स्वतंत्र दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘डिजिटल हेल्थ मिशन’ की घोषणा की थी। सरकारी सूत्रें के अनुसार पूरी तरह टेक्नोलॉजी आधारित इस पद्धति को लागू करने के बाद स्वास्थ्य सेक्टर में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। हर नागरिक को एक हेल्थ आईडी कार्ड मिलेगा, जिसमें उसकी स्वास्थ्य संबंधी तमाम जानकारियां हांगीं। सरकार का मानना है कि इस योजना के लागू होने के बाद गैरजरूरी दवाओं और नकली मेडिकल बिलों पर लगाम लगेगी।
नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन कहने के लिए तो भारत सरकार की योजना है, जिसे 2018 में नीति आयोग की सलाह पर स्वास्थ्य विभाग के एक पैनल ने तैयार किया था। पर हकीकत यह है कि यह एक तरह से बड़ी दवा कंपनियों, अस्पतालों की चेन चलाने वाले कार्पोरेट घरानों, बड़ी प्राइवेट लैबोरेटरियां और वैक्सीन से जुड़ी कंपनियों के एजेंडै का विस्तार है। केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग ने इस मामले में जो ब्लूप्रिंट तैयार किया है, उसे ध्यान से देखें तो बारबार पढ़ने में आता है कि देश के लोगों को इससे बहुत लाभ पहुंचेगा। जबकि हकीकत में कहीं यह नहीं बताया गया है कि लोगों को इससे किस तरह फायदा पहुंचेगा। इस मिशन के अंतर्गत छह डिजिटल सिस्टम तैयार करने की बात की गई है- हेल्थ आईडी, डिजिडाक्टर, हेल्थ फैसिलिटी रजिस्ट्री, पर्सनल हेल्थ रेकार्ड, इन्फार्मसी और टेलिमेडिसिन। अब सोचिए कि यह सब बन जाएगा तो इससे सामान्य आदमी को क्या फायदा होगा और किस तरह होगा?
हकीकत में यह पूरा ब्लूप्रिंट सामान्य आदमी का मेडिकल डेटा एक जगह इकब््ठा करने की बात करता है। इसमें कहीं भी स्वास्थ्य के मुलभूत ढ़ांचे को सुधारने की बात नहीं कही गई है। न ही सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का कोई उल्लेख है, न ही डाक्टरों की संख्या बढ़ाने की बात कही गई है और न ही नर्सिंग स्टाफ की संख्या या गुणवत्ता सुधारने की बात। सही दाम पर जेनेरिक दवा आसानी से लोगों को किस तरह मिलेंगी, इसका भी इसमें कोई उल्लेख नहीं है। अगर में गांवों अस्पताल नहीं खुलेंगे, सरकारी अस्पतालों की स्थिति नहीं सुधरेगी, डाक्टरों की संख्या नहीं बढ़ेगी और स्वास्थ्य सेवाओं को पूरी तरह प्राइवेट सेक्टर के हवाले कर दिया जाएगा तो लोगों को हेल्थ आईडी कार्ड बनवाने से क्या फायदा होगा? क्या कार्ड बन जाने से लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने लगेंगी? इस समय कोरोना वाइरस ने देश की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल वेसे ही खोल दी है। फिर भी सरकार इसमें सुधार करने के बजाय हेल्थ आईडी बनाने में लगी है।
दरअसल, यह आधार कार्ड जैसी ही एक योजना है। जिसमें हर व्यक्ति के पास से उसके स्वास्थ्य से जुड़ी तमाम जानकारी प्राप्त की जाएगी। उसके तमाम हेल्थ पैरामीटर उसमें नोट रहेगें। जिसमें व्यक्ति की ऊंचाई, वजन, रक्त का दबाव, सुगर का स्तर, एलर्जी से होने वाली बीमारियां, उसकी अब तक हुई जांचें, वह जो दवाएं ले रहा होगा, उसकी जानकारियां, किन-किन डाक्टरों को दिखया है, वैक्सीन ली है या नहीं, स्वास्थ्य बीमा है या नहीं, ये तमाम जानकारियां उस कार्ड में रहेंगी। सरकार ये सारी जानकारी लोगों से किस तरह लेगी, इसलिए उसमें ‘डिजिडाक्टर’ और ‘हेल्थ फैसिलिटी रजिस्ट्री’ की बात भी जोड़ दी गई हैै। जिसके अंतर्गत देश के सभी डाक्टरों को डिजिटल रेकार्ड बनाने और स्वास्थ्य सेवाएं यानी कि अस्पताल वगैरह की जानकारी देने की बात शामिल की गई है। सही बात तो यह है, इसका उद्येश्य लोगों को भ्रम में रखना है कि सरकार यह काम तुम्हारे लिए कर रही है।