया। 1935 में गवर्नमेंट आफ इंडिया ऐक्ट में इसे और शक्तिशाली बनाया गया। आजादी के बाद भारत के संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 में ‘कैग’ संबंधी अवधारणएं संरक्षित की गई हैं। 1971 में (फर्ज, शासन और सेवा की शर्तें) अधिनियम बनाए गए। उसके अनुसार ‘कैग’ की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। जिसकी अवधि 6 साल या 65 साल की उम्र तक होती है।
‘कैग’ को अपने पद से न्यायाधीशों की तरह संसद इम्पीचमेंट से हटाया जा सकता है। वह सेवानिवृत्ति या इस्तीफा दे कर कोई सरकारी आर्थिक मुद्दे से जुड़ा कोई पद स्वीकार नहीं कर सकता। ये सभी अवधारणाएं कैग के पद और कामकाज को स्वतंत्र, स्वायत्त और तटस्थ बनाने के लिए की गई हैं।
नियंत्रक और महा लेखापरीक्षक का काम वित्तीय वर्ष पूरा होते ही शुरू हो जाता है। इसके कार्यक्षेत्र के अंतर्गत जिस आफिस-संस्थाओं में जो आडिट होता है, उसमें विधानसभा द्वारा मंजूर की गई रकम को अधिक या कम संबंधित बजट के हिसाब से ही खर्च हुआ है या नहीं, योजना के हिसाब से कितना खर्च आना चाहिए, इसकी जांच कर के आडिट की सूचना देता है। संसद, विधानसभा सत्र शुरू होने से पहले ही ‘कैग’ अपनी आडिट रिपोर्ट सौंप देता है। परंतु केेंद्र और राज्य सरकारें इसे समय से पेश नहीं करती हैं।
पता चला है कि मौजूदा मोदी सरकार के कार्यकाल में यानी 2014 से 2019 तक ‘कैग’ की ज्यादातर रिपोर्टें लोकसभा में देर से पेश की गई हैं। 2014 में 32 में से 8, 2015 में 31 में से 6, 2016 में 47 में से 2, 2017 में 38 में से 10, 2018 में 17 मेे से 8 और 2019 में 21 में से 7 कैग रिपोर्टें लगातार 90 दिन देर से पेश की गई थीं। कैग विपक्ष के नेता के अघ्यक्ष पद के अंतर्गत घोषित समिति के मित्र और मार्गदर्शक की भूमिका अदा करता है। विधानसभा में पेश होने के बाद ही घोषित रिपोर्ट पर चर्चा की जाती ह,ै परंतु सरकार विलंब कर के चर्चा को टालती है।
घोषित रकम का दुरुपयोग और भ्रष्टाचार ‘कैग’ की रिपोर्ट से ही उजागर होता है। पिछले पांच सालों में मोदी सरकार की योजनाओं की तमाम अच्छी-खराब बातें कैग की रिपोर्ट की वजह से ही पता चला है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रलय के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा अनुदानित रकम का सही उपयोग हुआ है या नहीं, इसकी जांच कैग करता है। कैग की ही जांच से उसमें सालोंसाल होने वाला घोटाला पकड़ा जाता रहता है।
कैग की रिपोर्ट का राजनीतिक उपयोग भी होता है। यूपीए-2 के समय बहुचर्चित टूजी घोटाला कैग ने ही पकड़ा था। परंतु तत्कालीन संचारमंत्री और अधिकारियों कोर्ट ने बरी कर दिया था। इससे यही समझ में आता है कि कैग ने जे नुकसान के आंकड़े दिए थे वे वास्तविक नही, अंदाज से थे। वर्तमान सरकार के राफेल घोटाले को कैग ने क्लीनचिट दे दी है। ये दोनों मामले राजनीति से प्रेरित माने जाते हैं। इसलिए कैग की नियुक्ति की वर्तमान पद्धति बदल कर अधिक तटस्थ और सर्वसम्मत पद्धति अपनाई जानी चाहिए। जिससे कैग जैसी संवैधानिक संस्थओं की स्चतंत्रता बनी रहे।
-वीरेन्द्र बहादुर सिंह