एक प्रचार यह भी हो रहा है कि इसमें डाक्टरों की डिजिटल जानकारी उपलब्ध रहेगी। अब इससे लोगों को क्या फायदा होगा? आज हर छोटे-बड़े अस्पताल के डाक्टरों का नाम ऑनलाइन उपलब्ध है ओर उनकी हजारों रुपए की फीस किस तरह ऑनलाइन जमा करनी है यह भी जानकारी उपलब्ध है। अनेक ऐसी वेबसाइट हैं, जिनमें से व्यक्ति कोई भी बीमारी के लिए अपने नजदीक में ही डाक्टर खोज सकता है और उसकी फीस भर कर अपाइंटमेंट ले सकता है। इसके लिए ‘डिजिडाक्टर’ या ‘हेल्थ फैसिलिटी रजिस्ट्री’ की क्या जरूरत है? याद रखिए, डाक्टरों का डिजिटल डेटा बनाने से आम आदमी को कोई लाभ नही होगा। यह तो वही बात हुई कि देश के पूरे रेस्टोरेंट का मेनू डिजिटल प्लेटफार्म उपलग्ध हो जाने से हर भूखे आदमी को खाने को मिल जाएगा। डाक्टरों का डिजिटल डेटा सामान्य आदमी के किसी काम नहीं आने वाला। परंतु हर व्यक्ति का स्वास्थ्य डेटा ऑनलाइन हो जाने से प्राइवेट अस्पतालों, दवा बेचने वाले दुकानदारों, प्राइवेट लैबोरेटरियां आदि चलाने वालों को जरूर तगड़ा फायदा होगा।
हकीकत में पिछले काफी समय से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से देश का प्राइवेट हेल्थ सेक्टर मजबूत हुआ है। सरकारी अस्पतालों की सेवाएं दिन प्रतिदिन खराब होती जा रही हैं। देश के गरीब आदमी की जेब को रास आए इस तरह की स्वास्थ्य सेवाएं अब स्वप्न बन चुकी हैं। प्राइवेट अस्पतालों की अपनी मनमर्जी चलती है और वहां सरकारी कार्ड का कोई महत्च नहीं रहेगा। स्थिति ऐसी खड़ी की जा रही है कि सामान्य आदमी को मजबूरन प्राइवेट अस्पताल की शरण में जाना पड़ेगा। इसलिए देश की बड़ी फार्मा कंपनियां, मेडिकल केयर कंपनियां, लैबोरेटरियां और टेलीमेडिसिन कंपनियां विलय और हस्तांतरण द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं को संगठित कर रही हैं। पूरे देश में एक-दो कंपनियां ही पैथालॉजी लैब खोल रही हैं। मेडिकल केयर की दो-तीन बड़ी कंपनियां ही हर छोटे शहर में अपना अस्पताल खोल रही हैं अथवा पहले से चल रहे अस्तपताल को टेकओवर करा रही हैं। टेलिमेडिसिन की कंपनियां भी आक्रामक प्रचार द्वारा पूरे देश में फैल रही हैं और इन्कॉमर्स प्लेटफार्म पर दवाएं भी मिलने लगी हैं। जबकि इसके बाद भारत का हेल्थ सेक्टर काफी विखरा हुआा है। नेशनल डिजिटल मिशन का उद्येश्य इस बिखरे सेक्टर को संगठित कर के बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथों में सौंप देना ही लगता है।
सरकार अभी कह रही है कि यह कार्ड बनवाना स्वैच्छिक है। पर अधिक समय तक यह स्वैच्छिक रहने वाला नहीं है। इसे आधार कार्ड की तरह जरूरी कर दिया जाएगा। सरकार कह रही है कि आधार से अलग इसके लिए फेडरल स्ट्रक्चर तैयार किया जाएगा। जिसमें हर आदमी के स्वास्थ्य डेटा अलग-अलग अस्पतालों के सर्वर में होगा और आदमी की मंजूरी मिलने के बाद ही वह शेयर किया जाएगा। पर इस बात पर भाग्य से ही कोई विश्वास करेगा कि भारत में उसका डाटा सुरक्षित रहेगा और उसकी मर्जी के बगैर शेयर नहीं किया जाएगा। यहां पांच-दस लाख रुपए में लोगों द्वारा आधार कार्ड का डेटा बेचने के समाचार समय-समय पर आते रहते हैं। ऐसे में अस्पतालों में रखे गए हेल्थ डेटा बाजार में बिकने लगें तो इसमें नया क्या होगा। तो देशवासियों फिर एक बार कार्पोरेट घरानों के फायदे के लिए लाइनों में लगने के लिए तैयार हो जाओ।
-वीरेन्द्र बहादुर सिंह, नोएडा (उप्र)